अकेली की तलाश
यह एक ऐसी स्त्री की यात्रा है, जो समाज के बनाए रिश्तों, उम्मीदों और परंपराओं की भीड़ में अपनी “अकेलेपन” को समझने की कोशिश करती है। यह कहानी उस मौन औरत की है जो कभी नहीं बोली, लेकिन एक दिन, वह अपनी ही ख़ामोशी को अपनी सबसे बड़ी ताक़त बना लेती है।
दिल्ली के उत्तरी छोर पर बसी संकरी गलियों वाली बस्ती में, एक शांत, धीर और बेहद अलग किस्म की औरत रहती थी — उसका नाम था माधवी वर्मा। उम्र के लगभग पचपनवें पड़ाव पर खड़ी यह औरत वर्षों से उसी पुराने दो-मंज़िला मकान में अकेली रह रही थी।
कभी वह इस मोहल्ले की सबसे हँसमुख, सबसे जीवंत लड़की मानी जाती थी। मगर आज, मोहल्ले के बच्चे भी उससे कतराकर निकलते थे। लोग कहते —
“माधवी दीदी का दिमाग़ अब ठीक नहीं रहता… अकेली औरत, ज़रूरत से ज़्यादा किताबें पढ़ती है।”
लेकिन कोई नहीं जानता था कि माधवी के भीतर क्या ज्वालामुखी सुलग रहा था।
आरंभिक जीवन और विवाह
माधवी एक साधारण ब्राह्मण परिवार में जन्मी थी। पढ़ाई में हमेशा अव्वल रही, कविताएँ लिखती थी, और अक्सर अकेले छत पर बैठी आकाश को निहारा करती। उसके पिता उसे लेक्चरर बनाना चाहते थे, लेकिन माँ का सपना था कि उसकी बेटी का ब्याह जल्दी हो जाए, अच्छे कुल में हो जाए, और वह घर संभाल ले।
बी.ए. के अंतिम वर्ष में माधवी का विवाह तय हो गया — अनुराग अवस्थी, उम्र में सात साल बड़ा, बिजनेस करता था। पहली बार जब माधवी ने उसे देखा, तो उसे वह बहुत आत्मविश्वासी और आकर्षक लगा।
शादी के बाद वह कानपुर शिफ्ट हो गई। वहाँ का माहौल, नया घर, ससुराल — सब उसके लिए नई दुनिया था। पहले साल तो सबकुछ सामान्य रहा। मगर धीरे-धीरे अनुराग का व्यवहार बदलने लगा।
वह बात-बात पर चिड़चिड़ाता, माधवी की कविताओं को “बेकार की बातें” कहकर टाल देता। वह चाहता था कि माधवी केवल गृहिणी बनी रहे — रसोई, पूजा, मेहमान, और बच्चे। लेकिन माधवी का मन इससे कहीं ज़्यादा चाहता था।
सपनों की चुप्पी
एक दिन माधवी ने अनुराग से कहा —
“मैं मास्टर्स करना चाहती हूँ, फिर कॉलेज में पढ़ाना चाहती हूँ।”
अनुराग ने बिना उसकी ओर देखे जवाब दिया —
“तुम्हारी ज़रूरत घर में है, बाहर नहीं। और तुम्हारी पढ़ाई अब शादी के साथ ही खत्म हो चुकी है।”
माधवी चुप हो गई। उस चुप्पी की शुरुआत वहीं से हुई। धीरे-धीरे वह उस घर की ज़रूरतों में खोती चली गई — दो बच्चे हुए, समय बीतता रहा।
वह अब सिर्फ़ एक पत्नी, एक माँ और एक बहू बन चुकी थी — “माधवी” अब कहीं भीतर सिसक रही थी।
जीवन में भूचाल
जब माधवी के बच्चे बड़े हुए और बाहर पढ़ने चले गए, तब उसके जीवन में एक भयानक मोड़ आया। अनुराग को अचानक दिल का दौरा पड़ा और कुछ ही मिनटों में उसकी मृत्यु हो गई।
अचानक, माधवी उस घर में अकेली रह गई — न शोर, न तकरार, न कोई आदेश। एकदम निस्तब्ध शांति।
मगर उसी शांति में माधवी को पहली बार एक अजीब सी राहत महसूस हुई।
शोक के पहले महीने में वह हर दिन रोती रही, पर दूसरे महीने से उसकी आँखें सूखी रहने लगीं। और तीसरे महीने उसने अलमारी की सबसे ऊपरी रैक से अपनी पुरानी डायरी निकाली — धूल भरी, मगर उसमें वही पुरानी कविताएँ थीं।
“मैं अब भी हूँ। पूरी की पूरी। बस वर्षों से किसी और की आवाज़ में जीती रही।”
आत्म-निर्माण की प्रक्रिया
अगले कुछ वर्षों में माधवी ने खुद को फिर से गढ़ा। उसने पास के पुस्तकालय में नाम लिखा, साहित्य सम्मेलनों में भाग लेना शुरू किया। उसकी कविताओं में जीवन, अकेलापन, स्त्री का मौन और आंतरिक छटपटाहट घुली होती थी।
उसने एक दिन अपनी कुछ कविताओं को एक स्थानीय प्रकाशक को भेजा। कुछ हफ्तों बाद, प्रकाशक ने संपर्क किया —
“आपकी कविताओं में एक बेआवाज़ क्रांति है, जो चुप रहकर भी हिला देती है।”
माधवी की पहली कविता संग्रह छपी — “न बोलूं फिर भी” — और वह साहित्यिक हलकों में चर्चा का विषय बन गई।
समाज की सीमाएँ
मगर मोहल्ला जहाँ वह रहती थी, उसकी उड़ान को सहज नहीं ले पाया।
“बुढ़ापे में लेखिका बनने चली हैं?”
“पति की मौत के बाद तो मानो पंख लग गए!”
माधवी को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ा। वह अब जान चुकी थी — जो स्त्री खुद को समझ जाए, वो दुनिया की चुभती निगाहों को भी शांत मुस्कान से जवाब देती है।
एक नई दिशा
एक दिन उसकी मुलाक़ात एक प्रोफेसर से हुई — डॉ. नीलिमा जोशी, दिल्ली यूनिवर्सिटी की साहित्य विभाग की वरिष्ठ लेखिका।
नीलिमा ने कहा —
“आपकी कविताएँ अकादमिक अध्ययन के लायक हैं। मैं चाहती हूँ आप हमारी मास्टर क्लास में गेस्ट लेक्चर दें।”
माधवी डर गई।
“मैंने तो कभी क्लास नहीं ली।”
नीलिमा मुस्कराईं —
“आपने जीवन को पढ़ा है, वही सबसे बड़ा पाठ्यक्रम है।”
माधवी ने पहली बार छात्रों के सामने खड़े होकर अपनी कविता पढ़ी —
“मैं अकेली नहीं, मैं संपूर्ण हूँ। जो जुड़ा नहीं, वो भी मेरा हिस्सा है।”
कक्षा में सन्नाटा छा गया। फिर तालियों की गूंज उठी।
घर की ओर वापसी
उस दिन के बाद माधवी दिल्ली में हर जगह आमंत्रित की जाने लगी। उसकी दूसरी किताब — “भीड़ में एक” — राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार प्राप्त कर चुकी थी।
अब जब वह अपने पुराने मोहल्ले में लौटती थी, तो लोग खड़े हो जाते थे, सम्मान से झुकते थे।
लेकिन माधवी जानती थी —
सम्मान वह है जो आप खुद को देते हैं, बाकी तो समाज की सुविधा है।
समापन की सांझ
पचपन की उम्र में, माधवी ने अपनी ज़िंदगी की तीसरी किताब लिखी — “मैं और मेरी चुप्पियाँ” — जिसमें उसने अपनी संपूर्ण जीवन-यात्रा दर्ज की।
उसने लिखा —
“औरतें कई बार अकेली नहीं होतीं, बस उन्हें अकेला करार दे दिया जाता है। मैं उस अकेलेपन में अपनी पूरी दुनिया ढूंढ लाई हूँ। अब न कोई ख्वाहिश बाकी है, न कोई शिकायत। मैं हूँ — बस मैं।”
माधवी की कहानी उस हर स्त्री की कहानी है जो कभी बोल नहीं पाई, पर जीती रही। और जब बोलना शुरू किया, तो उसकी ख़ामोशी भी पूरी किताब बन गई।
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समाप्त
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