कर्म और ज्ञान का संगम
संक्षिप्त सारांश:
यह कथा है पाटलिपुर के एक अभिमानी विद्वान चंद्रसेन की, जो शास्त्रों के ज्ञान में पारंगत तो था, परंतु जीवन की सच्ची अनुभूति से दूर था। एक रहस्यमयी वृद्ध सन्यासी से उसकी भेंट होती है, जो उसे कर्मयोग और ज्ञानयोग के वास्तविक रूप से परिचित कराता है। अहंकार, तर्क और आत्मसंदेह से होते हुए वह अंततः उस बोध तक पहुँचता है जहाँ उसे जीवन का परम सत्य ज्ञात होता है—कि बिना अहंकार के किया गया कर्म ही आत्मज्ञान की ओर ले जाता है।
कहानी:
पाटलिपुर की पवित्र भूमि पर चंद्रसेन नामक एक महान पंडित रहा करता था। वह वेदों, उपनिषदों और दर्शनशास्त्र का गहन ज्ञाता था। नगरभर में उसका नाम था। दरबारों में राजाओं के साथ उसकी चर्चा होती थी। परंतु उसके भीतर एक अज्ञात घमंड था—उसे लगता था कि वह स्वयं ही ज्ञान का केंद्र है।
हर प्रश्न का उत्तर, हर तर्क की काट उसके पास थी। पर एक दिन दरबार में एक साधारण-सा दिखने वाला वृद्ध सन्यासी आया और उसने एक प्रश्न पूछा—
“हे पंडितवर, क्या आप बता सकते हैं कि जल में कमल क्यों खिला रहता है, परंतु भीगता नहीं?”
चंद्रसेन मुस्कराया, “यह तो एक साधारण उपमा है—जैसे आत्मा शरीर में रहते हुए भी उससे अछूती रहती है।”
सन्यासी बोला, “पर क्या आपने वह अनुभव किया है या केवल पढ़ा है?”
इस प्रश्न ने चंद्रसेन के भीतर हलचल मचा दी। वर्षों से वह शास्त्र पढ़ रहा था, पर क्या उसने कभी आत्मा को अनुभव किया था? नहीं। उसने जो कुछ भी जाना था, वह केवल बुद्धि से जाना था—हृदय से नहीं।
सन्यासी ने मुस्कराते हुए कहा, “तू ज्ञानी है, पर अनुभवी नहीं। जब तक ज्ञान कर्म से न जुड़ा हो, वह केवल शब्दों का भार है।”
चंद्रसेन ने पहली बार किसी से पराजय महसूस की।
उसने सन्यासी से पूछा, “क्या आप मुझे सच्चे अनुभव की ओर ले जा सकते हैं?”
सन्यासी बोले, “तब तुम्हें ज्ञान का मोह छोड़कर कर्म के मार्ग पर चलना होगा। जब ज्ञान नम्रता बन जाए, और कर्म सेवा बन जाए, तभी आत्मा का अनुभव संभव है।”
अगले दिन चंद्रसेन ने अपना राजसी वस्त्र उतार फेंका और साधु के साथ चल पड़ा। दोनों काशी की ओर निकल पड़े—पर यह यात्रा केवल स्थान की नहीं, भीतर की थी।
पहली मंज़िल पर एक नदी पार करनी थी। नाविक ने भारी शुल्क माँगा, पर चंद्रसेन ने घमंडवश कहा, “मैं पंडित हूँ, मुझसे शुल्क नहीं लिया जाता।”
सन्यासी ने धीरे से कहा, “जब ज्ञान अहंकार बन जाए, तो वह अज्ञान से भी घातक होता है। नाविक को उसके परिश्रम का फल दो, यह उसका धर्म है।”
चंद्रसेन ने पहली बार सिर झुकाकर मुद्रा दी।
दूसरी मंज़िल थी एक रोगी आश्रम की, जहाँ सन्यासी ने चंद्रसेन से कहा—“यहाँ दिनभर रोगियों की सेवा करनी है, न बात करनी है, न उपदेश देना है। बस बिना कुछ कहे हाथ से सेवा करनी है।”
यह कार्य कठिन था। मल-मूत्र साफ करना, पीड़ा में कराहते रोगियों को सहारा देना, बिना नाम, बिना सम्मान के। पर चंद्रसेन ने बिना प्रतिरोध के सेवा की।
एक रात एक रोगी ने उसका हाथ पकड़ कर कहा—“भगवान तुम्हारे भीतर है। तुम्हारे स्पर्श से मुझे शांति मिली है।”
उस क्षण चंद्रसेन की आँखों से आँसू बह निकले। उसे लगा जैसे किसी ने भीतर का एक बंद द्वार खोल दिया हो।
सन्यासी ने कहा, “अब तू तैयार है ज्ञान को भीतर अनुभव करने के लिए। अब तू शास्त्रों को पढ़ेगा नहीं, बल्कि जीएगा।”
तीसरी मंज़िल थी—मौन साधना की। एक एकांत कुटिया में उसे तीन सप्ताह बिताने थे—न बोलना, न देखना, न पढ़ना। केवल ध्यान।
प्रारंभ में विचारों का तूफ़ान उठा—पुरानी स्मृतियाँ, अपमान, तर्क, भय। पर धीरे-धीरे उसका चित्त शांत होने लगा। उसे लगा जैसे भीतर कोई दर्पण है, जो अब पहली बार साफ हो रहा है।
चौथे सप्ताह के अंत में जब वह बाहर निकला, तो उसका चेहरा शांत, कोमल और निर्मल था। वह अब वही चंद्रसेन था, पर अब उसका ‘मैं’ कहीं खो चुका था।
सन्यासी ने उसे गले लगाकर कहा, “अब तू ज्ञानी है, क्योंकि अब तू अनुभव से जानता है।”
चंद्रसेन काशी नहीं गया। वह लौटकर पाटलिपुर आया, परंतु अब वह दरबारों में नहीं जाता था। वह नगर के बाहर एक छोटी सी झोपड़ी में रहने लगा, जहाँ वह बिना किसी उपदेश के, केवल कर्म से लोगों को जीवन का अर्थ सिखाता।
लोग अब उसे ‘कर्मज्ञ स्वामी’ के नाम से जानने लगे। वह किसी को उपदेश नहीं देता था, पर उसकी मौन उपस्थिति ही लोगों के भीतर क्रांति ला देती थी।
एक दिन एक नवयुवक उसकी झोपड़ी में आया और बोला, “मुझे आत्मज्ञान चाहिए। मैं दर्शनशास्त्र पढ़ चुका हूँ, पर जीवन समझ नहीं पाया।”
स्वामी मुस्कराए, और बोले, “ज्ञान जब सेवा बन जाए, तब वह परम सत्य की ओर ले जाता है। चलो, पहले एक रोगी को स्नान कराते हैं…”
समाप्त