ख्वाबों वाली छत
संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है ओजस्वी राठौड़ की — एक 13 वर्षीय लड़का जो राजस्थान के भीलवाड़ा शहर में अपने माता-पिता और दादी के साथ रहता है। उसका मन किताबों से नहीं, तारों, आसमान, और घर की छत पर बैठकर कुछ अनकही बातें सोचने में लगता है। पढ़ाई में औसत, खेलकूद में कमज़ोर, और दोस्तों में थोड़ा अलग — ओजस्वी उन किशोरों में से है जिनके भीतर बहुत कुछ चलता है पर बाहर कुछ नज़र नहीं आता। पर एक गर्मी की छुट्टियों वाली दोपहर, जब वह छत पर बैठा होता है, तब उसके जीवन में कुछ ऐसा घटता है जो उसकी सोच को, उसकी हिम्मत को और उसके आत्मविश्वास को बदल देता है।
‘ख्वाबों वाली छत’ एक सकारात्मक, प्रेरणात्मक और पूरी तरह किशोरों के मानसिक, भावनात्मक और रचनात्मक विकास को छूने वाली कहानी है — जो यह बताती है कि कभी-कभी ज़िंदगी की सबसे अच्छी कक्षा स्कूल की किताबों में नहीं, बल्कि घर की छत पर लगती है।
पहला भाग – खाली किताब का हीरो
ओजस्वी की दुनिया बहुत शांत थी।
वह 8वीं कक्षा में था, और कक्षा में सबसे चुप रहने वाला छात्र माना जाता था।
उसकी कॉपी अक्सर अधूरी रहती, पर उसके पिछले पन्नों पर पेड़, पक्षी, पुल, किले, और न जाने कितने अजूबे चित्र बने होते।
शिक्षक कहते —
“ओजस्वी, पढ़ाई में ध्यान दो बेटा। ये चित्र तुम्हें परीक्षा में पास नहीं करवाएँगे।”
माँ कहतीं —
“इतना चुप क्यों रहता है? स्कूल में दोस्त नहीं बने अभी तक?”
पिता एक प्राइवेट बस ड्राइवर थे, ज़्यादातर समय घर से बाहर रहते थे।
दादी ही उसका मन पढ़ती थीं —
“इसका मन उड़ता है… यह आसमान से बातें करता है।”
ओजस्वी की सबसे अच्छी दोस्त थी — उनकी घर की छत।
हर शाम वह वहाँ जाकर बैठता — कभी सिर्फ आकाश को देखता, कभी पड़ोस की छतों पर बच्चों को खेलते हुए निहारता, और कभी गीली मिट्टी में अपने बनाए सपनों को महसूस करता।
दूसरा भाग – गर्मी की छुट्टियाँ और एक नई खोज
गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हो गईं। सारे बच्चे या तो खेलों में व्यस्त थे या फोन और वीडियो गेम में।
पर ओजस्वी की दुनिया अलग थी।
हर दोपहर, जब सभी सो जाते, वह छत पर एक पुरानी चटाई बिछाकर बैठता।
साथ में एक छोटी डायरी, एक टिफिन में आम के टुकड़े, और मन में ढेर सारे सवाल।
एक दिन उसे छत के कोने में एक लकड़ी का पुराना संदूक मिला — शायद दादी का।
उसने दादी से पूछा —
“इसमें क्या है?”
दादी मुस्कराईं —
“तेरे दादा की चीज़ें हैं बेटा… वो भी बहुत ख्वाब देखा करते थे।”
ओजस्वी ने जब संदूक खोला, तो उसमें मिले कुछ पुराने पोस्टकार्ड, एक धूप से जली डायरी, और कुछ रंगीन चित्र।
उसने धीरे-धीरे वह डायरी पढ़ना शुरू किया।
पहले ही पन्ने पर लिखा था —
“छत सबसे ऊँची जगह नहीं होती, पर वहाँ सबसे ऊँचा सपना देखा जा सकता है।”
तीसरा भाग – सपनों की क्लास
ओजस्वी ने अब छत पर बैठकर हर दिन एक नया नियम बनाया —
“हर दिन एक सपना सोचो, और उसे लिखो।”
पहले दिन लिखा —
“मैं एक ऐसा कलाकार बनूँगा जिसकी पेंटिंग हवा में झूलेगी।”
दूसरे दिन —
“मैं ऐसी पतंग बनाऊँगा जो आसमान को रंग दे।”
तीसरे दिन —
“मैं एक ऐसी किताब लिखूँगा जिसमें हर पन्ना एक ख्वाब होगा।”
धीरे-धीरे वह अपनी कल्पना की दुनिया में रंग भरने लगा।
अब वह खाली नहीं था — वह अपने भीतर सजीव दुनिया लेकर घूमता था।
एक दिन जब दादी उसके पास आईं तो उन्होंने देखा कि छत पर अब चॉक से एक छोटा-सा कोना बना हुआ है — जिसमें एक काले रंग की स्लेट, कुछ पुरानी पेंसिलें, एक फूलदान और एक पंक्ति लिखी हुई थी —
“ख्वाबों वाली कक्षा – सिर्फ सपने देखने वालों के लिए।”
चौथा भाग – स्कूल में नई पहचान
छुट्टियों के बाद स्कूल शुरू हुआ।
पहली ही कक्षा में हिंदी के शिक्षक ने कहा —
“गर्मी की छुट्टियों में किसने कुछ खास किया हो, तो खड़ा हो जाए।”
ओजस्वी खड़ा हो गया। सब चौंके।
उसने अपनी डायरी से एक छोटा पन्ना पढ़ा —
“जब मैं छत पर बैठा, तो मुझे लगा कि मैं छोटा नहीं हूँ। मेरा सपना मुझसे बड़ा है। और मैं उसे पकड़ सकता हूँ।”
शिक्षक अवाक् रह गए।
उसी दिन प्रधानाचार्य ने उसे स्कूल की दीवारों पर चित्रकारी करने के लिए कहा।
उसने पहली बार ब्रश उठाया — और रंगों से वो कहानी बनाई, जिसमें एक बच्चा छत पर बैठा है, और आकाश में तारे नहीं, सपनों की पतंगें उड़ रही हैं।
पाँचवाँ भाग – एक पत्र, एक मेहमान
कुछ दिन बाद एक स्थानीय समाचार पत्र ने उसकी कहानी छापी —
“भीलवाड़ा के एक किशोर ने छत पर बनाई अपनी कल्पनाओं की कक्षा”
एक शाम, एक महिला उसके घर आईं।
वो एक आर्ट इंस्टिट्यूट की प्रमुख थीं, और अख़बार में छपी खबर पढ़कर आई थीं।
“क्या आप ओजस्वी हैं?”
“जी…”
“आपको हमारे इंस्टिट्यूट की ग्रीष्मकालीन छात्रवृत्ति दी जा रही है।”
ओजस्वी की आँखों में चमक थी।
वह कुछ कह नहीं पाया, पर अंदर से उसकी पूरी छत झूम उठी थी।
छठा भाग – छत अब अकेली नहीं
अब ओजस्वी ने तय किया कि वह इस ‘छत’ को सिर्फ अपना नहीं रखेगा।
उसने पास के बच्चों को बुलाना शुरू किया — हर रविवार दोपहर, एक पेंसिल, एक सपना और एक मुस्कान लेकर।
छत पर अब कई बच्चे बैठते — कोई लिखता, कोई पेंट करता, कोई पेपर से उड़नखटोला बनाता।
ओजस्वी ने नाम रखा —
“छोटे सपनों की बड़ी छत”
एक दिन उसके पिता लौटे — थके हुए, पर मुस्कराते हुए।
उन्होंने ओजस्वी के बनाए चित्रों को देखा, बच्चों की भीड़ देखी और कहा —
“तू जब बात नहीं करता था, हमें लगा तू खोया हुआ है… पर तू तो बस अपने ख्वाबों में व्यस्त था।”
अंतिम भाग – आसमान से आगे
अब ओजस्वी 9वीं कक्षा में है।
उसने ग्रीष्मकालीन कला प्रतियोगिता में राज्य स्तरीय पुरस्कार जीता है।
उसकी छत अब बंद कोना नहीं, खुला मंच बन गई है।
वहाँ न बोर्ड है, न घंटी — पर वहाँ हर बच्चा आता है क्योंकि वहाँ सवाल नहीं होते — सिर्फ सपने होते हैं।
उसने अपनी डायरी में आख़िरी पंक्ति लिखी —
“मैं कभी क्लास का टॉपर नहीं था, लेकिन मेरी छत ने मुझे उड़ना सिखा दिया। अब मैं नीचे नहीं देखता — क्योंकि मेरा रास्ता ऊपर है, और मेरे पाँव हिम्मत से भरे हैं।”
समाप्त