गुमनाम ख्वाहिशें
संक्षिप्त परिचय:
यह कहानी एक ऐसी महिला, नीलिमा की है, जो समाज के ‘सही’ और ‘उचित’ के सांचे में ढली एक पत्नी, माँ और बहू तो बन गई, पर कभी अपने नाम से, अपने स्वप्नों से, अपनी इच्छाओं से नहीं जी सकी। लेकिन जब एक पुराने दोस्त की चिट्ठी उसके जीवन में दस्तक देती है, तो वह खुद से एक सवाल करती है — क्या अब भी जीना संभव है, अपने लिए? यह कथा आत्म-साक्षात्कार, प्रेम और आत्मनिर्णय की एक बेहद भावनात्मक यात्रा है।
कोलकाता की तंग गलियों में बसा था ‘कृष्णनिवास’। वहीं की दूसरी मंज़िल पर नीलिमा पिछले बाईस वर्षों से रह रही थी। सफ़ेद साड़ी में, बिना मांग का सिंदूर, और चेहरे पर एक ऐसी शांति जो बहुत कुछ सह चुकी हो। उसके दिन अब सुबह की पूजा से शुरू होकर रात के झूठे बर्तनों के साथ खत्म हो जाते थे। घर में पति रमाकांत नहीं रहे—हार्ट अटैक को हुए छह साल हो गए। बेटे यश और बेटी स्वाति अब अपनी-अपनी ज़िंदगी में व्यस्त थे।
नीलिमा अब सिर्फ़ ‘माँ’ थी या ‘दादी’। कोई उसका नाम नहीं लेता था। हर आवाज़ उसी से काम माँगती थी—कभी चाय, कभी खाने में कम नमक की शिकायत, कभी धोबी को कॉल करवाना। लेकिन नीलिमा चुपचाप सब करती रही, जैसे करना उसकी नियति थी।
फिर एक दिन डाकिया एक चिट्ठी छोड़ गया।
पुरानी, हल्के पीले रंग की चिट्ठी। भेजने वाला नाम पढ़कर नीलिमा ठिठक गई—‘आलोक’।
अतीत जैसे दरवाज़ा खटखटा रहा था।
आलोक—वही, जो कॉलेज में उसके सबसे करीब था। दोनों साहित्य में गहरी रुचि रखते थे। साथ कविताएँ लिखते, नुक्कड़ नाटक करते, किताबों पर चर्चा करते। नीलिमा की आँखों में तब एक सपना था—अच्छी लेखिका बनने का, समाज की आवाज़ बनने का।
लेकिन फिर पिताजी ने कहा, “अब बहुत पढ़ लिया, रिश्ता आया है। लड़का अच्छा है, नौकरी करता है।” और नीलिमा का कलम बंद हो गया, किताबें पीछे रह गईं, और वह ‘घर की लक्ष्मी’ बन गई।
चिट्ठी में आलोक ने लिखा था—
“नीलिमा,
पता नहीं तुम्हें यह पत्र मिलेगा भी या नहीं। पर मैं चाहता था कि तुम्हें यह बताऊँ कि तुम्हारी एक पुरानी कविता, ‘बंद खिड़की का सपना’, अभी भी मेरे पास है। हर बार जब मैं उसे पढ़ता हूँ, मुझे यकीन होता है कि तुम सिर्फ़ किसी की पत्नी या माँ नहीं थीं, तुम एक कवयित्री थीं—और शायद अब भी हो।
अगर कभी चाहो, तो कुछ नया लिख भेजना। मैं एक साहित्यिक पत्रिका का संपादन करता हूँ। शायद हम फिर से शब्दों के रास्ते मिल सकें।
– आलोक”
नीलिमा ने चिट्ठी हाथ में लिए बहुत देर तक खिड़की से बाहर देखा। उसे वह समय याद आया, जब उसने खुले मैदान में पहली कविता पढ़ी थी और तालियाँ बजी थीं। उस दिन पहली बार उसे अपने होने पर गर्व हुआ था।
रातभर वह जागती रही। और सुबह होते ही उसने अपनी पुरानी डायरी निकाली। धूल भरी, पील पड़ चुकी लेकिन अब भी जीवित। पहले पन्ने पर लिखा था—”मुझे जीना है… अपने शब्दों में।”
उस दिन पहली बार उसने अपने पोते को स्कूल भेजने के बाद खुद के लिए एक कप कॉफी बनाई, मेज़ पर रखा, और कलम उठाई।
कई वर्षों बाद उसने लिखा। उसके शब्दों में दर्द था, हँसी थी, माँ की थकान थी, स्त्री की अधूरी इच्छाएँ थीं, और सबसे ऊपर एक खोया हुआ आत्मसम्मान।
उसने अपनी पहली कविता आलोक को भेजी।
कुछ हफ्तों बाद, उसे एक लिफ़ाफ़ा मिला जिसमें एक साहित्यिक पत्रिका थी। पहले पन्ने पर उसकी कविता छपी थी—‘गुमनाम ख्वाहिशें’ नाम से। नीचे लिखा था—“नीलिमा श्रीवास्तव, कोलकाता”।
उस दिन नीलिमा ने अपनी बेटी और बेटे को बुलाया और कविता उन्हें सुनाई। बच्चों की आँखें भर आईं।
यश ने कहा—“माँ, हमें नहीं पता था कि आप इतना अच्छा लिखती हैं।”
नीलिमा ने मुस्कुरा कर कहा—“मुझे भी नहीं पता था, बेटा… जब तक मैंने खुद को फिर से नहीं पढ़ा।”
अब हर रविवार को नीलिमा घर की छत पर बैठकर कविताएँ लिखती थी। आस-पड़ोस की महिलाएँ उससे मिलने आतीं, अपनी कहानियाँ सुनातीं और फिर नीलिमा उन्हें शब्दों का आकार देती।
आलोक और नीलिमा कभी नहीं मिले। लेकिन उनके बीच एक ऐसा संवाद पनप गया था, जहाँ प्रेम शब्दों से अधिक आत्मिक हो गया था।
अंतिम पंक्तियाँ:
हर स्त्री के भीतर कुछ ‘गुमनाम ख्वाहिशें’ होती हैं, जो अक्सर परिवार, ज़िम्मेदारियों और रिश्तों की भीड़ में खो जाती हैं। लेकिन अगर वह एक बार अपने भीतर झांके, तो वह उन ख्वाहिशों को फिर से जगा सकती है।
नीलिमा ने जब अपने भीतर के लेखक को फिर से पहचाना, तो वह सिर्फ़ जीवन की शेष साँसें नहीं गिन रही थी—वह उन्हें अर्थ दे रही थी।
और यही सबसे बड़ी स्वतंत्रता है — अपने नाम से, अपने शब्दों से, अपने स्वप्नों से जीना।