🔱 कालभैरव की वापसी
कालभैरव की वापसी – एक रहस्यमयी नगरी और प्राचीन समय-रेखा को छूती एक कल्पनातीत यात्रा की कथा।
अघोरगढ़ एक प्राचीन नगरी थी, जहाँ समय ने जैसे अपने पैर पीछे खींच लिए थे। इस नगरी के मध्य स्थित था एक विशाल शिलामंडप, जिसे स्थानीय लोग “भैरवस्थान” कहते थे। यह स्थान कभी देवताओं और असुरों के बीच हुए युद्ध का साक्षी बना था, जहाँ से एक अद्भुत शक्ति का उद्भव हुआ था — काल-यंत्र।
यह यंत्र समय को रोकने, मोड़ने और मिटाने की शक्ति रखता था। इसे संभालने के लिए देवी महाकालिका ने एक योद्धा को उत्पन्न किया था — कालभैरव, जो स्वयं तंत्र और काल का अधिपति था।
परन्तु जब युद्ध समाप्त हुआ, कालभैरव ने शक्ति को वापस सौंपने से मना कर दिया। उसने समय को अपनी मुट्ठी में बाँध लिया और स्वयं को देवताओं के विरोध में खड़ा कर दिया। वह अमर था, परंतु उसकी आत्मा धीरे-धीरे विकृत हो रही थी। तब ब्रह्मांड के पंचतत्वों ने उसे बाँधने का उपाय खोजा — उसे उसी समय-यंत्र में बंद कर दिया गया जिसे वह चलाता था, और वह यंत्र भैरवस्थान की धरती में गाड़ दिया गया।
वर्षों बीते, अघोरगढ़ एक तीर्थ स्थल बन गया, पर यंत्र का रहस्य केवल कुछ पुरातत्वविदों और तांत्रिकों को ज्ञात रहा। उन्हीं में से एक था शैलेन्द्र दत्त त्रिवेदी, एक जिज्ञासु शोधकर्ता, जो वर्षों से इस कथा की प्रामाणिकता पर शोध कर रहा था।
शैलेन्द्र को बचपन से ही अघोरगढ़ खींचता था। उसका दादा, एक रहस्यमयी साधक, हमेशा कहा करते थे, “जब रात के तीसरे पहर में आकाश काले रंग की सीढ़ियाँ उतारेगा, तब कालभैरव जागेगा।”
उसने वर्षों की खोज के बाद एक पत्थर की शिला पाई जिस पर संस्कृत में उकेरा गया था:
“कालं यः बन्धयति, स एव मुक्तिकर्ता।”
(जो काल को बाँधता है, वही मुक्ति का द्वार खोल सकता है।)
एक अमावस्या की रात, जब आकाश बादलों से ढँका था और दिशाएं मौन थीं, शैलेन्द्र ने उस शिला को हटाया। उसके नीचे एक सीढ़ी थी — नीचे जाती हुई, बिना किसी प्रकाश के। भयभीत नहीं था वह, वर्षों का पागलपन अब उसके पाँवों में था।
नीचे एक कक्ष था – गोलाकार, शांत, और मध्य में बैठा था – कालभैरव।
उसकी आँखें बंद थीं, पर जैसे वह सब कुछ देख रहा हो। उसके चारों ओर एक द्वादश-कोणीय तंत्र बना था, हर कोण पर एक मृत साधक की अस्थियाँ थीं।
शैलेन्द्र की सांसें थम गईं। उसने धीरे से प्रणाम किया।
कालभैरव की आँखें खुलीं।
“समय की नदी सूख चुकी है, और तू उस सूखे पथ का यात्री है। क्या तुझे मालूम है कि तुझे क्या मांगना है?”
शैलेन्द्र कांपते हुए बोला, “मैं सत्य जानना चाहता हूँ।”
“सत्य, एक भोग है — उसे जो सह सके वही पा सकता है,” कालभैरव की वाणी गूँजी।
तभी पूरा कक्ष घूमने लगा। शैलेन्द्र की चेतना एक तूफान में खिंच गई। वह अपने ही पूर्वजों की पीड़ाओं, अपनी माँ की मृत्यु, अपने अधूरे प्रेम, और अपने जन्म से भी पहले के एक यज्ञ का दृश्य देखने लगा।
उसे समझ आया — वह केवल शोधकर्ता नहीं है, वह युगों पुरानी एक तांत्रिक परंपरा की अंतिम कड़ी है, जिसे फिर से जागृत करना होगा। वह वही रक्त था जिसने कालभैरव को कभी मानव रूप में धारण किया था।
अब वह निर्णय के द्वार पर खड़ा था।
“तू चाहे तो यह काल-यंत्र ले सकता है,” कालभैरव बोला, “और तू ही भविष्य को नए शिलालेख दे सकता है।”
पर शैलेन्द्र मुस्कुराया।
“जो समय को समझता है, वह उसे छूने की भूल नहीं करता,” उसने कहा।
उसने यंत्र की ओर हाथ नहीं बढ़ाया।
कालभैरव मुस्कुराया — युगों बाद — और फिर उसकी देह भस्म में विलीन हो गई।
वह तिलिस्मी कक्ष टूटने लगा। पर उसके भीतर से एक नयी ऊर्जा बाहर निकली — शैलेन्द्र के भीतर समा गई।
वह लौट आया।
अब अघोरगढ़ में फिर से नयी इमारतें बन रही थीं।
पर हर रात्रि, जब तीसरे पहर की छाया उतरती, लोग एक साये को भैरवस्थान के चारों ओर घूमते देखते।
कहते हैं, कालभैरव अब नहीं लौटेगा —
क्योंकि अब वह स्वयं मनुष्य के भीतर है।
समाप्त।