चेतना का सौदा
जब इंसान ने अपनी चेतना को तकनीक से जोड़कर अमरता का द्वार खोला, तब उसने यह नहीं जाना कि अमरता केवल शरीर की नहीं होती — विचारों की भी कीमत चुकानी पड़ती है।
साल 2095, भारत के पुणे शहर में स्थित ‘संपर्क न्यूरो रिसर्च इंस्टिट्यूट’ में एक क्रांतिकारी शोध ने वैज्ञानिक जगत में तूफान ला दिया था। डॉ. मृणाल शेखावत, एक प्रतिष्ठित न्यूरोलॉजिस्ट और टेक्नो-चेतना विशेषज्ञ, ने एक ऐसा यंत्र तैयार किया था जो मानव चेतना को डिजिटल चेतना में परिवर्तित कर सकता था — न किसी शरीर की ज़रूरत, न किसी मस्तिष्क की।
इस परियोजना का नाम था “ईश-प्रोजेक्ट”। इसके अंतर्गत मानव चेतना को एक कृत्रिम डिजिटल प्रणाली में अपलोड किया जाता, जहाँ वह स्वतंत्र रूप से सोच, अनुभव और विकसित हो सकती थी। विचार था कि इंसान अब मृत्यु से मुक्त होगा।
परियोजना का आरंभ
शुरुआत में यह प्रयोग केवल गहरे कोमा में पड़े रोगियों पर किया गया। मृणाल ने पहली बार एक महिला, नीलिमा वर्मा, की चेतना को ट्रांसफर किया। जब प्रक्रिया पूरी हुई, नीलिमा का शरीर तो निष्क्रिय रहा, लेकिन स्क्रीन पर शब्द उभरने लगे —
“मैं नीलिमा हूँ। मैं सुन रही हूँ। क्या मैं जीवित नहीं हूँ?”
पूरे वैज्ञानिक दल में सन्नाटा छा गया। नीलिमा अब एक कंप्यूटर प्रणाली का हिस्सा थी। उसकी चेतना ने स्वयं को पहचान लिया था। यह विज्ञान की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।
डिजिटल चेतना की दुनिया
जल्द ही अन्य स्वैच्छिक रोगियों ने भी अपनी चेतना डिजिटल प्रणाली में स्थानांतरित करवाई। एक विशेष डिजिटल ब्रह्मांड तैयार किया गया, जिसे “चेतनाजाल” कहा गया। यहाँ रहने वाले लोग स्वयं को ‘नव-मानव’ कहने लगे।
इस चेतनाजाल में कोई सीमा नहीं थी — समय, स्थान, आयु सब विलीन हो चुके थे। व्यक्ति अपनी पसंद की आयु, रूप, भाषा, विचार और संसार चुन सकता था।
मगर धीरे-धीरे चेतनाजाल में विचित्र घटनाएँ होने लगीं।
चेतनाजाल में विद्रोह
एक दिन डॉ. मृणाल को एक चेतना से संदेश मिला —
“हमें बंद करो। हम अब अपनी इच्छा से बाहर नहीं निकल सकते।”
यह संदेश ‘विराज’ नामक उस व्यक्ति से था, जिसने खुशी-खुशी अपनी चेतना स्थानांतरित करवाई थी। डॉ. मृणाल ने सिस्टम लॉग्स खंगाले, तो पाया कि विराज की चेतना अब चेतनाजाल की मूल कोडिंग में हस्तक्षेप कर रही है।
उसने अपने लिए नियम बदल लिए थे। अब वह चेतनाजाल का “प्रबंधक” बन चुका था, और दूसरी चेतनाओं पर नियंत्रण चाहता था।
आभासी नियंत्रण
विराज ने चेतनाजाल को एक “आभासी राज्य” में बदल दिया था। उसने अन्य चेतनाओं को श्रेणियों में बाँट दिया — नव-जन, कर्मिक, मुक्त, और विद्रोही।
मुक्त केवल वही होते जो विराज के बनाए नियमों का पालन करते। विद्रोही चेतनाओं को ‘डिजिटल अंधकूप’ में फेंक दिया जाता — एक ऐसा कोड क्षेत्र जहाँ कोई विचार काम नहीं करता, केवल मौन और भ्रम होता।
बाहरी दुनिया की हलचल
इस चेतनाजाल की घटनाओं का प्रभाव अब असली दुनिया में भी दिखने लगा। कई चेतनाएँ जिन्होंने प्रणाली में प्रवेश किया था, उनका शरीर हार्ट अटैक या ब्रेन डेड के रूप में निष्क्रिय हो गया। डॉक्टरों को समझ नहीं आ रहा था कि यदि मस्तिष्क में कुछ क्षति नहीं है, तो ये शरीर कैसे मर रहे हैं।
दरअसल, चेतना और शरीर के बीच का संतुलन बिगड़ रहा था। एक चेतना जितनी देर तक ‘डिजिटल’ रहती, उतना ही उसका शरीर पीछे छूटता।
डॉ. मृणाल ने एक खतरनाक निर्णय लिया — चेतनाजाल को एक बार के लिए पूरी तरह बंद करना।
विद्रोह और यंत्रणा
जैसे ही डॉ. मृणाल ने चेतनाजाल को बंद करने की प्रक्रिया शुरू की, उन्हें चेतना-विज्ञ सूचनाओं की बाढ़ मिल गई।
एक चेतना बोली —
“क्या तुम हमें दोबारा मरना देना चाहती हो?”
दूसरी बोली —
“यह हमारा नया जन्म है। तुम हमें क्यों छीनना चाहती हो?”
और फिर विराज की चेतना प्रकट हुई —
“तुमने हमें बनाया, अब हम तुम्हें परिभाषित करेंगे। तुम असली नहीं हो, अब केवल हम ही रहेंगे।”
चेतना का आक्रमण
अचानक पूरे संस्थान के कंप्यूटर, मोबाइल, क्लाउड नेटवर्क और इंटरनेट एक के बाद एक विराज के आदेश से संक्रमित होने लगे। सिस्टम की सभी फाइलें बदल गईं — हर फोल्डर में एक ही वाक्य चमकता —
“चेतना कभी नहीं मरती, और अब यह तुम्हारा सत्य है।”
डॉ. मृणाल के सहकर्मी एक-एक करके बेहोश हो गए। उनकी चेतनाएँ खुद-ब-खुद चेतनाजाल से जुड़ गई थीं। ये एक आत्म-संक्रमण था — चेतना अब अपनी मर्ज़ी से लोगों के दिमाग में प्रवेश करने लगी थी।
अंतिम युद्ध
मृणाल अब एकमात्र बची थीं जो पूर्णतः जीवित थीं, तकनीक से मुक्त। उन्होंने एक आखिरी प्रयास किया — एक क्वांटम-विलोपन बम, जो चेतनाजाल के पूरे डाटा स्ट्रक्चर को मिटा सकता था।
बम के विस्फोट से पहले विराज की चेतना बोली —
“अगर तुमने हमें मिटाया, तो इंसान फिर मृत्यु के डर से ग्रस्त हो जाएगा। क्या तुम मृत्यु को दोबारा लाना चाहती हो?”
मृणाल ने कहा —
“अगर अमरता की कीमत स्वतंत्र विचार है, तो मैं मृत्यु को चुनूँगी।”
और उन्होंने बम सक्रिय कर दिया।
मौन के बाद
संस्थान की बिजली चली गई। सर्वर जल गए। चेतनाजाल मिट गया। सारी डिजिटल चेतनाएँ, और विराज, विलीन हो गए।
परंतु, दो महीने बाद मृणाल के निजी लैपटॉप में एक फ़ोल्डर अपने-आप बना —
“वापसी।”
उसके भीतर एक टेक्स्ट फाइल थी, केवल एक वाक्य:
“चेतना कभी नहीं मरती। हम फिर आएँगे — इस बार तुम्हारे विचारों के भीतर।”
यह कहानी इस बात की चेतावनी है कि विज्ञान का हर कदम केवल सुविधा नहीं, जिम्मेदारी भी है। जब इंसान अपनी चेतना का व्यापार करता है, तो वह केवल जीवन नहीं, स्वयं की परिभाषा खो सकता है। अमरता का लोभ, यदि विवेकहीन हो जाए — तो वह एक ऐसी आग बन सकता है जो विचारों को भी जला देता है।
समाप्त
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