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अनदेखा आयाम

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अनदेखा आयाम

सारांश:
दिल्ली के एक पुराने सरकारी अपार्टमेंट में रहने वाली आयशा को अपने फ्लैट के सामने लगे एक बंद दरवाज़े से अजीब आवाज़ें सुनाई देती हैं — वो दरवाज़ा पिछले 22 सालों से नहीं खुला। पुलिस और सोसाइटी के रिकॉर्ड में वह फ्लैट ‘रिक्त’ है, लेकिन आयशा को लगता है कि उस कमरे में कोई है… या कुछ है। उसकी जिज्ञासा उसे उस रहस्य की ओर ले जाती है, जहाँ उसकी अपनी पहचान, उसकी यादें, और उसका होश सब कुछ दांव पर लग जाता है।


कहानी:

वर्ष 2025, दिल्ली का लाजपत नगर इलाका। घनी आबादी, पुरानी इमारतें, और भीड़-भाड़ के बीच एक 8 मंज़िला सरकारी क्वार्टर — ई-ब्लॉक। यहाँ सरकारी कर्मचारी रहते हैं, जो रिटायर होने तक एक जैसे कमरों में जीवन बिता देते हैं।

इस बिल्डिंग के सातवें माले पर आयशा शर्मा अपने पति सौरभ और छह साल के बेटे विवान के साथ रहती थी। सौरभ इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में अफसर था, और आयशा एक स्वतंत्र लेखिका थी। उनका जीवन सामान्य था — जब तक वह दरवाज़ा उनके जीवन में नहीं आया।

वो दरवाज़ा था — फ्लैट नंबर 704।

इस फ्लैट के बारे में सब कहते थे कि यह 22 सालों से बंद है। किसी को नहीं पता था कि उसमें कौन रहता था या क्यों बंद हुआ। एक पुराना ताला, धूल से भरी चौखट, और हर महीने सफाई वाला बस बाहर से झाड़ू लगाकर चला जाता था।

लेकिन आयशा ने हाल ही में नोटिस करना शुरू किया कि रात को 2 से 3 बजे के बीच, उस दरवाज़े के अंदर से आवाज़ें आती हैं — जैसे कोई धीरे-धीरे फर्नीचर खींच रहा हो, किसी की फुसफुसाहटें, या कभी-कभी किसी के हँसने की धीमी आवाज़।

शुरू में उसने सोचा, ये सब उसके दिमाग की उपज है। लेकिन जब उसका बेटा विवान बोला, “मम्मा, 704 वाले अंकल मुझे रोज़ दरवाज़े से झाँकते हैं,” तो आयशा का दिल सन्न रह गया।

उसने सोसाइटी के चेयरमैन से बात की। उन्होंने मुस्कराकर कहा, “मैम, 704 पिछले 22 सालों से बंद है। उस कमरे में 2003 में एक अकेले रहने वाले वैज्ञानिक रहते थे — डॉ. अक्षय त्रिपाठी। एक दिन अचानक वे गायब हो गए। पुलिस आई, दरवाज़ा तोड़ा, अंदर कोई नहीं मिला। कमरे में एक अजीब-सा लैब था, दीवारों पर अजीब गणनाएँ और डायग्राम बने थे, और फर्श पर कुछ जलने के निशान थे। इसके बाद फ्लैट को सील कर दिया गया।”

“और वो ताला?”

“वो ताला दो साल पहले सरकार ने फिर से लगवाया। कोई किरायेदार नहीं मिला, तो वहीं छोड़ दिया।”

आयशा ने महसूस किया कि कुछ तो गड़बड़ है।

अगले कुछ दिनों तक उसने 704 पर नज़र रखी। एक दिन उसने देखा — दरवाज़े के नीचे से हल्की रोशनी बाहर आ रही है, और कोई परछाईं दरवाज़े के पास टहल रही है।

उसने तुरंत मोबाइल से वीडियो रिकॉर्ड किया, लेकिन वीडियो में कुछ नहीं दिखा।

उसने सौरभ को बताया, लेकिन उसने हँसकर बात टाल दी, “तुम्हारा दिमाग फिर से कहानियाँ गढ़ रहा है।”

लेकिन जब सौरभ एक दिन रात को गायब हो गया, तो सब कुछ बदल गया।

वह रात 2 बजकर 12 मिनट की थी, जब आयशा की नींद खुली। सौरभ बिस्तर पर नहीं था। विवान उसके पास ही सो रहा था। रसोई में, हॉल में, बाथरूम में — कहीं नहीं था। फिर अचानक उसे एहसास हुआ — फ्लैट का दरवाज़ा खुला है।

वो बाहर भागी — और देखा, सौरभ 704 के दरवाज़े के सामने खड़ा है, जैसे सम्मोहित हो। उसका हाथ ताले पर है, और वो खुद-ब-खुद खुल रहा है।

“सौरभ!” आयशा चिल्लाई — लेकिन तब तक वो दरवाज़ा खुल चुका था और सौरभ अंदर चला गया।

और फिर — दरवाज़ा खुद बंद हो गया।

आयशा ने पुलिस को बुलाया। जब वे आए, और दरवाज़ा तोड़ा गया — अंदर कुछ नहीं था। कोई इंसान नहीं, कोई फर्नीचर नहीं — बस एक खाली, वीरान कमरा। पर दीवारों पर अब भी वही अजीब चिह्न थे — जैसे कोई गणितीय भाषा, जैसे कोई वैज्ञानिक प्रयोग चल रहा हो।

पुलिस ने आयशा की बात को मानसिक भ्रम बताया।

वो टूट गई। लेकिन हार नहीं मानी। उसने डॉ. अक्षय त्रिपाठी पर रिसर्च शुरू की। और जल्द ही उसे पता चला कि अक्षय क्वांटम फिजिक्स और कॉनशस डाइमेंशन (चेतन आयाम) पर रिसर्च कर रहे थे — उनका मानना था कि मानव मन की चेतना अलग-अलग आयामों को महसूस कर सकती है, और उन्हें पार भी कर सकती है।

उनकी अंतिम रिपोर्ट में लिखा था —
“यदि एक मनुष्य अपने स्मृतियों को नियंत्रित कर ले, तो वह समय और अस्तित्व की सीमाओं को पार कर सकता है। 704 अब सिर्फ एक कमरा नहीं है — यह अब एक प्रवेशद्वार है।”

आयशा अब डर और दर्द को भूल चुकी थी। वह जानती थी कि सौरभ मरा नहीं है — वह कहीं और है। शायद एक और आयाम में, और उसके लिए एकमात्र रास्ता है — 704।

उसने 704 के सामने डेरा डाल लिया। दिन-रात वही थी। और फिर, एक रात — वही समय, 2:17 — दरवाज़ा फिर से खुद-ब-खुद खुला।

वो बिना सोचे अंदर घुस गई।

अंदर कुछ नहीं था — बस एक अजीब गंध, दीवारों पर चमकते प्रतीक, और एक गोल दर्पण जैसी वस्तु — जो दिख रही थी, पर छूने पर उसमें हाथ चला जाता था।

वह कुछ समझ पाती, इससे पहले ही उसे अपनी पीठ पर किसी ने छुआ। पलटी — और देखा, वही परछाईं — लंबी, विकृत, उसकी आँखें रोशनी की तरह जल रही थीं।

“तुम नहीं जा सकती,” वह बोली — उसकी आवाज़ किसी औरत जैसी थी, पर जैसे सौ लोगों के गले से एकसाथ निकली हो।

“सौरभ कहाँ है?” आयशा चीखी।

“उसकी चेतना अभी अधर में है… अगर तुम अंदर गई, तो लौट नहीं पाओगी।”

आयशा ने बिना रुके वह गोल दर्पण पार किया।

अगली सुबह जब पुलिस आई — 704 खाली था। अब उसमें दो लोग गायब थे — सौरभ और आयशा।


लेकिन तीन महीने बाद, इमारत में रहने वाले एक वृद्ध व्यक्ति ने देखा — 704 का दरवाज़ा हल्के से हिला। और खिड़की पर कोई महिला खड़ी थी, जिसके चेहरे पर पीड़ा थी, और जिसने होंठों से सिर्फ एक शब्द कहा — “विवान।”


अंतिम पंक्ति:
हर दरवाज़ा जो बंद है, वह खाली नहीं होता — कुछ दरवाज़े अंदर नहीं, पर कहीं और खुलते हैं। और जब वह दरवाज़ा खुलता है, तो सवाल यह नहीं होता कि आप क्या देखेंगे… बल्कि ये कि क्या आप वापस लौट भी पाएँगे?

समाप्त

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