ईमान की कीमत
सारांश:
यह कहानी है अमावासपुर नामक कस्बे के एक सच्चे और सीधे साधे लोहारी ‘शंभू’ की, जो अपने छोटे से काम और बड़े आत्मसम्मान के लिए जाना जाता है। जब एक दिन धन और सुविधा के नाम पर उसे झुकाने की कोशिश होती है, तो शंभू अपने सिद्धांतों की रक्षा के लिए जो निर्णय लेता है, वह पूरे कस्बे को सोचने पर मजबूर कर देता है। यह कहानी दर्शाती है कि सच्चा आत्मसम्मान, पैसों से कहीं ऊपर होता है।
कहानी:
अमावासपुर, एक पुराना लेकिन आत्मीय कस्बा था। वहाँ ज़्यादा चकाचौंध नहीं थी, लेकिन लोग मेहनती थे और आपस में विश्वास रखते थे। उसी कस्बे के किनारे रहता था शंभू लोहार। न ज़्यादा पढ़ा-लिखा, न कोई ऊँचे सपने, बस रोज़ सूरज उगते ही भट्ठी जलाता, लोहे को पिघलाता और औज़ार बनाता – हँसते-हँसते, गुनगुनाते हुए।
शंभू का एक ही सिद्धांत था – “काम में बेईमानी नहीं, और आत्मा में झुकाव नहीं।”
लोग कहते, “शंभू तू थोड़ा चतुर हो जा, थोड़ा समझौता कर ले। बाकी सब भी तो करते हैं।”
शंभू मुस्करा देता, “अगर औज़ार की धार में मिलावट होगी, तो खेत नहीं जुतेंगे, केवल ज़ख्म देंगे।”
एक दिन कस्बे में एक बड़ा कारखाना खोलने का ऐलान हुआ – ‘विक्रम इंडस्ट्रीज’। मालिक था – जुगल किशोर, एक बड़ा उद्योगपति जो शहर से गाँवों में व्यापार फैलाना चाहता था। उसके आदमी आए और कस्बे के हुनरमंदों की सूची तैयार की। शंभू का नाम सबसे ऊपर था।
एक बड़ी कार, धूल उड़ाती हुई उसके टूटे बरामदे के पास रुकी। तीन आदमी उतरे – कोट, चश्मा, चमकते जूते।
“शंभू जी, बधाई हो! मालिक आपको अपने कारखाने में मुख्य कारीगर बनाना चाहते हैं। हर महीने दस हज़ार रुपया, खाना-पीना अलग, और कंपनी की ओर से एक नया मकान।”
शंभू ने पसीने से भीगे हाथ से लोहा थामे थामे पूछा, “काम क्या होगा?”
“आपको सिर्फ औज़ार बनाने हैं, लेकिन थोक में – और हाँ, कभी-कभी थोड़ा माल सस्ता दिखाने के लिए कमज़ोर मेटल का भी इस्तेमाल करना पड़ेगा। व्यापार में यह चलता है।”
शंभू के माथे पर बल पड़ गया।
“मतलब झूठ का सामान बनाना होगा?”
“अरे नहीं नहीं… उसे मार्केटिंग भाषा में ‘लाइट वर्ज़न’ कहते हैं।”
“मगर जब किसान उसका हल बनाएगा और वह बीच खेत में टूट जाएगा, तो क्या जवाब दोगे?”
“शंभू जी! आप भावुक हो रहे हैं। आपको तो बस पैसा कमाना है।”
शंभू ने हथौड़ी नीचे रख दी और बोला,
“माफ कीजिए, मैं औज़ार बनाता हूँ, धोखा नहीं। मुझे वो पैसा नहीं चाहिए जो मेरी आत्मा को बेचे।”
कारवाले हँसते हुए चले गए – “बूढ़ा पागल है! देखना दो महीने बाद खुद चलकर आएगा।”
समय बीता, कारखाना खुला। कस्बे के कई लोग वहाँ काम करने लगे। शंभू की दुकान खाली रहने लगी। नया मकान, चमकते औज़ार, सस्ते दाम – लोगों को लुभा रहे थे।
शंभू अब अकेला बैठा रहता, लेकिन रोज़ अपनी भट्ठी जलाता। वह काम नहीं रोकता, भले ही ग्राहक ना हो। उसने कहा,
“किसी दिन कोई ऐसा आएगा जिसे सिर्फ सच्चाई चाहिए होगी। और मैं उसके लिए तैयार रहना चाहता हूँ।”
एक दिन बारिश में एक बूढ़ा किसान थक कर उसके पास आ गया। हाथ में टूटा हुआ हल था – “शंभू बेटा, कारखाने से लिया हल टूट गया। फसल बर्बाद हो रही है। क्या अब भी बना सकता है?”
शंभू ने बिना एक शब्द बोले, भट्ठी फिर से जलाई। सारा दिन उसने पसीना बहाया, और रात तक किसान को वह औज़ार थमा दिया जो सच की गर्मी में बना था।
अगले दिन खेत में वही हल काम आया – तेज़, मजबूत और भरोसेमंद। यह खबर जंगल की आग की तरह फैल गई। एक-एक करके किसान, मिस्त्री, लोहार – सब वापस शंभू के पास आने लगे।
कारखाने के औज़ार टूटने लगे, शिकायतें बढ़ीं, और अंततः कारखाना बंद होने की नौबत आ गई।
जुगल किशोर खुद शंभू के पास आया।
“शंभू जी, हमारी कंपनी अब आप पर ही निर्भर है। जो शुद्धता आपने बनाई है, वह हम पैसों में नहीं बना पाए। कृपया हमारी कंपनी को संभालिए।”
शंभू ने जवाब दिया –
“आपकी कंपनी नहीं, आपकी सोच टूट चुकी है। मैं औज़ार बना सकता हूँ, लेकिन आत्मा नहीं। जो झूठ से बना हो, वह मेरे हाथों से नहीं बनेगा।”
नैतिक शिक्षा:
जो लोग अपने आत्मसम्मान, सच्चाई और परिश्रम के रास्ते से नहीं डिगते, समय भले उन्हें परखे, लेकिन अंत में वही लोग सबसे बड़ा बदलाव लाते हैं। पैसा सब कुछ नहीं होता – चरित्र ही असली पूंजी है।
समाप्त।