खिड़की जो कभी बंद नहीं होती
संक्षेप:
यह कहानी एक साधारण सी दिखने वाली इमारत के उस फ्लैट की है, जिसमें एक खिड़की हमेशा खुली रहती है — चाहे बारिश हो या तूफ़ान, गर्मी हो या ठंड। कोई उसमें रहता नहीं, पर कई लोगों ने वहाँ परछाइयाँ देखी हैं। जब एक अकेली रहने वाली लेखिका ‘विभा’ उस फ्लैट में रहने आती है, तो वह उस खिड़की से जुड़ा ऐसा रहस्य खोलती है जो समय, मृत्यु और आत्मा की सीमाओं को तोड़ देता है। यह कहानी डर की उन बारीक लहरों को छूती है जो अक्सर हमारी सबसे गहरी चुप्पियों में छिपी होती हैं।
कहानी:
दिल्ली के बाहरी इलाके में बनी थी एक पुरानी चार मंज़िला इमारत — नाम था “शांतिसदन”। लेकिन इमारत की चौथी मंज़िल का एक फ्लैट कभी शांत नहीं था।
फ्लैट नंबर 407, जिसकी एक खिड़की हमेशा खुली रहती थी। लोग कहते थे —
“उस खिड़की को बंद करने वाला, खुद भी कभी बंद हो जाता है…”
कई वर्षों से वह फ्लैट खाली था, किरायेदार बदलते गए, पर सब जल्दी ही या तो भाग निकले, या मानसिक संतुलन खो बैठे।
तभी एक दिन विभा, एक अविवाहित लेखिका, जो शहर की हलचल से दूर एकांत चाहती थी, वहाँ रहने आ पहुँची। वह अपने उपन्यास के लिए एक शांत जगह खोज रही थी, जहाँ वह बिना किसी ध्यान भटकाव के लिख सके। जब उसने मकान मालिक से खिड़की के बारे में पूछा, तो बस एक ठंडी मुस्कान मिली —
“वो खिड़की है, बंद करना चाहो तो कर लेना… लेकिन सलाह है, मत छूना।”
विभा हँस दी। उसे डर नहीं लगता था। पर वह जानती नहीं थी कि कुछ डर ऐसे होते हैं जो शब्दों से नहीं, अनुभवों से सामने आते हैं।
पहली रात – धीमी दस्तक
विभा ने रसोई में अपना सामान जमाया, लैपटॉप खोला और खिड़की के सामने बैठ गई। बाहर अंधेरा था, पेड़ हिल रहे थे। लेकिन खिड़की से आती हवा में कुछ अलग था — वह बर्फ़ जैसी ठंडी थी, और उसमें एक धीमी सी सरसराहट थी… जैसे कोई फुसफुसा रहा हो।
रात के दो बजे, खिड़की के पास से धीमी दस्तक सुनाई दी — ठक… ठक… ठक…
विभा चौंकी, पर बाहर कोई नहीं था। नीचे का पार्क पूरी तरह सूना था। उसने सोचा शायद कोई बिल्ली होगी।
दूसरी रात – साया जो देख रहा था
उसने उस रात लिखा:
“मैं उस कहानी को लिख रही हूँ जो खिड़की से झाँकती है।”
वह खिड़की के सामने बैठकर लिख रही थी कि अचानक उसे लगा कोई उसके पीछे खड़ा है। उसने मुड़कर देखा — कोई नहीं था।
लेकिन जब वह दोबारा लैपटॉप की स्क्रीन पर देखती है — स्क्रीन में पीछे किसी का धुंधला प्रतिबिंब था। उसने झटपट मुड़कर देखा — फिर कुछ नहीं।
उसने खिड़की बंद करनी चाही, पर वो जाम हो चुकी थी। जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने उसे पकड़ रखा हो।
तीसरी रात – आवाज़ जो उसकी नहीं थी
उस दिन दिनभर बिजली गई रही। रात को उसने मोमबत्तियाँ जलाकर लिखा। उसी समय एक पड़ोसी वृद्ध महिला, श्रीमती वर्मा, उसके लिए गर्म दूध लेकर आईं।
विभा ने दरवाज़ा खोला, और जैसे ही वर्मा जी ने भीतर कदम रखा, उनका चेहरा पीला पड़ गया।
“ये… ये खिड़की… ये फिर खुल गई?”
विभा ने कहा — “जी हाँ, बंद ही नहीं होती… आप बैठिए।”
वर्मा जी काँपते हुए बोलीं:
“यह वही कमरा है… जहाँ 15 साल पहले रचना नाम की लड़की रहती थी। रात के दो बजे उसने भी यही कहा था — ‘खिड़की बंद ही नहीं होती।’ अगली सुबह वह अपनी ही कहानी की आखिरी लाइन दीवार पर लिखकर लटक गई थी।”
विभा सन्न रह गई।
उस रात, ठीक दो बजे, विभा ने अपने कमरे में खुद अपनी आवाज़ सुनी —
“मैं रचना हूँ… तुम मेरी कहानी पूरी करने आई हो… अब ये खिड़की तुम्हारी है…”
अगली सुबह – काले पन्ने
सुबह जब विभा जागी, तो देखा उसका लैपटॉप ऑन था, और स्क्रीन पर उसकी टाइप की हुई कहानी खुली थी — लेकिन उसे याद ही नहीं था कि उसने ऐसा कुछ लिखा हो।
कहानी में लिखा था:
“रचना कभी मरी नहीं… वो इस खिड़की से हर आने वाले को देखती है, और जब कोई उसकी कहानी पूरी लिख देता है… तब वह नया चेहरा लेती है…”
नीचे लिखा था — “अब तुम रचना हो…”
विभा ने कंपकपाते हाथों से लैपटॉप बंद किया, और उसी पल, खिड़की से एक औरत की परछाई भीतर घुसी।
अब कमरे की सारी चीज़ें हिल रही थीं, दीवार पर खून से एक वाक्य उभर आया —
“कहानी अधूरी थी, तुमने पूरी कर दी। अब तुम्हारी पारी है देखने की…”
अब – कौन देख रहा है?
आज वह फ्लैट फिर से खाली है। खिड़की अब भी खुली है।
नए किरायेदारों को विभा की किताब की अधूरी पांडुलिपि मिलती है —
शीर्षक: “खिड़की जो कभी बंद नहीं होती”
आख़िरी पन्ने पर लिखा है:
“अगर तुम यह पढ़ रहे हो… तो शायद खिड़की तुम्हें भी देख रही है…”
अंत।