खामोशी की गवाही
संक्षिप्त भूमिका
दिल्ली के पॉश इलाके ‘साकेत एनक्लेव’ की एक आलीशान कोठी में, एक शांत सुबह, प्रसिद्ध मनोचिकित्सक डॉ. आरव मेहरा का शव उसके क्लिनिक के भीतर मिला। दरवाज़ा अंदर से बंद था, खिड़की पर मोटी सलाखें थीं, और कमरे में कोई जबरदस्ती घुसपैठ के संकेत नहीं थे। मेज़ पर कॉफी का अधूरा कप, एक लिफाफा — जिसमें किसी का नाम नहीं — और कमरे में रखी घड़ी की सुइयां सुबह 6:17 पर अटक गई थीं। पुलिस इसे आत्महत्या मानती है। लेकिन जब केस की तह तक जाने का ज़िम्मा डीसीपी संध्या गुप्ता को दिया जाता है, तो शुरू होता है एक ऐसा रहस्य, जहाँ हर रोगी, हर मित्र, और हर रिश्ता संदिग्ध बन जाता है।
पहला दृश्य — दरवाज़े के पीछे का सच
डॉ. आरव मेहरा, 44 वर्षीय, अपने क्षेत्र में अत्यंत सम्मानित थे।
उनका क्लिनिक उनके घर के ही पिछले हिस्से में था, और वे हर सुबह 6 बजे से 9 बजे तक केवल पुराने मरीज़ों को देखते थे।
उनकी नौकरानी सरिता, जो पिछले 12 वर्षों से उनके यहाँ काम कर रही थी, रोज़ की तरह 7:15 पर आई।
जब उसने दरवाज़ा खटखटाया और कोई जवाब नहीं मिला, तो उसे आश्चर्य हुआ।
डॉ. मेहरा कभी देर नहीं करते थे।
उसने पीछे के दरवाज़े से जाकर देखा — खिड़की की जाली के पीछे अंधेरा था।
क्लिनिक का दरवाज़ा अंदर से बंद था।
जब सरिता ने घर के मुख्य भाग से डॉ. मेहरा की पत्नी अनुष्का मेहरा को बुलाया, तो दोनों ने मिलकर ताला तोड़वाया।
भीतर, कुर्सी पर बैठे आरव का शव मिला — सिर कुर्सी के पीछे टिक गया था, आँखें खुली हुईं, लेकिन निर्विकार।
पास ही मेज़ पर कॉफी का कप आधा भरा पड़ा था — और एक खुला पत्र, जिसमें कुछ भी साफ़ नहीं लिखा था:
“जिस दर्द को मैंने बाँटा, वही लौटकर मुझ पर आ गया…”
दूसरा दृश्य — अनकहे शब्द और पुराने रोगी
जब डीसीपी संध्या गुप्ता घटनास्थल पर पहुँचीं, तो उन्होंने सबसे पहले कमरे का निरीक्षण किया।
कमरा पूरी तरह व्यवस्थित था।
मरीज़ों की फाइलें, किताबें, दीवार पर घड़ी — सब कुछ अपनी जगह पर।
उन्होंने पत्र को ध्यान से पढ़ा। वह अस्पष्ट था — उसमें आत्महत्या का स्पष्ट कोई उल्लेख नहीं था।
अनुष्का मेहरा ने कहा:
“वो पिछले कुछ महीनों से अजीब व्यवहार कर रहे थे। चुप रहते, रातों को नींद नहीं आती थी। एक-दो बार मैंने नोटिस किया कि वो अपने पुराने रोगियों की फाइलें देर रात पढ़ रहे थे।”
संध्या ने सबसे पहले क्लिनिक के पिछले छह महीनों के मरीज़ों की सूची मंगवाई।
उन्हें तीन नाम बार-बार एक ही दिन पर दिखे —
अभय गुप्ता, रीमा शेख, और करण चौबे।
तीनों अब भी इलाजरत नहीं थे — लेकिन हर एक से आखिरी बार मुलाक़ात घटना के तीन हफ्ते पहले हुई थी।
तीसरा दृश्य — अभय गुप्ता और टूटी चुप्पी
अभय गुप्ता, 28 वर्षीय चार्टर्ड अकाउंटेंट, डॉ. मेहरा के पास “अनवांटेड थॉट्स” और डिप्रेशन के इलाज के लिए गया था।
संध्या ने जब उससे पूछताछ की, तो वह घबरा गया।
“हाँ, मैं गया था… लेकिन हमने इलाज बंद कर दिया।
मैं अब ठीक हूँ।”
जब संध्या ने पूछा कि क्या कुछ ऐसा हुआ था जिससे उसे तकलीफ़ हुई हो,
तो उसने चुपचाप एक फाइल से एक पेज निकालकर आगे बढ़ाया।
वह एक पुराने सेशन की रिकॉर्डिंग का ट्रांस्क्रिप्ट था।
उसमें लिखा था:
“मुझे कभी-कभी लगता है, मैं अपने पिता को मार दूँ।
उन्होंने मेरी माँ को तिल-तिल मरने दिया।”
संध्या चौंक गईं। यह बहुत संवेदनशील जानकारी थी।
क्या यह मरीज़ ने स्वेच्छा से दी थी, या रिकॉर्डिंग चोरी की गई थी?
चौथा दृश्य — रीमा शेख और रहस्य की पहली दरार
रीमा शेख, 32 वर्षीय लेखिका, सामाजिक मुद्दों पर कॉलम लिखती थीं।
जब उनसे पूछा गया कि वे अब इलाज क्यों नहीं ले रहीं,
तो उन्होंने कहा:
“मैंने खुद छोड़ा। एक दिन डॉ. मेहरा ने मुझसे कहा — ‘तुम जो लिखती हो, वो तुम्हारे ज़ख्मों की सफ़ाई नहीं है, उन्हें फैलाने की आदत है।’
मुझे लगा, वो अब मुझे समझ नहीं रहे।”
लेकिन जब संध्या ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने कभी कोई पत्र भेजा था या कोई धमकी दी थी,
तो उन्होंने गुस्से में कहा:
“मैं लेखक हूँ, मानसिक अपराधी नहीं।”
पाँचवां दृश्य — कैमरे की आँख
डॉ. मेहरा के क्लिनिक के बाहर एक सुरक्षा कैमरा लगा था,
जो पिछले 10 दिनों की फुटेज रिकॉर्ड करता था।
घटना वाली सुबह, 5:43 AM पर एक व्यक्ति आता है —
चेहरा ढका हुआ, काले रंग की हुडी और मास्क।
वह क्लिनिक के पिछले गेट से प्रवेश करता है —
जिसकी चाबी केवल परिवार और क्लिनिक स्टाफ़ के पास थी।
करीब 28 मिनट तक कैमरे में कोई हलचल नहीं।
फिर वही व्यक्ति 6:11 पर बाहर निकलता है।
उसके हाथ में कुछ नहीं था।
लेकिन घड़ी की सुइयाँ 6:17 पर रुकी थीं।
इसका मतलब था — मृत्यु के कुछ ही मिनटों में वह व्यक्ति बाहर चला गया था।
अंतिम दृश्य — विश्वासघात और गहरी गवाही
जब पुलिस ने इस फुटेज की तस्वीरें अनुष्का को दिखाई,
तो वह हड़बड़ा गई।
“ये… ये शक्ल… शक्ल नहीं दिख रही… लेकिन शरीर की बनावट… शायद करण…”
करण चौबे — वही तीसरा मरीज़ — 35 वर्षीय, एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापक।
पुलिस ने जब करण को हिरासत में लिया, तो उसने कहा:
“हाँ, मैं वहाँ गया था। लेकिन मैं मारने नहीं गया था।
मैं उन्हें चेतावनी देना चाहता था — उन्होंने मेरी सीक्रेट फाइल किसी और को दिखा दी थी।
मेरे स्कूल में किसी ने मेरी मानसिक बीमारी का मज़ाक उड़ाया — जो जानकारी सिर्फ़ उन्हें थी।”
पूछताछ में करण ने कहा —
डॉ. मेहरा के पास सेशन रिकॉर्डिंग्स थीं — और शायद कोई उन्हें ब्लैकमेल कर रहा था।
यह संभव था कि मेहरा खुद मानसिक दबाव में आ गए हों।
निष्कर्ष — जब डॉक्टर ख़ुद बीमार हो जाए
पुलिस को डॉ. मेहरा के लैपटॉप से एक फ़ोल्डर मिला —
“UNSHARED CONFESSIONS”
जिसमें उनके सभी मरीज़ों की गहरी व्यक्तिगत जानकारियाँ थीं।
शायद उन्हें डर था — कोई इन्हें सामने लाएगा।
शायद उन्हें डर था — वे किसी को चोट पहुँचा चुके हैं।
उनका आत्मघात एक अपराध नहीं था —
लेकिन अपराधों के परिणाम का एक प्रतिबिंब था।
डीसीपी संध्या गुप्ता ने अंतिम रिपोर्ट में लिखा:
“यह हत्या नहीं थी।
लेकिन यह आत्महत्या भी एक मात्रिक निर्णय नहीं था।
यह वो क्षण था जब एक चिकित्सक अपने ही गढ़े मानसिक जाल में उलझ गया।
और उन असंख्य सच्चाइयों के बोझ तले दब गया — जिन्हें वह केवल सुनता था, पर बाँट नहीं सकता था।”
समाप्त