अंतिम मंज़िल – आत्माओं का द्वार
संक्षेप:
यह कहानी एक सुनसान पहाड़ी स्टेशन “घाटराकोट” की है, जहाँ एक वीरान होटल ‘अंतिम मंज़िल’ पिछले चालीस वर्षों से बंद पड़ा है। कहा जाता है कि वहां जो भी ठहरता है, या तो वापस नहीं आता, या पागल हो जाता है। जब मशहूर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म निर्माता अमर राजपुरोहित, अपनी टीम के साथ उस होटल की सच्चाई को उजागर करने आता है, तो उनके सामने खुलता है ऐसा भयावह रहस्य, जो उन्हें ज़िंदा ही आत्माओं की दुनिया में घसीट ले जाता है। यह कहानी डर के एक-एक परत को खोलती है — और बताती है कि कभी-कभी सच्चाई को ज़िंदा दफ़्न ही रहने देना चाहिए।
कहानी:
अमर राजपुरोहित पिछले दस वर्षों से ऐसी जगहों की डॉक्यूमेंट्री बनाते आ रहे थे, जहाँ आम लोग जाने से डरते हैं — भूतिया बंगले, शापित गांव, तांत्रिकों की गुफाएँ। लेकिन उन्हें सबसे ज़्यादा ख़ौफ़नाक जगह की कहानी सुनने को मिली थी — ‘अंतिम मंज़िल’ होटल, जो घाटराकोट की बर्फ़ीली पहाड़ियों पर स्थित था।
शहर से सैकड़ों किलोमीटर दूर, चारों ओर ऊँचे देवदार के पेड़, घना कोहरा और अजीब सी ख़ामोशी — घाटराकोट में ज़िन्दगी जैसे ठहर जाती थी।
कहते हैं, 1975 की सर्दियों में, यह होटल अपने आख़िरी मेहमानों से भर गया था। उस रात सभी मेहमान गायब हो गए। कोई शव नहीं मिला, बस कमरों में खून के धब्बे, उखड़े फर्श और हर दीवार पर उकेरे गए शब्द —
“अंतिम मंज़िल केवल मृतकों के लिए है।”
उसके बाद से होटल बंद है। कई लोगों ने कोशिश की उसे खोलने की, लेकिन जो भी गया, या तो लौटकर आया ही नहीं या पागल हो गया।
अमर की टीम में पाँच लोग थे — उसकी सहनिर्देशक सान्या, कैमरा मैन राहुल, ध्वनि इंजीनियर मिहिर, लोकेशन स्काउट तपस, और ड्रोन ऑपरेटर योगिता। वे सब कैमरा, टॉर्च, ड्रोन और जरूरी साजो-सामान के साथ घाटराकोट पहुँचे।
रास्ते में उन्हें एक बूढ़ा साधु मिला, जो बर्फ में तपस्या कर रहा था। उसने आँखें खोले बिना कहा —
“जो अंतिम मंज़िल जाता है, वो खुद को कभी नहीं पाता। आत्मा वहाँ भटकती है, और शरीर मिट्टी हो जाता है।”
सब हँस दिए, सिवाय अमर के। उसने साधु की आँखों में झाँका — उनमें डर नहीं था, बस जानने की पीड़ा थी।
पहली रात – प्रवेश
होटल की भारी लोहे की चेन सड़ी हुई थी, लेकिन जैसे ही अमर ने उसे छुआ, खुद-ब-खुद खुल गई।
भीतर अंधकार और बर्फ़ का साम्राज्य था। दीवारों पर फटी तस्वीरें, मेन हॉल में टूटे फर्नीचर, और एक बड़ा सा पियानो — जिसका एक की दबा हुआ था… जैसे किसी की उँगली अब भी उस पर रखी हो।
सान्या ने पूछा —
“क्या कोई यहाँ रहता है?”
अमर ने जवाब दिया —
“नहीं, पर कोई शायद लौटना नहीं चाहता।”
टीम ने अपने कैमरे लगाए, साउंड रिकॉर्डर ऑन किया और रात के लिए तंबू लगा लिए। लेकिन रात को ठीक तीन बजे, मिहिर की चीख़ गूँजी —
“मेरे कान के अंदर कोई फुसफुसा रहा है!”
अमर दौड़ा, पर मिहिर बेहोश था — और उसके कान में सचमुच खून था। सान्या ने रिकॉर्डिंग चेक की — उसमें एक बुदबुदाती हुई आवाज़ थी:
“मुझे आवाज़ मत दो… वरना मैं लौट आऊँगी…”
दूसरी रात – बंद दरवाज़ा
होटल की सबसे ऊपर की मंज़िल — अंतिम मंज़िल, पूरी तरह बंद थी। लेकिन उस दिन सुबह जब अमर उठा, तो देखा वह दरवाज़ा खुला था। कोई और नहीं, बस अमर ही ऊपर गया।
हर कमरा सील था, लेकिन एक कमरा — कमरा संख्या 309 — पूरा खुला। अंदर एक बड़ा शीशा था, जिसमें कुछ लिखा था:
“जो मुझे देखता है, वही बन जाता है मैं।”
अमर ने उस शीशे में झाँका — पर देखा कि उसका चेहरा बदल रहा है, घुल रहा है, और उसमें से एक महिला का चेहरा उभर रहा है — बहुत सुंदर, पर आँखें काली, खाली, और भय से भरी।
वह पीछे हटा, पर दरवाज़ा बंद हो चुका था। घंटों बाद जब राहुल ऊपर पहुँचा, तब दरवाज़ा खुला और अमर बाहर आया — पर उसका चेहरा बुझा हुआ था।
तीसरी रात – आत्मा का प्रवेश
उस रात सबने तय किया कि सुबह निकल जाएंगे। पर देर रात, योगिता की आवाज़ आई — “मैं बाहर देख रही हूँ, कोई होटल के लॉन में नाच रहा है…”
ड्रोन कैमरे में जो देखा गया, वह सबका खून जमा देने वाला था — एक महिला, सफेद साड़ी में, बर्फ़ में नंगे पाँव नाच रही थी, और पीछे पीछे चल रही थीं सैकड़ों धुंधली आत्माएँ।
हर आत्मा अधूरी थी — किसी के हाथ नहीं थे, किसी का चेहरा, किसी का धड़ गायब था। वो सब होटल की ओर बढ़ रहे थे।
अमर ने ज़ोर से कहा —
“हमेशा के लिए बंद करो कैमरे, ये हमारे लिए नहीं।”
लेकिन अब देर हो चुकी थी।
सान्या की आँखें सफेद हो गईं। उसके मुँह से वही आवाज़ निकली जो मिहिर के कान में थी:
“तुमने मुझे देखा… अब मैं तुम्हारे भीतर हूँ…”
अंतिम दृश्य – रिपोर्ट
पाँच में से सिर्फ़ एक — राहुल — दो हफ़्तों बाद बर्फ़ में बेहोश पाया गया। होश में आने के बाद वह सिर्फ एक ही बात दोहराता रहा:
“कमरा 309 मत खोलना… वह अब कोई दरवाज़ा नहीं, वह द्वार है… मृतकों की दुनिया का…”
अब घाटराकोट बंद हो चुका है। हर रास्ते पर चेतावनी के बोर्ड हैं:
“यहाँ मत आओ। यहाँ तुम्हारे पैरों के निशान नहीं बचते, बस तुम्हारी परछाइयाँ रहती हैं।”
और “अंतिम मंज़िल” आज भी खड़ी है — शांत, पर भीतर गूँजता है संगीत…
और झूमता है एक पियानो…
जिसकी एक की पर अब भी एक आत्मा की उँगली रखी है।
अंत।