कम्पास वाली जेब
संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है विधि चतुर्वेदी की — एक 15 वर्षीया तेज़-तर्रार, सवालों से भरी लड़की जो गाजियाबाद के एक सरकारी स्कूल में पढ़ती है। विधि के पास कोई मोबाइल नहीं, कोई सोशल मीडिया नहीं, लेकिन उसकी जेब में एक पुराना कम्पास है — जो उसके नाना जी का था। पर यह कम्पास केवल दिशा नहीं दिखाता, यह हर दिन कुछ नया सोचने की प्रेरणा देता है। जब स्कूल में “लाइफ स्किल्स एक्सप्लोरेशन क्लब” के लिए बच्चों को अपने प्रोजेक्ट देने होते हैं, तब विधि का कम्पास उसे एक ऐसी दिशा में ले जाता है, जो न केवल स्कूल का माहौल बदल देती है, बल्कि बच्चों को खुद की राह खोजने का एक तरीका दे जाती है।
यह कहानी उस पीढ़ी की है जो मोबाइल नहीं, मन से चलती है। और यह कहानी बताती है कि कभी-कभी एक छोटी सी जेब, जीवन का सबसे बड़ा रास्ता खोल सकती है।
पहला भाग – नाना की चीज़ और एक जिज्ञासु मन
विधि को अपने नाना जी की एक बात आज तक याद है —
“हर इंसान के पास एक कम्पास होना चाहिए, जो उसे खुद से दूर न जाने दे।”
जब नाना जी गुज़रे, तब वे अपनी छोटी सी लकड़ी की पेटी में एक कम्पास छोड़ गए थे।
विधि उसे रोज़ अपने स्कूल बैग की बगल वाली जेब में रखती — बहुतों को पता भी नहीं था कि वह रोज़ अपने साथ एक दिशा लेकर चलती है।
वह बहुत जिज्ञासु थी।
वह हर शिक्षक से सवाल करती, हर विषय की गहराई में जाती।
कभी-कभी उसकी सवालों से परेशान होकर शिक्षक कहते —
“तुम्हारे लिए तो अलग पाठ्यक्रम होना चाहिए!”
विधि हँस देती —
“पाठ्यक्रम बदलता नहीं, सोच बदलती है।”
दूसरा भाग – दिशा की खोज और क्लब की घोषणा
एक दिन स्कूल की प्रधानाचार्या अमृता मैम ने घोषणा की —
“विद्यालय में ‘लाइफ स्किल्स एक्सप्लोरेशन क्लब’ की स्थापना हो रही है, जहाँ हर छात्र को एक ‘जीवन समस्या’ को अपने तरीके से हल करने का प्रोजेक्ट बनाना होगा।”
सभी छात्र कुछ न कुछ सोचने लगे —
किसी ने ट्रैफिक पर, किसी ने तनाव पर, किसी ने मोबाइल लत पर।
विधि अकेली खड़ी रही, कम्पास को अपनी हथेली पर घुमाती रही।
वह सोच रही थी —
“समस्या एक नहीं है। हम सबका एक ही सवाल है — ‘मैं कौन हूँ और मुझे क्या चाहिए?’”
वह उसी दिन घर आई, और अपनी कॉपी के पहले पन्ने पर लिखा —
“मेरा कम्पास प्रोजेक्ट: मुझे खुद को जानना है।”
तीसरा भाग – कम्पास को बात करने दो
विधि ने एक अनोखा तरीका चुना।
उसने अपनी कक्षा के हर छात्र को एक कागज़ का टुकड़ा दिया, जिस पर बस एक सवाल लिखा था —
“अगर तुम्हारा मन कम्पास होता, तो वह अभी किस दिशा की ओर होता?”
बच्चे हैरान थे।
कुछ ने कहा —
“मुझे समझ नहीं आया।”
किसी ने कहा —
“मैं घर की दिशा में जाना चाहता हूँ।”
किसी ने लिखा —
“मैं चाहता हूँ कि कोई मुझे सुने।”
विधि ने सभी जवाबों को अपनी नोटबुक में चिपका लिया।
उसने देखा — हर बच्चा कुछ ढूँढ रहा है। कोई ध्यान, कोई दोस्ती, कोई मंज़िल, कोई बस थोड़ी सी शांति।
अगले दिन उसने बोर्ड पर एक पोस्टर चिपकाया —
“कम्पास क्लब – जहाँ हम खुद को खोजेंगे”
चौथा भाग – जब बच्चे अपने उत्तर खुद बने
विधि ने एक कोना माँगा स्कूल से — पुराने संग्रहालय के पास का कमरा।
उसने कम्पास क्लब को शुरू किया।
यहाँ कोई विषय नहीं था, कोई परीक्षा नहीं।
बस हर शुक्रवार दोपहर बच्चे आते थे, और उन्हें चार कोने दिए जाते —
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उत्तर (Self)
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पूर्व (Creativity)
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दक्षिण (Support)
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पश्चिम (Courage)
बच्चा अपनी कहानी, विचार या सवाल किसी भी कोने में जाकर रख सकता था।
धीरे-धीरे बच्चे आने लगे।
एक दिन सोनल नाम की लड़की ने कहा —
“मुझे नहीं पता मुझे क्या पसंद है, लेकिन अब मैं रोज़ लिखती हूँ।”
एक बार अविनाश ने कहा —
“मैं हर बात पर गुस्सा करता था, पर अब मैंने सीखा कि गुस्सा भी दिशा खो देना है।”
विधि मुस्कराती रही —
कम्पास अब सबके भीतर घूमने लगा था।
पाँचवाँ भाग – बाहर से आए लोग, भीतर से बदली सोच
कुछ महीनों में कम्पास क्लब की खबर बाहर पहुँची।
एक स्थानीय समाचार पत्र में लेख छपा —
“गाजियाबाद की छात्रा ने बनाया आत्म-खोज का स्कूल क्लब”
राज्य स्तर पर एक किशोर जागरूकता सम्मेलन हुआ, जिसमें विधि को आमंत्रित किया गया।
उसने वहाँ मंच पर कहा —
“हम जब छोटे थे, तो बड़े लोग हमें बताते थे — ‘इधर मत जाओ, उधर मत जाओ।’
पर किसी ने नहीं पूछा कि हम खुद कहाँ जाना चाहते हैं।
कम्पास क्लब यही सवाल पूछता है — ‘तुम कहाँ जाना चाहते हो?’”
सभा खामोश थी — फिर तालियों से गूँज उठी।
अंतिम भाग – कम्पास अब दिशा नहीं, दर्पण है
वर्ष के अंत में स्कूल ने क्लब को स्थायी रूप से एकीकृत कर लिया।
अब कक्षा नौ से बारह तक हर छात्र को वर्ष में एक बार कम्पास क्लब में जाना अनिवार्य था।
विधि अब बारहवीं की छात्रा थी।
एक जूनियर ने पूछा —
“दीदी, आप हर सवाल का जवाब कैसे ढूँढ लेती हैं?”
वह मुस्कराई और कम्पास उसकी जेब से निकालकर कहा —
“ये बताता है — जवाब बाहर नहीं, भीतर हैं।
बस थोड़ा रुकना होता है, थोड़ा सुनना होता है।”
उस दिन स्कूल की दीवार पर एक नई पंक्ति लिखी गई:
“जहाँ सवाल दिशा हैं, वहाँ उत्तर मंज़िल बनते हैं।”
समाप्त