चुप्पियों की आवाज़
संक्षिप्त परिचय:
यह कहानी एक साधारण महिला, अंजलि की है, जो बाहर से एक शांत, समझौतावादी और मुस्कुराती हुई गृहिणी दिखती है, लेकिन भीतर से एक ऐसी आग और पहचान की तलाश में भटकती है, जिसे दुनिया ने कभी पहचाना ही नहीं। अपने परिवार, समाज और स्वयं के बीच झूलती अंजलि की यह यात्रा दर्द, प्रेम, विद्रोह और आत्म-स्वीकृति की अनसुनी आवाज़ है।
शहर के कोने में एक पुराना मकान था, जिसमें खिड़कियों से आती हवा भी किसी की अनुमति लेकर ही आती थी। उस मकान की पहली मंज़िल पर अंजलि रहती थी—चालीस साल की, दो बच्चों की माँ, एक बैंक क्लर्क की पत्नी और पूरे मोहल्ले की आदर्श बहू। बाहर से सब कुछ संतुलित और शांत दिखता था, लेकिन भीतर एक ऐसा तूफ़ान था, जो वर्षों से अंजलि के मन में दबा बैठा था।
अंजलि की शादी को पच्चीस साल हो चुके थे। विवेक, उसका पति, व्यस्त रहता था—बैंक, मोबाइल, न्यूज़ और कभी-कभी ऑफिस की पार्टियों में उलझा हुआ। बेटे ऋषभ कॉलेज में था, और बेटी सौम्या दसवीं में। दिन भर अंजलि की ज़िंदगी किचन से पूजा-घर तक सीमित थी। सुबह उठते ही नाश्ता, बच्चों के टिफ़िन, पति की चाय, फिर कपड़े धोना, खाना बनाना, दोपहर की नींद, शाम की चाय, रात का खाना, और फिर अगले दिन की तैयारी।
अंजलि को पेंटिंग का शौक था। शादी से पहले वह कला में स्नातक थी। रंगों से खेलना, कल्पनाओं को कैनवास पर उतारना—उसे यही दुनिया भाती थी। पर शादी के बाद सब कुछ धीरे-धीरे धुंधला पड़ता गया। “ये सब शादी के बाद नहीं चलता”, “अब घर-गृहस्थी संभालो”, “बच्चों पर ध्यान दो”, “हॉबी से पेट नहीं भरता”—ऐसे वाक्य रोज़ उसके कानों में हथौड़े की तरह बजते।
एक शाम जब विवेक ऑफिस से लौटा, तब अंजलि ने धीमे स्वर में कहा,
“मैंने सोचा है, अगले महीने से पास के आर्ट स्कूल में बच्चों को पेंटिंग सिखाऊँगी। चार घंटे की क्लास होगी।”
विवेक ने अख़बार से नज़रें उठाईं, भौंहें चढ़ाईं और हँसते हुए कहा,
“तुम्हें अब इन सबकी क्या ज़रूरत है? घर ठीक से चलाओ, बस। पेंटिंग सिखा कर क्या मिलेगा? और बच्चों की पढ़ाई? उनकी देखभाल कौन करेगा?”
अंजलि कुछ नहीं बोली। अगले दिन उसने अपनी पुरानी रंगों की पेटी निकाली, जो आलमारी में वर्षों से बंद थी। एक कोने में रखे कैनवास पर हल्के हाथ से एक स्त्री का चेहरा उभरा, जिसकी आँखों में आँसू थे, लेकिन होंठों पर मुस्कान।
धीरे-धीरे अंजलि ने एक के बाद एक पेंटिंग बनानी शुरू की। उसने बच्चों के पुराने प्रोजेक्ट्स में से रंग निकाले, अपनी ही पुरानी साड़ियों को काटकर कलाकृतियाँ बनाई। कुछ दिनों बाद उसने मोहल्ले के बच्चों को अपने घर बुलाकर पेंटिंग सिखाना शुरू किया। माता-पिता को लगा कि ये कोई शौक है, कुछ दिनों में थम जाएगा। पर अंजलि अब थमने वाली नहीं थी।
रविवार को मोहल्ले की एक औरत, प्रिया, अपनी बेटी को लेकर आई और बोली,
“भाभीजी, नेहा कह रही थी कि आपने उसे पेपर क्राफ्ट भी सिखाया, क्या आप मुझे भी सिखा सकती हैं?”
अंजलि ने हल्की मुस्कान से सिर हिलाया। कुछ ही हफ्तों में उसका ड्रॉइंग रूम एक छोटी सी आर्ट गैलरी जैसा दिखने लगा। उसने घर के सामने बोर्ड टांग दिया – “अंजलि आर्ट क्लासेज़ – रंगों से रिश्तों की बात।”
विवेक को यह सब पसंद नहीं था। एक दिन उसने सख़्ती से कहा,
“अब बहुत हो गया, घर में दुकान चला रखी है क्या? तुम क्या समझ रही हो, कोई बड़ी कलाकार बन जाओगी?”
अंजलि ने उसकी आँखों में देखा, चुप रही। लेकिन उसके भीतर कुछ टूटने की बजाय जुड़ने लगा था। अब वह रोज़ रात खुद के लिए आधे घंटे का समय रखती। अपनी डायरी में लिखती, अपनी पेंटिंग्स को देखती, खुद से सवाल करती और जवाब भी।
कुछ महीनों बाद पास के शहर में एक आर्ट एग्ज़िबिशन हुआ। मोहल्ले की कुछ महिलाओं ने ज़ोर दिया कि अंजलि वहाँ अपनी पेंटिंग्स ले जाए। विवेक ने मुँह फेर लिया, लेकिन अंजलि ने इस बार अनुमति नहीं माँगी—बस सूचित किया।
प्रदर्शनी में उसकी पेंटिंग्स को सराहा गया। एक स्थानीय आर्ट गैलरी ने उसकी दो पेंटिंग्स खरीदीं। पहली बार अंजलि के हाथ में एक लिफ़ाफ़ा था, जिसमें उसकी पहचान का मूल्य था—उसकी कला, उसकी मेहनत, उसकी चुप्पी की आवाज़।
वापसी पर वह खिड़की के पास बैठी रही। बाहर हल्की बारिश हो रही थी। विवेक ने धीरे से पूछा,
“तुम्हें अच्छा लगा आज?”
अंजलि ने पहली बार अपनी आँखों में सीधा देखा और बोली,
“हाँ, बहुत अच्छा लगा। पहली बार लगा कि मैं सिर्फ़ एक पत्नी या माँ नहीं हूँ… मैं अंजलि भी हूँ।”
उस रात घर की खामोशी में अंजलि की आत्मा की आवाज़ गूँज रही थी। चुप्पियाँ अब शब्द बन चुकी थीं।
अंतिम पंक्तियाँ:
हर औरत के भीतर एक अधूरी कविता होती है, जिसे समाज अनकहा छोड़ देता है। पर जब वह खुद अपनी कलम उठाती है, तो कविता भी पूरी होती है, और स्त्री भी। अंजलि की कहानी सिर्फ़ एक कहानी नहीं, लाखों स्त्रियों की सच्चाई है—जो खामोशी से अपनी पहचान का रंग भर रही हैं, एक कैनवास पर नहीं, ज़िंदगी पर।