अग्निपथ की संतान
संक्षिप्त परिचय
यह कथा है वीरभूमि रणगढ़ की, जहाँ साहस, पराक्रम और परिश्रम का इतिहास पत्थरों पर लिखा जाता है। वर्षा-वनों और उबड़-खाबड़ घाटियों के मध्य बसी इस भूमि पर मंडरा रहा है एक नया संकट — जल का अपहरण! एक रहस्यमयी शक्ति ने पूरे क्षेत्र के जल स्रोतों को अवरुद्ध कर दिया है, जिससे जन-जीवन संकट में है। इस परिस्थिति में उठ खड़ा होता है एक युवा — यशवर्धन, जो बचपन से ही अपने पिता के अदम्य साहस की गाथाएँ सुनता आया है। यशवर्धन और उसके मित्रों की यह यात्रा एक सीधी राह नहीं, बल्कि कांटों से भरी एक ऐसी अग्निपथ है जहाँ हर कदम पर चुनौती है, और हर चुनौती में छुपा है आत्म-ज्ञान। यह एक अनोखी गाथा है जल को वापस लाने की, आत्मबल की, और उस सत्य की, जो केवल ज्वालामुखी के गर्भ से ही निकल सकता है।
भाग १: रणगढ़ का सूखा
रणगढ़ एक पर्वतीय अंचल था जो झरनों, वनस्पतियों और स्वाभिमानी लोगों के लिए जाना जाता था। लेकिन पिछले तीन महीनों से वहाँ की नदियाँ सूख चुकी थीं। झरने थम गए थे, कुएँ प्यासे हो गए थे और वर्षा की कोई आहट नहीं थी।
राजा वीरसेन ने अपने मंत्रियों को बुलाकर आदेश दिया — “जो भी इस आपदा का कारण पता लगाएगा और रणगढ़ को जल लौटाएगा, उसे ‘रणवीर सम्मान’ और अचल भूमि का स्वामी बनाया जाएगा।”
गाँव का एक तेजस्वी युवक, यशवर्धन, यह बात सुनकर भीतर से जल उठा। उसके पिता, सेनापति रघुवीर, एक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। अब यशवर्धन को अपनी मातृभूमि के लिए कुछ कर दिखाना था।
भाग २: यात्रा की शपथ
यशवर्धन अपने दो मित्रों को लेकर राजा के दरबार में पहुँचा —
कनिष्का, जो एक तीरंदाज थी और वन-जीवन की गहरी जानकार थी।
दक्ष, जो यंत्रों और मशीनी रचनाओं का धनी था।
“महाराज, हमें पाँच दिन का समय दें। हम जल स्रोतों के बंद होने का कारण ढूंढ़ लाएंगे,” यशवर्धन ने दृढ़ स्वर में कहा।
राजा ने आदेश दिया, “तुम्हें केवल पाँच दिन मिलेंगे। यदि असफल हुए, तो तुम्हें वनवास का दंड मिलेगा।”
तीनों ने जलती अग्नि के समक्ष शपथ ली — “हम अग्निपथ से भी गुजरेंगे, पर जल को वापस लाएंगे।”
भाग ३: पहले मोड़ की मुठभेड़
पहले दिन वे पहुँचे ‘शुष्कगिरी’ पर्वत पर, जहाँ कभी सबसे बड़ा जलप्रपात बहता था। अब वहाँ केवल पथरीली दीवारें थीं। यशवर्धन ने अपने हाथों से मिट्टी हटाई, और भीतर उन्हें एक लोहे का द्वार मिला — जंग लगा हुआ, पर अस्तित्व में।
दक्ष ने यंत्रों की सहायता से द्वार खोला। भीतर एक सुरंग थी, जो जल के प्रवाह को रोक रही थी। वे जैसे ही आगे बढ़े, उन्हें सामने दिखे लकड़ी के बने विशाल यंत्र और एक मुखौटाधारी योद्धा।
“तुम यहाँ क्या करने आए हो?” वह दहाड़ा।
यशवर्धन ने तलवार निकाली और बोले, “हम जल का अधिकार लेने आए हैं।”
तीव्र युद्ध हुआ। कनिष्का ने तीर चलाकर मुखौटा गिराया — वह एक वृद्ध व्यक्ति था, जो कभी राजा वीरसेन का सहयोगी हुआ करता था, पर अब जल को बेचकर अपनी तिजोरियाँ भर रहा था।
उसकी पराजय के साथ एक जल स्रोत पुनः जागृत हुआ।
भाग ४: अग्निपथ की गर्जना
तीसरे दिन वे पहुँचे ज्वालापर्वत की तलहटी पर। यहाँ माना जाता था कि ज्वालामुखी के भीतर प्राचीन यंत्र छुपा है, जिससे पूरे क्षेत्र का जल प्रवाहित होता है।
दक्ष ने कहा, “अगर हम उस यंत्र तक पहुँच जाएं, तो पूरी जल प्रणाली पुनः चालू हो सकती है।”
परंतु समस्या थी — ज्वालामुखी के भीतर प्रवेश करना। तप्त लावे और धुएँ के बीच चलना, मानो अग्निपथ पर चलना था।
यशवर्धन ने निश्चय किया — “मैं अकेला भीतर जाऊँगा।”
कनिष्का और दक्ष ने उसका मार्ग प्रशस्त किया। यशवर्धन ने ज्वालामुखी के भीतर प्रवेश किया, जहाँ एक विशाल चक्र घूम रहा था — ठप्प पड़ा, क्योंकि उसका केंद्र अटक गया था।
उसने अपने पैरों से चट्टानों को हटाया, तपती भाप को सहा और रक्त बहने के बावजूद यंत्र को चला दिया।
जैसे ही यंत्र ने घूमना शुरू किया, पहाड़ की गर्जना हुई — और बाहर वर्षों से रुकी जलधारा प्रवाहित होने लगी।
भाग ५: अंतिम परीक्षा
जब वे लौटे, रणगढ़ हर्षोल्लास में था। परंतु राजा वीरसेन ने कहा, “यात्रा पूरी तब मानी जाएगी, जब तुम यह बताओ कि जल को रोकने की जड़ कहाँ है।”
यशवर्धन ने जनता के समक्ष कहा —
“जल की कमी का कारण केवल यंत्र नहीं, लालच है। जब हमारे अपने ही लोग, जिनपर हम विश्वास करते हैं, सत्ता के लोभ में पर्यावरण को व्यापार बना दें, तब प्रकृति अपना मुँह मोड़ लेती है।”
राजा को सत्य स्वीकारना पड़ा। उन्होंने आदेश दिया कि रणगढ़ की नदियों और झीलों की रक्षा के लिए ‘जलसंरक्षण दल’ बनाया जाए, जिसकी कमान यशवर्धन को दी गई।
अंतिम समापन
यशवर्धन अब रणगढ़ के केवल सेनानी नहीं, जल के रक्षक बन चुके थे। उनके साहस, परिश्रम और अग्निपथ से होकर निकले आत्मबल ने यह सिद्ध कर दिया कि एक व्यक्ति भी प्रकृति और समाज की दिशा बदल सकता है। अग्निपथ केवल तप का नाम नहीं, वह एक ऐसा मार्ग है जहाँ चलने वाले स्वयं अग्नि बन जाते हैं।
समाप्त।