कांच की परछाईं
संक्षिप्त परिचय:
दिल्ली के पॉश इलाके वसंत विहार में एक प्रतिष्ठित गैलरी ‘मायरा आर्ट स्टूडियो’ की मालकिन की संदिग्ध मौत के बाद पूरे शहर में सनसनी फैल जाती है। प्रारंभिक जांच इसे आत्महत्या बताती है, लेकिन जब एक चित्र की परछाईं सच को तोड़ने लगती है, तब डिटेक्टिव शिवा और सोनिया इस रहस्य की परतें खोलने उतरते हैं। यह कहानी कला, लालच और बदले की उस दुनिया में ले जाती है जहाँ भावनाएँ भी व्यवसाय बन चुकी हैं और परछाइयाँ भी झूठ नहीं बोलतीं।
कहानी
दिल्ली की एक शरद रात थी। सर्द हवाओं ने पूरे शहर को अपनी आगोश में ले रखा था। वसंत विहार की एक गली में स्थित ‘मायरा आर्ट स्टूडियो’ से अचानक पुलिस को एक फोन कॉल मिला।
स्टूडियो की मालकिन वर्णिका राय की लाश स्टूडियो के मुख्य कक्ष में पड़ी मिली थी। उसके सामने दीवार पर टंगी एक विशाल पेंटिंग थी — एक टूटे शीशे का प्रतिबिंब और उसमें एक महिला की आकृति। शुरुआती रिपोर्ट में कहा गया कि वर्णिका ने नींद की गोलियाँ खाकर आत्महत्या की। लेकिन केस को जाँच के लिए विशेष विभाग को सौंपा गया, और डिटेक्टिव शिवा तथा सोनिया को यह जिम्मेदारी दी गई।
जब शिवा और सोनिया स्टूडियो पहुँचे, तो सन्नाटा गहराया हुआ था। दीवार पर लगे चित्र अजीब ढंग से भयावह प्रतीत हो रहे थे। सोनिया ने धीरे से पूछा, “क्या लगता है सर, आत्महत्या है?”
शिवा ने दीवार की ओर इशारा किया, “ये पेंटिंग कुछ कह रही है… इसका रिफ्लेक्शन देखो, इस पर छाया किसी और की है।”
पहला सुराग — वह चित्र
चित्र में जो आकृति दिख रही थी, वह वर्णिका से मिलती-जुलती थी, लेकिन साथ में एक परछाईं और थी — एक पुरुष आकृति की। जांच में सामने आया कि यह चित्र तीन दिन पहले ही स्टूडियो में लगाया गया था और इसका कलाकार कोई गुमनाम नाम ‘S.K.’ था।
शिवा ने स्टूडियो की रसीदों और बिक्री रिकॉर्ड को खंगाला, लेकिन उस पेंटिंग के पैसे नकद में चुकाए गए थे — और नाम फर्जी था।
सोनिया बोली, “यह चित्र किसी आम कलाकार का नहीं लग रहा, किसी ने जानबूझकर इसे यहाँ रखा है।”
शिवा बोले, “या तो यह हत्या की योजना थी… या हत्या का गवाह यही चित्र है।”
दूसरा सुराग — वसीयतनामा और कलेक्शन
जांच में पता चला कि वर्णिका राय ने हाल ही में अपनी संपत्ति का वसीयतनामा बदला था, और अपने स्टूडियो के अधिकार एक नए साझेदार अनिरुद्ध मेहता के नाम कर दिए थे — एक निवेशक जो पिछले साल ही लंदन से लौटा था।
जब अनिरुद्ध से पूछताछ की गई, तो उसने कहा, “मैं और वर्णिका केवल व्यवसायी थे। उसने मुझे साझेदार बनाया क्योंकि मैं यूरोपीय कलाकारों की नीलामी में निवेश लाया था। वह मानसिक रूप से तनाव में थी… मुझे लगता है उसने खुद को समाप्त कर लिया।”
शिवा ने उसके चेहरे को देखा — वहाँ शोक था, पर सच्चाई की गंध नहीं।
तीसरा सुराग — पुरानी डायरी
स्टूडियो की ऊपरी मंज़िल की अलमारी में एक पुरानी डायरी मिली। यह वर्णिका की थी। उसमें उसने एक नाम बार-बार लिखा था — “नील”।
“नील… मेरी आत्मा का चित्रकार। वो ही था जिसने मुझे रंगों से जीना सिखाया और फिर छीन लिया सब।”
शिवा ने दिल्ली विश्वविद्यालय के कला विभाग से संपर्क किया और पता चला कि वर्णिका और नील कभी साथ में पढ़ते थे, लेकिन एक प्रतियोगिता में नील के चित्र को चयनित कर लिया गया, जबकि वह चित्र असल में वर्णिका का था।
इसके बाद नील गायब हो गया, लेकिन कुछ वर्षों से वह एक गुमनाम नाम S.K. से अंतर्राष्ट्रीय नीलामी में चित्र बेच रहा था।
चौथा सुराग — CCTV और परछाईं
स्टूडियो की पिछली गली में लगे एक निजी मकान के कैमरे में रिकॉर्डिंग मिली जिसमें एक आदमी, चेहरा ढका हुआ, स्टूडियो में देर रात दाखिल होता है और कुछ घंटों बाद बाहर निकलता है। उसके पास एक बड़ी पेंटिंग का फ्रेम था।
शिवा ने विश्लेषण किया, और यह निष्कर्ष निकला कि असली पेंटिंग को निकालकर नकली या एक विशेष संदेश वाली पेंटिंग रखी गई।
सोनिया ने कहा, “वह परछाईं नील की हो सकती है, जो सालों से वर्णिका से बदला लेना चाहता था — अपने चित्र चोरी के आरोप से, अपने करियर के पतन से।”
पांचवां सुराग — नील का वर्तमान ठिकाना
अब शिवा ने इंटरपोल के संपर्कों से नील उर्फ़ समीर कश्यप (S.K.) की लोकेशन ट्रैक की। वह नोएडा के एक फार्महाउस में रह रहा था, कला और संग्रहालय कन्सल्टेंट बनकर।
वहाँ छापा मारा गया और समीर पकड़ा गया। पहले वह इंकार करता रहा, लेकिन फिर चित्र की पेंटिंग और पेंट्स की फॉरेंसिक जांच में उसी के स्टूडियो की सामग्री मिली।
वर्णिका की मौत से पहले ही, उसने उसे ब्लैकमेल किया था। उसने कहा, “वो सब कुछ छीनकर भी मुझे बेईमान कहती रही… मैंने सोचा, क्यों न उसकी ज़िंदगी की आखिरी छवि भी मैं ही बनाऊँ?”
निष्कर्ष
समीर को हत्या के आरोप में उम्रकैद मिली।
शिवा ने चित्र की ओर देखकर कहा, “कभी-कभी साक्षी अदालत में नहीं होते — वे फ्रेम के भीतर होते हैं, रंगों के पीछे छिपे… परछाइयों में।”
सोनिया मुस्कराई — “और हर बार परछाईं भी कहीं न कहीं… सच बोलती है।”
समाप्त