आत्मा का दर्पण
जब भीतर की आवाज़ बाहर बोल उठी
आत्मा का दर्पण: कई बार जीवन की आपाधापी में हम उस मौन को सुनना भूल जाते हैं जो हमारे भीतर से पुकारता है। यह कहानी एक ऐसे व्यक्ति की है जो संसार की चकाचौंध में सब कुछ पा चुका था—धन, प्रसिद्धि और ऐश्वर्य—परंतु अंततः उसे समझ में आया कि असली खजाना उसकी आत्मा के भीतर छुपा है। ‘आत्मा का दर्पण’ एक गहराई से जुड़ी आध्यात्मिक यात्रा है, जहाँ सत्य, मोह, विवेक और आत्म-प्रकाश के द्वंद्व में एक मनुष्य अपने अस्तित्व के मर्म को पहचानता है।
वाराणसी के घाटों पर सूरज की पहली किरण जब गंगा के जल में पड़ती थी, तो एक अद्भुत प्रकाश की रेखा उस शांत जल को चमका देती थी। इसी नगरी में जन्मा था राजवीर शर्मा, एक तेजस्वी, प्रतिभावान और महत्त्वाकांक्षी युवक। उसके पिता, श्रीधर शर्मा, संस्कृत के आचार्य थे और आध्यात्मिक पथ के सच्चे साधक। परंतु राजवीर के लिए धर्म और आत्मा की बातें समय की बर्बादी थीं। उसे चाहिए था संसार का यश और भौतिक वैभव।
राजवीर ने पढ़ाई में शानदार प्रदर्शन किया, विदेश में पढ़ा और एक प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय कंपनी का सीईओ बन गया। कोठियाँ, कारें, आलीशान दफ्तर, कॉन्फ्रेंस, सम्मान-पत्र—उसकी ज़िंदगी एक सपना बन चुकी थी। लेकिन इस सपने के भीतर एक अदृश्य खालीपन था, जो हर दिन उसके भीतर और गहरा होता जा रहा था।
पिता की मृत्यु पर वह भारत लौटा। घाट पर जब उन्होंने पिता की चिता को अग्नि दी, तो एक साधु ने आकर कहा,
“बेटा, अग्नि केवल शरीर को जलाती है, परंतु आत्मा की अग्नि भीतर जलती है—वह तब तक शांति नहीं पाती जब तक दर्पण में अपना सच्चा प्रतिबिंब न देख ले।”
राजवीर ने उस साधु को उपेक्षा से देखा और वापस अपनी ज़िंदगी में लौट गया। परंतु अब कुछ बदल गया था। उस दिन से हर रात उसे एक सपना आने लगा—वह एक वीरान घाट पर अकेला खड़ा है, उसके सामने गंगा बह रही है और पानी में उसका चेहरा धुँधला दिख रहा है, जैसे दर्पण टूटा हो।
दिन बीतते गए, लेकिन राजवीर का चैन चला गया। मन अशांत, कार्यक्षमता क्षीण, रिश्ते बिखरने लगे। उसे नींद नहीं आती, खाना बेस्वाद लगने लगा। हर सफलता अब व्यर्थ लगने लगी। धीरे-धीरे एक अनजानी पीड़ा उसका जीवन घेरने लगी।
फिर एक दिन, उसने अचानक कंपनी से त्यागपत्र दे दिया और वाराणसी लौट आया। उसने निर्णय लिया कि वह उस साधु को ढूँढेगा, जिसने चिता के पास वह रहस्यमय वाक्य कहा था। घाट दर घाट, मठ दर मठ भटका, लेकिन साधु कहीं नहीं मिला। एक दिन उसे एक बूढ़ा पुजारी मिला जिसने कहा,
“जो बाहर ढूँढता है वह कभी नहीं पाता। भीतर झाँको, वहीं सब मिलेगा।”
राजवीर ने उसी क्षण स्वयं को एकान्त साधना में समर्पित कर दिया। उसने एक पुराने आश्रम में ठिकाना बनाया और ध्यान साधना प्रारंभ की। पहले दिन विचारों की बाढ़ आई—पश्चाताप, भय, क्रोध, अभिमान, वासनाएं—सब भीतर से फूटने लगे। दूसरे दिन उससे ध्यान ही नहीं लगाया गया। तीसरे दिन उसे नींद में भी डरावने दृश्य आने लगे।
लेकिन चौथे दिन अचानक ध्यान के मध्य एक गहरी शांति ने उसे छुआ। एक ऐसी अनुभूति, जिसे शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता। कुछ मिनटों के लिए उसका शरीर लुप्त हो गया और केवल चेतना बची। उस क्षण उसने पहली बार स्वयं को देखा, बिना किसी मुखौटे के।
धीरे-धीरे राजवीर को समझ आने लगा कि उसकी पीड़ा, उसका खालीपन इसीलिए था क्योंकि वह केवल बाहर की दुनिया को जीतने में लगा रहा, पर आत्मा को भूखा छोड़ दिया।
आश्रम के एक वृद्ध सन्यासी ने उसे बताया,
“बेटा, आत्मा का दर्पण तभी साफ होता है जब मन की धूल हटती है। और वह धूल है—लोभ, अहंकार, मोह और तृष्णा। जब इनसे मुक्त होते हो, तब आत्मा का प्रतिबिंब स्पष्ट होता है।”
राजवीर ने अब ध्यान, सेवा, अध्ययन और मौन को जीवन का हिस्सा बना लिया। वर्षों बीते। अब वह वही राजवीर नहीं रहा। उसे लोग स्वामी आत्मराज के नाम से जानने लगे थे—एक शांत, विद्वान, आत्मज्ञानी संत, जिनके प्रवचनों में हजारों लोग शांति की खोज में आते।
एक दिन वही साधु, जो चिता के दिन मिला था, अचानक आश्रम में प्रकट हुआ। उसने मुस्कराकर कहा,
“अब तुम्हारा दर्पण निर्मल है। अब तुम देख सकते हो, और दिखा सकते हो।”
राजवीर—अब आत्मराज—ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया।
“पर क्या अब भी कुछ जानना बाकी है?”
साधु मुस्कराए,
“जब तक ‘मैं’ रहेगा, जानना बाकी रहेगा। जब ‘मैं’ नहीं रहेगा, जानने वाला ही समाप्त हो जाएगा। वही पूर्णता है।”
उस दिन के बाद आत्मराज और भी गहराई में चले गए। मौन हो गए। अब वे बोलते नहीं थे, बस उनकी उपस्थिति ही शांति का प्रकाश बन चुकी थी।
यह कहानी हमें यह सिखाती है कि जीवन की असली यात्रा बाहर नहीं, भीतर होती है। जब तक हम आत्मा का दर्पण नहीं देखते, तब तक हम केवल एक छाया हैं अपने ही जीवन की।
समाप्त।
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