अजनबी दस्तक
संक्षिप्त भूमिका
जब मुंबई के एक पुराने अपार्टमेंट में रहने वाली विधवा लेखिका की रात में रहस्यमय तरीके से मौत हो जाती है, तब पुलिस इसे स्वाभाविक मृत्यु घोषित कर देती है। लेकिन उसके बेटे को एक अज्ञात चिट्ठी मिलती है जो कहती है — “तुम्हारी माँ की मौत, मौत नहीं थी।”
अब शुरू होती है एक खोज — एक लेखक की जिंदगी के वो पन्ने पलटने की जो कभी छपे ही नहीं थे।
पहला दृश्य – वह जो नहीं बोली, पर सब लिख गई
मुंबई के मालाड इलाके में स्थित एक पुराना अपार्टमेंट — शीतल धारा —
जहाँ 68 वर्षीया सविता मोइत्रा पिछले 13 वर्षों से अकेली रह रही थीं।
एक समय की जानी-मानी नॉवेलिस्ट,
अब वह रिटायर होकर चुपचाप अपनी दुनिया में रहती थीं।
सुबह अखबार पढ़तीं, दोपहर में लिखतीं, शाम को बालकनी में बैठतीं —
और रात को शायद किसी को अपनी डायरी में दर्ज कर देतीं।
एक सुबह उनकी मेड शांता घर पहुंची,
तो मुख्य दरवाज़ा अंदर से कुंडी लगे होने के बावजूद खुला पाया।
भीतर सविता बेहोश पड़ी थीं, नाड़ी धीमी, चेहरा पीला।
हॉस्पिटल ले जाते समय ही उनकी मौत हो गई।
पुलिस ने पोस्टमार्टम में बताया —
“दिल का दौरा।”
लेकिन जो बात सबको सामान्य लगी,
उसमें कुछ ऐसा था जो उनके बेटे निरंजन मोइत्रा को खटक गया।
दूसरा दृश्य – चिट्ठी जो सवाल बनकर आई
निरंजन, बेंगलुरु में काम करता था — एक कॉर्पोरेट वकील के रूप में।
माँ की मृत्यु के बाद वह अंतिम संस्कार के लिए मुंबई आया।
तीसरे दिन, जब वह सविता की किताबें समेट रहा था,
तभी दरवाज़े के नीचे से एक चिट्ठी सरकाई गई।
उसमें सिर्फ़ एक पंक्ति लिखी थी —
“तुम्हारी माँ की मौत, एक योजना थी। वो उस किताब के आखिरी पन्ने पर थी जो छपी ही नहीं।”
कोई नाम नहीं, कोई पता नहीं।
निरंजन सोच में पड़ गया।
क्या यह कोई सनकी पाठक की शरारत थी?
या कोई सच?
उसी रात उसने माँ की आलमारी टटोली —
वहाँ सैकड़ों डायरी थीं, लेकिन एक खाली जगह थी —
जैसे हाल ही में कोई डायरी निकाली गई हो।
तीसरा दृश्य – किताब जो अधूरी थी, पर ख़त्म हो चुकी थी
सविता मोइत्रा ने पिछले तीन सालों से कुछ प्रकाशित नहीं किया था,
लेकिन एक महीना पहले उसने एक प्रकाशक को मेल किया था —
“मैं ‘नीले पर्दे के पीछे’ नामक अंतिम उपन्यास पूरा कर रही हूँ।”
निरंजन ने वह मेल ढूंढा —
और पाया कि प्रकाशक ने जवाब नहीं दिया था।
पर उस मेल के साथ एक फ़ाइल संलग्न थी —
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जब निरंजन ने वो फ़ाइल खोली, तो पहले पन्ने पर लिखा था:
“यह कहानी है उस औरत की जो खुद को छोड़ चुकी है।
उसने किसी को नहीं बताया कि वो कितनी बार मरी,
और एक दिन वह सचमुच मर गई —
बिना शोर के, बिना किसी को दोष दिए।”
कहानी की शैली आत्मकथात्मक थी।
लेकिन जैसे-जैसे निरंजन ने पढ़ा,
वह महसूस करने लगा कि यह केवल कल्पना नहीं —
बल्कि सविता की खुद की आपबीती हो सकती है।
चौथा दृश्य – दरवाज़ा जो कभी बंद नहीं हुआ
उपन्यास के तीसरे अध्याय में एक रहस्यमयी पुरुष पात्र आता है —
जो हर शनिवार दोपहर बिना बताए घर आता है,
कभी एक पुरानी फ़ाइल लेकर, कभी कुछ चाय के बहाने।
वह पुरुष खुद को सविता का ‘प्रशंसक’ कहता है,
पर कुछ पंक्तियाँ कहती हैं:
“उसकी निगाहों में शब्द नहीं, इरादे होते थे।
वह मेरे कमरे के हर कोने को जैसे टटोलता था —
जैसे वह मुझसे नहीं, किसी चीज़ की तलाश में हो।”
क्या यह कहानी का हिस्सा था?
या कोई सच?
निरंजन ने फिर से सुरक्षा गार्ड से बात की।
गार्ड ने बताया —
“हाँ, एक आदमी हर शनिवार आता था। एक साठ साल का दुबला-पतला आदमी, सादे कपड़ों में।
आंटी ने उसे ‘पुराना मित्र’ कहकर ऊपर भेजने को कहा था।”
जब निरंजन ने अपार्टमेंट के विज़िटर रजिस्टर को देखा,
तो पता चला कि ‘अजय पाध्याय’ नामक व्यक्ति हर शनिवार आया करता था।
पाँचवाँ दृश्य – जो ग़ायब है, वही सबसे ज़्यादा बोलता है
निरंजन ने ‘अजय पाध्याय’ की जानकारी ढूंढी।
वह एक सेवानिवृत्त लाइब्रेरियन था,
जो अब खंडाला में अकेला रहता था।
निरंजन ने उससे संपर्क किया और मिलने की गुज़ारिश की।
अजय पहले अनमना रहा,
पर फिर उसने कहा:
“मैं और सविता कॉलेज से दोस्त थे। कुछ दस्तावेज़ थे जो उसने मुझे दिए थे,
पर मैं उन्हें कभी लौटा नहीं पाया।”
निरंजन ने सीधा सवाल पूछा —
“क्या मेरी माँ की मौत में आपकी कोई भूमिका थी?”
अजय चुप रहा, फिर बोला:
“उस दिन… जब मैं शनिवार को पहुँचा,
तो वह मेरी प्रतीक्षा कर रही थी —
पर उसने चाय नहीं पूछी।
बस एक ही बात कही:
‘मैं अब थक चुकी हूँ।’
मैं चला गया।
और अगली सुबह ख़बर आ गई।”
पर उसने एक लिफ़ाफा निकाला —
जिसमें सविता की वही आख़िरी डायरी थी जो गायब थी।
अंतिम दृश्य – वो आखिरी पंक्ति
डायरी का आखिरी पन्ना फटा हुआ था,
पर उसके ठीक पिछले पन्ने पर लिखा था:
“अगर मेरी मृत्यु को कोई मौत माने,
तो जान लेना — मैंने कुछ छुपाया नहीं था।
पर मुझे यक़ीन है कि कोई मेरी मौत को दोबारा पढ़ेगा,
जैसे मैं अपनी ज़िंदगी को आखिरी बार लिख रही हूँ।”
डॉक्टर की रिपोर्ट कहती थी —
मृत्यु प्राकृतिक थी।
पर अब सविता की डायरी, उपन्यास, और वह चिट्ठी —
तीनों कह रहे थे कि यह मृत्यु स्वाभाविक होते हुए भी,
एक मानसिक संपूर्णता थी।
जैसे किसी ने अपने जीवन का अंतिम अध्याय खुद लिखा,
पर किसी और की नज़रों से।
निरंजन ने उसकी अंतिम किताब प्रकाशित करवाई —
नाम वही रखा: “नीले पर्दे के पीछे”
प्रकाशना का पहला पन्ना कहता है:
“यह कोई आत्महत्या नहीं थी।
यह उस स्त्री की कथा है,
जिसने अपनी चुप्पी को साहित्य बना दिया।”
समाप्त