एक बंद लिफ़ाफ़ा
संक्षिप्त भूमिका
यह कहानी है दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल की,
जहाँ एक आदर्श समझी जाने वाली शिक्षिका की अचानक आत्महत्या ने सबको हिलाकर रख दिया।
किसी को कुछ पता नहीं चला कि रीमा घोष ने आत्महत्या क्यों की —
वह लोकप्रिय थीं, मेहनती थीं और हर छात्र की प्रिय थीं।
लेकिन जब एक पत्रकार को एक बंद लिफ़ाफ़ा मिलता है,
तो उसमें छुपे तथ्य बताते हैं कि यह मौत आत्महत्या नहीं,
बल्कि धीरे-धीरे गढ़ी गई मानसिक हत्या थी।
पहला दृश्य – आदर्श जो अचानक गिर गया
दक्षिण दिल्ली के एक निजी स्कूल हेरिटेज हाइट्स अकादमी में सब कुछ सामान्य चल रहा था।
सुबह की असेंबली, बच्चों की चहल-पहल,
और स्टाफ रूम में चाय पर चलती गपशप।
तभी स्कूल की पाँचवीं मंज़िल की सीढ़ियों से चीख सुनाई दी।
रीमा घोष, स्कूल की सीनियर अंग्रेज़ी अध्यापिका,
नीचे पड़ी थीं —
खून से लथपथ, नाड़ी न के बराबर।
अस्पताल ले जाते समय उन्होंने दम तोड़ दिया।
उनकी डेस्क से एक छोटा सा नोट मिला —
सिर्फ़ इतना लिखा था:
“माफ़ करना। मैं और नहीं सह सकती।”
पुलिस आई, जांच हुई, कोई ज़बरदस्ती के निशान नहीं।
सीसीटीवी में वह अकेली सीढ़ियों तक जाती दिखीं।
मामला आत्महत्या करार दे दिया गया।
अखबार में छोटी सी खबर छपी:
“सम्मानित शिक्षिका रीमा घोष ने की आत्महत्या, स्कूल में शोक।”
लेकिन इस एक पंक्ति के पीछे कई सालों का सन्नाटा छुपा था।
दूसरा दृश्य – जो दिखता है वो होता नहीं
तन्वी जैन, एक स्वतंत्र पत्रकार,
जो स्कूल-कालेज की दुनिया में लैंगिक भेदभाव और मानसिक उत्पीड़न पर रिपोर्टिंग करती थी,
उसे इस मौत में कुछ असामान्य लगा।
रीमा का प्रोफ़ाइल वह जानती थी —
वह स्कूल की सबसे प्रिय शिक्षिका थीं।
पिछले वर्ष उन्हें “बेस्ट टीचर ऑफ द ईयर” का पुरस्कार मिला था।
हर छात्र उन्हें “मम्मा टीचर” कहकर बुलाता था।
फिर ऐसी कौन-सी बात थी
जिसने उन्हें अपनी जान लेने को मजबूर किया?
तन्वी ने स्कूल प्रशासन से अनुमति लेकर
रीमा का स्टाफ रिकॉर्ड माँगा —
जो उन्हें नकार दिया गया।
“मामला बंद हो चुका है,” प्रिंसिपल ने कहा,
“हमें नहीं लगता कि इसमें कुछ नया है।”
पर इस इंकार में ही कुछ तो छुपा था।
तीसरा दृश्य – एक लिफ़ाफ़ा जो चुप नहीं रह सका
तीन दिन बाद तन्वी के नाम एक साधारण कागज़ का लिफ़ाफ़ा डाक से आया।
उस पर भेजने वाले का नाम नहीं था।
भीतर थे कुछ फोटोकॉपी की हुई कागज़ात —
जिनमें से एक थी रीमा घोष की हैंडराइटिंग में एक पत्र,
जिसके ऊपर लिखा था:
“अगर मैं चुप रह गई, तो कम से कम मेरे शब्द बोलें।”
उस पत्र में रीमा ने विस्तार से लिखा था:
“मैं पिछले दो सालों से लगातार मानसिक उत्पीड़न का शिकार हो रही हूँ।
स्कूल के वरिष्ठ प्रशासन — विशेष रूप से उपप्रधानाचार्य दीपक बक्शी —
लगातार मुझे अपने दबाव में रखने की कोशिश कर रहे हैं।
हर छोटी गलती को बढ़ा-चढ़ाकर प्रिंसिपल के सामने रखा जाता है।
स्टाफ मीटिंग में मेरा मज़ाक उड़ाया जाता है।
मुझे एक शिक्षक से नहीं, एक अपराधी की तरह व्यवहार किया जाता है।”
नीचे एक लाइन और थी:
“मैंने सारे सबूत एक पेनड्राइव में सुरक्षित रखे हैं। अगर कुछ हो, तो तन्वी जैन से संपर्क करें।”
तन्वी सन्न रह गई।
रीमा ने मरने से पहले अपने शब्दों को एक भरोसे के नाम सौंपा था।
चौथा दृश्य – संस्थान जो सुनना नहीं चाहते
तन्वी ने फौरन स्कूल में पुनः जाने की अनुमति मांगी,
पर इस बार सख़्ती से मना कर दिया गया।
“आप मीडिया हैं, और हम अब किसी प्रकार का विवाद नहीं चाहते।”
तन्वी ने रीमा की एक पुरानी सहकर्मी नैना मिश्रा से संपर्क किया।
नैना चुपचाप एक कॉफी शॉप में मिलीं, और कहा:
“हम सबने देखा, पर कोई कुछ कह नहीं पाया।
दीपक सर ने रीमा मैम को लगातार परेशान किया —
कभी देर से आने पर नोटिस,
कभी बच्चों के पेरेंट्स के झूठे आरोप,
यहाँ तक कि उन्हें ‘टीचर विथ इश्यूज़’ तक कहा गया।”
नैना ने बताया कि
रीमा के लॉकर में कुछ डॉक्युमेंट्स थे,
जो अब “गायब” थे।
पाँचवां दृश्य – जो ‘गलत’ साबित किया गया, वो सबसे ‘सही’ थी
तन्वी ने केस को फिर से खुलवाने के लिए
मीडिया रिपोर्ट तैयार की —
“रीमा घोष आत्महत्या या मानसिक हत्या?”
रिपोर्ट के प्रकाशित होते ही
स्कूल प्रशासन पर सवाल उठे,
और शिक्षा विभाग को जांच के लिए मजबूर होना पड़ा।
रीमा की बहन ने तन्वी के माध्यम से
वो पेनड्राइव दी जो उनके घर में एक किताब में छुपी मिली थी।
उसमें ऑडियो रेकॉर्डिंग्स थीं:
दीपक बक्शी की आवाज़ —
“अगर तुम्हें ये नौकरी चाहिए, तो जो कहा जाए वो करो।
वरना कारण बताओ नोटिस तैयार है।”
दूसरे में स्टाफ मीटिंग की रेकॉर्डिंग —
जहाँ हँसी में रीमा के व्यवहार को ‘over-sensitive’ कहा जा रहा था।
और एक अंतिम फाइल, रीमा के शब्दों में —
“मैंने कोशिश की, पर मेरी चुप्पी अब हथियार बन चुकी है।
अगर मैं न रहूं, तो मुझे कमज़ोर मत समझना —
मैं तुम्हारे शब्दों में ज़िंदा रहना चाहती हूँ।”
अंतिम दृश्य – न्याय जो देर से आया, पर आया
स्कूल में शिक्षा विभाग की जांच बैठी।
दीपक बक्शी को निलंबित किया गया,
प्रिंसिपल ने इस्तीफ़ा दिया।
रीमा घोष के नाम से दिल्ली टीचर्स यूनियन ने एक वार्षिक पुरस्कार शुरू किया —
जो “मानसिक सहनशीलता और सामाजिक न्याय” पर आधारित था।
तन्वी ने उसकी पूरी कहानी एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित की —
“एक बंद लिफ़ाफ़ा” —
जो भारत के शैक्षणिक संस्थानों में मानसिक उत्पीड़न के ख़िलाफ़ एक दस्तावेज़ बन गई।
समाप्त