चौथा दरबार
सारांश:
राजस्थान की एक शांत लेकिन इतिहास-भरी हवेली में एक सरकारी कला शोधकर्ता को सौंपा जाता है एक प्राचीन दस्तावेज़, जिसमें ज़िक्र है एक ऐसे ‘चौथे दरबार’ का जो कभी न राजा ने देखा, न किसी इतिहास में दर्ज है। दस्तावेज़ में साफ़-साफ़ चेतावनी है — “इस दरबार को मत खोजना।” पर शोधकर्ता की जिज्ञासा उसे एक ऐसी साजिश में घसीट लेती है जहाँ इतिहास, सत्ता, हत्या और एक गुप्त संगठन की परतें जुड़ी हैं — और सच इतना खतरनाक है कि उसे जानने वाला कभी जीवित नहीं रहता।
कहानी:
स्थान — अलसीसर, राजस्थान।
समय — जनवरी 2025।
शहरों से दूर, राजस्थान के थार रेगिस्तान की गोद में बसा है एक प्राचीन क़स्बा — अलसीसर, जो इतिहास प्रेमियों और कला शोधकर्ताओं के लिए अनोखी जगह मानी जाती है। यहाँ की हवेलियाँ, छतों की नक्काशी, और पुराने दरबार अब केवल फोटो फ्रेम में सजीव हैं।
डॉ. आदित्य रैना, 39 वर्षीय कला इतिहास विशेषज्ञ, भारतीय संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत काम करता था। उसे ‘भूले हुए स्थापत्य’ विषय पर एक गवर्नमेंट प्रोजेक्ट मिला था — जिसमें उसे राजस्थान की लुप्तप्राय हवेलियों और दरबारों का ऐतिहासिक सर्वेक्षण करना था।
अलसीसर की शाह हवेली को सरकारी दस्तावेज़ों में ‘आंशिक रूप से ध्वस्त संरचना’ कहा गया था, लेकिन स्थानीय लोग अब भी उसे “मनहूस हवेली” कहते थे। कहा जाता था कि वहाँ कभी चार दरबार थे, पर अब केवल तीन ही मौजूद हैं। चौथे का कोई चिन्ह तक नहीं मिलता, सिवाय एक दीवार पर हल्के-से उकेरे वाक्य के:
“चौथा दरबार खुला, तो रक्त ही चलेगा।”
पहले तो आदित्य ने इसे लोककथा समझकर नजरअंदाज़ किया। लेकिन एक रात, एक स्थानीय बुज़ुर्ग, फकीरा, चुपचाप उसके कमरे में दाखिल हुआ और उसे एक पुरानी पांडुलिपि सौंप दी — एक सड़ी हुई किताब, जिसकी भाषा संस्कृत, अरबी और एक अज्ञात लिपि का मिश्रण थी।
किताब का पहला पृष्ठ ही डराने वाला था:
“यह पाठ केवल उन्हें दिया जाए जिनकी मृत्यु निश्चित हो चुकी है।”
डॉ. रैना हँस पड़ा।
“बुज़ुर्ग शायद कोई पागल हो,” उसने सोचा।
पर जब उसने किताब पढ़नी शुरू की, उसमें कुछ ऐसा मिला जिसे उसने कभी अनुभव नहीं किया — दस्तावेज़ में हवेली की नक़्शानुमा बनावट थी। लेकिन उसमें चौथे दरबार का भी स्पष्ट उल्लेख था — दरबार संख्या 4: “परछाईं का दरबार।”
इस दरबार के बारे में लिखा था कि वहाँ कोई शासक नहीं बैठा करता था। वहाँ बैठता था — निर्णय।
हर हज़ार वर्षों में, एक निर्णय लिया जाता था — कौन सी ‘याद’ जीवित रहेगी और कौन-सी मिटा दी जाएगी।
यह निर्णय कौन लेता था? यह सवाल दस्तावेज़ ने कभी नहीं बताया।
अगली सुबह आदित्य हवेली पहुँचा। गाइड ने बताया कि हवेली के तीन दरबार तो पर्यटन हेतु खुले हैं, पर चौथा कभी था ही नहीं।
लेकिन आदित्य के हाथ में वह पांडुलिपि अब सच्चाई माँग रही थी।
उसने अकेले ही हवेली के आंतरिक ढांचे का मुआयना शुरू किया। बहुत देर बाद, एक बेहद संकरी दीवार में उसे एक अजीब कंपन महसूस हुआ — वहाँ दीवार थोड़ी खोखली थी। उसने अपने औज़ारों से हल्की चोट मारी — दीवार टूटी, और सामने एक सँकरा मार्ग उभर आया।
एक लंबा गलियारा, दीवारों पर कोई सजावट नहीं, बस सूखी रेत, कुछ टूटे पत्थर, और एक सड़ांध जो वक़्त को सड़ाकर बसा देती हो।
अंत में एक बड़ा पत्थर का दरवाज़ा था, जिसके ऊपर लिखा था:
“अब जब तू आ गया है, लौटना संभव नहीं।”
वो दरवाज़ा धीमे से खुल गया — और सामने चौथा दरबार था।
यह दरबार किसी दूसरे युग का प्रतीत होता था — बिल्कुल काला, दीवारें शीशे की तरह पारदर्शी, और बीचोंबीच एक गोलाकार चबूतरा। चारों ओर आठ खंभे, और हर खंभे पर एक चेहरा — जैसे किसी को ज़िंदा पत्थर में कैद कर दिया गया हो।
तभी हवा बदली। चबूतरे के बीच एक कुरसी उभरी। लेकिन उसमें कोई व्यक्ति नहीं था। सिर्फ एक परछाईं बैठी थी — जो आकार बदल रही थी।
“डॉ. रैना, आपका इंतज़ार था,” एक आवाज़ गूंजी।
“क… कौन?”
“मैं वो हूँ जो समय का न्याय करता है। आपने जिस सच को पढ़ा, उसे अब भुलाया नहीं जा सकता। और वह जो जान जाता है, उसे या तो फैसला करना होता है — या मिट जाना होता है।”
वह परछाईं अब उठी — और एक हाथ बढ़ाया। उसमें वही पांडुलिपि थी — लेकिन उसके अंतिम पृष्ठ अब तक कोरे थे।
“यहाँ तुम्हें तय करना है कि अगले सौ सालों तक दुनिया क्या याद रखे — और क्या भुला दे।”
वेदांत डर से काँप गया। “मुझे क्यों?”
“क्योंकि तुमने दरबार खोला। अब तुम ‘निर्णय’ हो।”
तभी दरबार में हलचल हुई। आठों खंभों पर बंद चेहरों की आँखें खुलीं। वे सभी पूर्व निर्णयकर्ता थे — और अब उनकी जगह लेने की बारी थी।
वेदांत को समझ आ गया — वह अब वापस नहीं जा सकता।
तीन महीने बाद।
अलसीसर के लोग अब शाह हवेली के चौथे प्रांगण की बात नहीं करते। सरकार ने वहाँ ‘संरचना ढह जाने’ की रिपोर्ट बना दी।
पर एक दिन, एक नई शोधकर्ता — आर्या सेन — हवेली के दस्तावेज़ पढ़ रही थी। उसमें अचानक एक नया नाम उभरा:
“चौथे दरबार का अंतिम निर्णयकर्ता — आदित्य रैना”
वह चौंकी — और देखा, फाइल में एक नया नक्शा जुड़ गया है।
और एक आखिरी पंक्ति —
“यदि तुमने यह पढ़ लिया है, तो अगली बार निर्णय तुम्हारा होगा।”
अंतिम पंक्ति:
कुछ दरबार इतिहास में नहीं होते, वे चेतना में बने रहते हैं — और जब वे खुलते हैं, तो सिर्फ खून या सत्ता नहीं, स्मृतियाँ और भविष्य तय होते हैं। पर एक बार खोले जाने के बाद… वे कभी बंद नहीं होते।
समाप्त