एक अधूरी मुस्कान
संक्षिप्त विवरण:
यह एक अत्यंत भावनात्मक और यथार्थपरक पारिवारिक नाटक है जो एक निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार की आर्थिक, सामाजिक और मानसिक संघर्षों की परतों को खोलता है। यह कहानी एक मां ‘शालिनी’, एक बेरोज़गार बेटा ‘राघव’, एक समझौतों में घुटती बहू ‘सोनल’ और एक खोखली होती हुई ज़िंदगी की है। हर किरदार अपने-अपने स्तर पर टूट रहा है, लेकिन कोई चीख नहीं रहा। यह कहानी उन मुस्कानों की है, जो सिर्फ दिखाने के लिए होती हैं — जिनमें कोई आत्मा नहीं होती। लेकिन क्या किसी दिन यह मुस्कान सच में खिल सकेगी?
कहानी:
पहला दृश्य: टूटी हुई दीवारें, झुकी हुई छत, मगर अब भी जीवित उम्मीदें
लखनऊ के पुराने हिस्से में एक बस्ती थी — ‘बनमाली नगर’ — जहां हर दीवार के पीछे एक अधूरी कहानी थी। इन्हीं गलियों के बीच एक खपरैल का मकान था – नंबर 27 – जिसमें रहती थी शालिनी देवी। उनके साथ था उनका इकलौता बेटा राघव, और उसकी पत्नी सोनल। यह घर, समय और तक़दीर दोनों से लड़ रहा था। हर ईंट से आवाज़ आती थी – “मैं अब भी हूं।”
शालिनी देवी की उम्र साठ के पार थी, लेकिन चेहरा अब भी सौम्य और कोमल था। उनके हाथों में अब भी स्वाद था, और मन में अब भी सपना कि राघव को नौकरी मिल जाए। वह हर मंगलवार को हनुमान मंदिर जाती थीं और हर बार केवल एक ही प्रार्थना करतीं – “भगवान, मेरे बेटे को एक रोज़गार दे दो।”
राघव ने बी.ए. किया था। कभी कॉलेज में कविता लिखा करता था। लेकिन आज उसकी जेबें खाली थीं, आत्मविश्वास डगमगाया हुआ था। हर सुबह वह अख़बार में नौकरी के कॉलम को छूता, लेकिन पढ़ता नहीं था। क्योंकि अब पढ़ने से डर लगता था। हर दिन नई अस्वीकृति, हर दिन नए ताने।
सोनल, जो कभी एक स्कूल में शिक्षिका थी, अब घर में बर्तन मांजते-मांजते अपनी मुस्कान भूल चुकी थी। ससुराल में आते ही उसकी नौकरी छुड़वा दी गई थी, क्योंकि “घर की बहू को घर संभालना चाहिए” — यह सोच शालिनी की नहीं, पड़ोस और समाज की थी, जिसका दबाव शालिनी भी झेल रही थीं।
दूसरा दृश्य: रिश्तों की कड़वाहट और मूक संवाद
घर की हवा में एक ठहराव था। हर कोई अपनी-अपनी उदासी में कैद था। राघव चुपचाप बालकनी में बैठकर खाली नज़र से सामने के नीम को देखता। सोनल रसोई में बनी-बनाई दिनचर्या को जीती और शालिनी मंदिर जाकर प्रसाद में शांति ढूंढतीं।
एक दिन राघव ने सोनल से चाय माँगी। वह चाय लाते हुए बोली –
“चीनी नहीं डाली है, पैसे नहीं थे, दुकान से उधार मिलना बंद हो गया है।”
राघव ने कुछ नहीं कहा, बस कप रख दिया। वह कप कई दिन वहीं पड़ा रहा, जैसे घर के रिश्तों की तरह – उपयोगहीन, पर पड़ा हुआ।
तीसरा दृश्य: पड़ोस की दखलअंदाज़ी और समाज का व्यंग्य
बनमाली नगर की एक खास बात थी – वहां के लोग दूसरों की ज़िंदगी में ज़्यादा रुचि लेते थे। खासकर बगल की शांता बुआ। उनकी एक ही आदत थी – ताने और अफवाहें।
“शालिनी बहन, कब तक राघव को पलाओगी? नौकरी तो मिलती नहीं, बहू भी बुझी-बुझी सी रहती है। अरे, ये तो बोझ बन गई पूरी ज़िंदगी!”
शालिनी मुस्कुरा देतीं, लेकिन उनके चेहरे की झुर्रियाँ चुपचाप भीग जातीं।
चौथा दृश्य: संघर्ष का उबाल और आत्मसम्मान की तलाश
एक दिन सोनल ने चुपचाप अपने पुराने प्रमाणपत्र निकाले और स्कूल की वेबसाइट पर आवेदन भेज दिया। शालिनी ने देख लिया। उन्होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन उनके चेहरे पर एक उदासी उभर आई। रात को जब राघव बालकनी में बैठा था, शालिनी ने उसके पास आकर धीरे से कहा –
“सोनल ने स्कूल में आवेदन भेजा है। तुम बुरा मत मानना, बेटा। पर घर चलाना है, तो किसी को तो कुछ करना होगा।”
राघव ने पहली बार मां की आँखों में देखा। वह न शर्मिंदा हुआ, न नाराज़। बस चुपचाप अपने कमरे में चला गया। रातभर नींद नहीं आई।
अगली सुबह, वह अखबार के साथ एक पेन लेकर बैठा और हर कॉलम ध्यान से पढ़ने लगा।
पाँचवाँ दृश्य: छोटा चमत्कार और बड़ी उम्मीद
कुछ हफ़्तों बाद सोनल को एक स्कूल से इंटरव्यू का कॉल आया। वह कांपते हुए गई। पर लौटते वक्त उसकी आंखों में चमक थी। वह नौकरी मिल गई थी।
उसी दिन शाम को राघव ने बताया कि उसे भी एक निजी संस्था में डेटा एंट्री की नौकरी मिल गई है – मामूली पैसे, लेकिन खुद के दम पर।
घर में पहली बार उस रात तीनों ने साथ बैठकर खाना खाया। बातों में पहले की तरह मिठास नहीं थी, लेकिन एक नई शुरुआत की गंध थी।
छठा दृश्य: एक अधूरी मुस्कान पूरी होती है
समय बीतता गया। राघव ने कविता लिखनी फिर से शुरू की, और एक स्थानीय पत्रिका में उसकी कविता छपी – “एक अधूरी मुस्कान।”
पंक्तियाँ थीं:
“मां के चेहरे की वो मुस्कान,
जो अक्सर झूठी लगती थी।
अब सच में खिलने लगी है,
जब बेटे ने कुछ कमाना शुरू किया है…”
शालिनी ने यह कविता पढ़ते हुए राघव की ओर देखा। दोनों की आंखों में आंसू थे – लेकिन आज वे आंसू सिर्फ दुख के नहीं थे।
अंतिम दृश्य: पुराने घर में नया उजाला
अब घर वही था – वही टूटी दीवारें, वही नीम का पेड़, वही पड़ोसी – लेकिन घर में अब एक नई रौशनी थी। सोनल स्कूल जाती, राघव ऑफिस, और शालिनी घर की पौधों में पानी डालते हुए हनुमान चालीसा गुनगुनातीं।
कभी-कभी पड़ोस की शांता बुआ भी कहतीं – “अब तो तुम्हारे घर की रौनक लौट आई, शालिनी बहन।”
शालिनी मुस्कुरा देतीं – इस बार पूरी आत्मा से। यह वही मुस्कान थी, जो सालों से अधूरी थी। अब वह पूरी हुई थी।
अंतिम पंक्तियाँ:
हर इंसान की ज़िंदगी में एक अधूरी मुस्कान होती है – जो समाज, गरीबी, असफलता और टूटते रिश्तों के बीच कहीं खो जाती है। लेकिन जब इंसान खुद में विश्वास फिर से खोजता है, रिश्तों को माफ़ करता है, और धीरे-धीरे आगे बढ़ता है – तब वही मुस्कान फिर से खिल उठती है। यही कहानी है ‘एक अधूरी मुस्कान’ की – जो अब पूरी हो गई है।