काँटों की राह
एक आम औरत की असाधारण जिजीविषा की गाथा
मंजुला कभी कोई बड़ा नाम नहीं थी। न कोई नामी परिवार, न ही विशेष शिक्षा। एक छोटे कस्बे के सरकारी स्कूल में पली-बढ़ी, मंजुला की ज़िंदगी का अधिकतर हिस्सा रसोई और जिम्मेदारियों के बीच बीतता था। पर यही एक साधारण-सी स्त्री, समय के थपेड़ों और कठिनाइयों से जूझते हुए कैसे अपने भीतर की आग को पहचानती है और दूसरों के जीवन की मशाल बनती है — यह कहानी उसी सफर की है, जो कांटों से शुरू होकर उम्मीदों के फूलों तक जाती है।
उत्तर प्रदेश के एक छोटे कस्बे नरायनगंज में एक पतली गली के अंतिम मकान में रहती थी मंजुला – लगभग 38 साल की, दो बेटियों की माँ और एक शराबी पति की पत्नी। उसका जीवन हर सुबह एक ही तरह शुरू होता – पानी भरना, स्कूल की टिफ़िन बनाना, कपड़े धोना और फिर शाम को पति की गालियाँ सुनना।
शादी के पहले मंजुला को सिलाई में रुचि थी। वह अपने गाँव की महिलाओं के कपड़े सिलती थी और अपनी माँ से सीखी हुई कढ़ाई के काम में निपुण थी। पर शादी के बाद इन सबको “समाज के नियमों” और ससुराल की जिम्मेदारियों ने दबा दिया। धीरे-धीरे वह खुद भी मान बैठी कि यही उसकी किस्मत है।
एक रात जब उसका पति शराब पीकर आया और उसकी छोटी बेटी को धक्का दे दिया, तब मंजुला का कुछ टूट गया। यह पहली बार था जब उसने अपनी बेटी को अपनी गोद में उठाकर कसकर कहा – “अब बस। अब ये ज़िंदगी नहीं जीनी।”
अगली सुबह वह चुपचाप मोहल्ले की महिला मंडली में गई और पूछा, “कोई पुरानी सिलाई मशीन दे सकता है?” एक वृद्ध महिला ने मुस्कराते हुए कहा, “बिटिया, मेरी पुरानी मशीन रख ले। कब से धूल खा रही है।”
उस दिन मंजुला पहली बार अपने पुराने कपड़ों से काट-छांट कर एक ब्लाउज़ सिली। फिर एक पुराने ग्राहक की बेटी की फ्रॉक बनाई। धीरे-धीरे उसके बनाए कपड़े मोहल्ले में मशहूर होने लगे। लेकिन मुश्किलें यहीं खत्म नहीं हुईं।
उसके पति ने जब सुना कि वह ‘काम’ करने लगी है, तो पहले उसे पीटा, फिर उसे काम छोड़ने की धमकी दी। मगर मंजुला इस बार झुकी नहीं। उसने कहा, “जिस दिन मैं कमाना छोड़ूँगी, उस दिन मेरी बेटियाँ भी सपने देखना छोड़ देंगी।”
वह अब हर दिन सुबह चार बजे उठती, घर का काम निपटाती और फिर मशीन के सामने बैठ जाती। सिलाई के साथ-साथ उसने यूट्यूब से कुछ डिजाइन सीखने शुरू किए। बेटी के मोबाइल से वीडियो देखती, बार-बार रिवाइंड करती और ट्रायल करती। एक बार की गई कढ़ाई में गलती हो जाए, तो रातभर बैठकर दोबारा करती।
धीरे-धीरे वह कढ़ाई में पारंगत होती गई। एक दिन एक ग्राहक ने कहा, “आपके हाथ की कढ़ाई तो किसी डिज़ाइनर से कम नहीं।” यह सुनकर मंजुला की आंखें भीग गईं – न खुशी से, बल्कि अपने भीतर छिपे आत्मविश्वास की वापसी से।
कुछ ही महीनों में उसके पास काम की भरमार होने लगी। अब वह अपनी जैसी दूसरी औरतों को भी काम देने लगी – बिन्दु, रेखा, सुलोचना – सबका जीवन बदलने लगा।
एक दिन की बात है – एक प्रतिष्ठित बुटीक की मालकिन मीरा गुप्ता ने मंजुला का काम इंस्टाग्राम पर देखा और मिलने आई। मीरा ने उसे ऑफर दिया – “आप मेरे लिए एक्सक्लूसिव कढ़ाई करें, मैं आपके डिज़ाइनों को राष्ट्रीय स्तर पर बेचूंगी।”
मंजुला को लगा जैसे उसके जीवन का अंधेरा एक रोशनी में बदल रहा हो। अब वह न सिर्फ़ एक स्वतंत्र महिला थी, बल्कि दूसरों के लिए प्रेरणा भी बन चुकी थी। उसने अपने घर में एक छोटा-सा वर्कशॉप बना लिया, जहां छह महिलाएं उसके साथ मिलकर काम करती थीं। अब वह अपनी बेटियों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ा रही थी, और उनके सपनों को अपने हाथों से बुन रही थी।
एक दिन जब उसकी बड़ी बेटी सिमरन ने कहा, “माँ, मैं भी आपकी तरह अपनी मेहनत से कुछ बनना चाहती हूँ,” तब मंजुला ने सिर पर हाथ रखकर कहा, “बेटी, काँटों पर चलने से ही तो पाँव मज़बूत होते हैं।”
अब मंजुला का नाम स्थानीय मीडिया में भी आने लगा। उसके काम को महिलाओं के सशक्तिकरण का उदाहरण माना जाने लगा। उसे एक राज्य स्तरीय पुरस्कार से भी नवाज़ा गया – “स्वावलंबन श्री”।
उस समारोह में मंच से बोलते हुए मंजुला ने कहा –
“मैं कोई विशेष नहीं हूँ। मैं वही हूँ जिसे तुम सब ‘साधारण’ कहते हो। लेकिन अगर एक साधारण औरत, कांटों पर चलकर भी अपने बच्चों को रोशनी दे सकती है, तो समझो रास्ता हमेशा तुम्हारे अंदर ही छुपा है – बस आँखें खोलनी हैं।”
मंजुला की कहानी हमें यह सिखाती है कि परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, अगर एक औरत अपने भीतर की आग को पहचान ले, तो वह न केवल अपनी बल्कि सैकड़ों ज़िंदगियों को रोशन कर सकती है। कांटों की राह भले ही कठिन हो, लेकिन जब पैरों में हौसला हो, तो वही रास्ता मंज़िल बन जाता है।
समाप्त
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