खुशियों की कीमत
संक्षिप्त सारांश:
यह कहानी है एक आधुनिक शहरी महिला — संजना अवस्थी — की, जो अपनी सफल ज़िंदगी में सब कुछ होते हुए भी भीतर से अधूरी महसूस करती है। ऊँची नौकरी, बड़ा घर, और हर सुविधा होने के बावजूद जब एक घटना उसे अपनी पुरानी ज़िंदगी की ओर ले जाती है, तब वह समझती है कि असली खुशी महंगे उपहारों, प्रमोशन या ब्रांडेड चीज़ों में नहीं, बल्कि उन छोटी-छोटी बातों में है जो हमें भीतर से संजोती हैं। यह कहानी हमें सिखाती है कि ज़िंदगी को अगर सही रूप में जीना है, तो हमें रुककर उसके अर्थ को समझना होगा।
कहानी:
संजना अवस्थी, 35 वर्ष की एक कॉरपोरेट अधिकारी, गुरुग्राम की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में सीनियर स्ट्रैटेजी हेड के पद पर थी। उसका घर किसी इंटीरियर डिज़ाइन मैगज़ीन का फ्रंट पेज लगता था, कपड़े हमेशा नए ट्रेंड के अनुसार होते, और कार हमेशा चमचमाती रहती थी।
वह हर दिन सुबह 6 बजे उठती, योगा, ग्रीन जूस, और फिर ऑफिस। मीटिंग दर मीटिंग, ईमेल दर ईमेल — एक लंबी रेस का हिस्सा बनी हुई थी। लोग उसे देखकर कहते — “कितनी सफल है ना!” पर कोई नहीं जानता था कि वह रात में नींद की गोली लेकर सोती थी, और हफ्तों तक किसी अपने से बात नहीं करती थी।
संजना का बचपन लखनऊ की एक पुरानी कॉलोनी में बीता था, जहाँ वह अपने माता-पिता और छोटे भाई के साथ रहती थी। माँ अक्सर रात को चारपाई पर बैठकर कहानी सुनाती थी, पापा स्कूटर पर बैठाकर स्कूल छोड़ते थे, और पड़ोस की गली में पापड़ सुखाते हुए वो अकसर सहेलियों से हँसी-मज़ाक किया करती थी।
पर जैसे-जैसे वह आगे बढ़ी, वह सब पीछे छूटता गया — या यूँ कहें, उसने खुद उसे पीछे छोड़ दिया। माँ-पापा अब रिटायर हो चुके थे, भाई विदेश में था, और कॉलोनी की गली अब उसे संकरी लगती थी।
एक दिन अचानक खबर आई कि माँ अस्पताल में भर्ती हैं। कुछ बड़ा नहीं था — शुगर गिर गई थी — पर पिता जी घबरा गए थे। संजना ने फ़्लाइट ली और लखनऊ पहुँची।
अस्पताल पहुँची तो देखा, माँ तो सामान्य थीं पर पापा की आँखों में वो डर था जिसे उसने कभी नहीं देखा था। उन्होंने बस एक ही बात कही — “जब तुम सामने आई, तब लगा कि सब ठीक हो जाएगा।”
उन शब्दों ने जैसे कोई सूई सीने में चुभो दी।
तीन दिन वह लखनऊ रही। अस्पताल से आने-जाने के बीच वो फिर से उसी पुरानी कॉलोनी से गुज़री। सामने वही अमरूद वाला पेड़, गली में वही चाय वाला अंकल, और वही दो कमरे वाला घर।
रात को माँ ने जब कहा — “तेरे बिना घर बहुत चुप रहता है,” तो वह अपनी मुस्कान रोक नहीं पाई। उसने पहली बार खुद को दर्पण में देखा और महसूस किया — वो तो मुस्कुराना ही भूल चुकी थी।
जब वो दिल्ली लौटी, तो कुछ बदल गया था। ऑफिस पहुँची, मीटिंग्स हुईं, पर अब उनमें वह चमक नहीं रही। अगली ही सुबह उसने अपने लिए एक दिन की छुट्टी ली — पहली बार बिना किसी बहाने के।
वह मेट्रो में बैठकर पुरानी दिल्ली गई, गलियों में घूमी, सड़क किनारे छोले खाए, और एक अनजान बुज़ुर्ग महिला से एक घंटे तक बातें कीं।
धीरे-धीरे वह छोटी-छोटी चीज़ों को अपने जीवन में शामिल करने लगी। हफ्ते में एक दिन बिना मोबाइल के रहती, माँ से हर रात बात करती, और पड़ोस की विधवा बुआ जी को हर रविवार खाना खिलाने जाती।
ऑफिस में सब हैरान थे — इतनी तेज़-तर्रार महिला इतनी ‘धीमी’ कैसे हो गई?
पर अब वह खुश थी — सच में खुश।
एक दिन ऑफिस की एक नई इंटर्न ने उससे पूछा —
“मैम, आप इतनी बड़ी पोस्ट पर हैं, पर फिर भी इतना विनम्र कैसे हैं?”
संजना मुस्कराई और बोली —
“क्योंकि अब मुझे पता है कि खुशियों की कीमत क्या होती है — और वह मीटिंग्स में नहीं, रिश्तों में छिपी होती है।”
अब संजना फिर से वही लड़की बन चुकी थी — जिसने कभी अपनी माँ के लिए गुलाब के फूल चुराए थे, और जिसने नंगे पाँव बारिश में नाचा था।
यह कहानी हमें यह सिखाती है कि जीवन में सफलता ज़रूरी है, पर उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरी है — जीवन को सही रूप में जीना। असली खुशी उन पलों में होती है जहाँ कोई तुम्हारा हाल पूछे, तुम्हारे साथ बैठे, और तुम्हारे बिना किसी स्वार्थ के मुस्कुराए। ज़िंदगी की दौड़ में अगर हम मुस्कुराना भूल जाएँ, तो उस जीत का कोई मोल नहीं।
समाप्त