अंतरिक्ष योद्धा वायुमंत और चंद्रछाया का प्रकोप
संक्षिप्त विवरण:
वायुमंत इस बार एक ऐसी चुनौती का सामना करता है जो पृथ्वी के सबसे नज़दीकी और सबसे रहस्यमयी उपग्रह – चंद्रमा से जुड़ी है। चंद्रमा की छाया में छिपी एक अदृश्य शक्ति जाग चुकी है – चंद्रछाया, जो समय और प्रकाश के संतुलन को बिगाड़ रही है। पूरी पृथ्वी अंधकार के गर्त में डूबने वाली है। केवल वायुमंत ही है जो उस छाया की गहराई में उतरकर समय की उस गांठ को खोल सकता है। यह कथा अंतरिक्ष के भीतर छिपे समय-भ्रष्ट रहस्यों और भारतीय ज्ञान की विजयी गाथा है।
कहानी:
प्रारंभ:
रात्रि के तीसरे पहर, जब पूरा ब्रह्मांड मौन होता है, तब पृथ्वी पर अचानक एक विचित्र घटना घटती है — पूर्णिमा के दिन, सूर्यग्रहण होता है। वैज्ञानिक चकित, खगोलविद हतप्रभ। ब्रह्म-स्टेशन से सूचना आती है:
“चंद्रमा की परिक्रमा बदल चुकी है। उसकी छाया सूर्य से पहले पृथ्वी पर आ रही है। यह संभव नहीं है।”
इसे नाम दिया गया — “चंद्रछाया घटना”।
वायुमंत को बुलावा:
ब्रह्म-मुख्यालय के अधीक्षक ऋषिपाल तिवारी ने आदेश जारी किया:
“वायुमंत, यह कोई साधारण खगोलीय असंतुलन नहीं। यह चेतन छाया है। हमें संकेत मिले हैं कि चंद्रमा की दूसरी ओर कोई अनदेखी चेतना फिर से सक्रिय हो चुकी है। उसे केवल वही रोक सकता है जो मन और मस्तिष्क दोनों से ब्रह्मांड से एक हो — वायुमंत।”
वायुमंत ने ध्यान मुद्रा में प्रवेश किया, पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण तरंगों को पढ़ा, और ‘शुभ्रयान’ में बैठ चंद्रमा की ओर प्रस्थान किया। शुभ्रयान चंद्र-प्रकाश से संचालित था, और उसमें जुड़ी थी ‘काल-वीणा’ नामक यंत्रणा — जो समय की गति को पढ़ सकती थी।
चंद्रछाया का रहस्य:
जैसे ही वायुमंत चंद्रमा की छाया में पहुँचा, शुभ्रयान की सारी प्रकाश प्रणालियाँ बंद हो गईं। कुछ नहीं दिखा — केवल घना, गाढ़ा, मौन अंधकार। तभी वायुमंत की त्रिनेत्र दृष्टि ने एक कंपन अनुभव किया — और वह सीधे चंद्रमा की दूसरी ओर चला गया, जिसे आज तक किसी मानव ने नहीं देखा था।
वहाँ वह पहुँचा एक अर्धगोलाकार चक्रव्यूह में — चाँदी और राख से बना एक मंदिर — “निशान्तलोक”।
उस मंदिर के भीतर बैठी थी — एक छाया, जिसका शरीर भले स्त्री रूप में था, परंतु उसकी आँखें मृत समय से बनी थीं। वह बोली —
“मैं हूँ चंद्रछाया, चंद्रमा की पहली आत्मा, जिसे मनुष्य ने भूला दिया। जब पृथ्वी पर कोई रात नहीं थी, तब मैं प्रकाश को संतुलन देती थी। अब जब मनुष्य ने अंधकार को भय बना दिया है, मैं अपना अधिकार वापस लेने आई हूँ। पृथ्वी अब सिर्फ अंधकार में रहेगी।”
वायुमंत का प्रत्युत्तर:
“छाया केवल भय नहीं, विश्राम भी है। परंतु यदि तू प्रकाश को निगलती है, तो तू अंधकार नहीं, विनाश बन जाती है। मैं तुम्हें रोकने आया हूँ।”
संघर्ष आरंभ:
चंद्रछाया ने ‘काल-धारा’ छोड़ दी — एक ऐसी तरल छाया जो समय को पीछे घुमाने लगती है। वायुमंत की साँसें धीमी पड़ने लगीं। उसकी तलवार ‘सौरद्वीप’ निष्क्रिय थी, क्योंकि वहाँ सूर्य का कोई प्रभाव नहीं था।
उसने ‘मन-तंत्र’ से ‘काल-वीणा’ बजाई, जिससे समय की वास्तविक लय पुनः उत्पन्न हुई। छाया चीत्कार कर उठी। वायुमंत ने अपनी चेतना को विभाजित किया और ‘योग-भ्रांति’ से तीन आभासिक रूप बनाए — जिससे चंद्रछाया भ्रम में पड़ गई।
फिर उसने ‘रात्रिचक्र’ अस्त्र चलाया, जो केवल अंतरात्मा से ही उठाया जा सकता था। चंद्रछाया को उस अस्त्र ने उसकी अपनी जड़ से काट दिया।
अंतिम संवाद:
चंद्रछाया ने धीमे स्वर में कहा —
“मैं हार नहीं रही हूँ, मैं लौटूँगी… जब मनुष्य प्रकाश से घृणा करने लगेगा। तब मैं फिर लौटूँगी।”
वायुमंत ने उसे एक ऊर्जा-गर्भ में बंद कर दिया, जो हर रात चाँद की दूसरी ओर थिरकती है, लेकिन अब पृथ्वी तक नहीं पहुँच सकती।
पृथ्वी पर वापसी:
पूर्णिमा की रात पुनः सामान्य हो गई। लोगों ने चाँद को देखा, मगर अब उसकी चमक में एक नई शांति थी — जैसे कोई पुराना डर सुला दिया गया हो।
वायुमंत का वक्तव्य:
“हर प्रकाश की छाया होती है। परंतु जब छाया स्वयं प्रकाश निगलने लगे, तब एक प्रहरी चाहिए — जो अंतरिक्ष का संतुलन बनाए रखे। मैं वही प्रहरी हूँ — वायुमंत।”
अंतिम वाक्य:
“जब अगली बार चाँद की चमक बुझने लगे — समझ लेना, मैं फिर से लौट आया हूँ।”