छूटे रिश्तों की गूंज
संक्षिप्त विवरण:
यह एक भावनात्मक नाटक है जो एक टूटते हुए परिवार की परतों को खोलता है। पिता और बेटे के बीच वर्षों से जमी हुई खामोशी को तोड़ने की कोशिश में एक मां खुद को खो बैठती है। एक ऐसी कहानी जहाँ हर किरदार अपनी जगह सही है, लेकिन गलतफहमी, अहंकार और समय ने सबको बिखेर दिया है। यह कहानी रिश्तों की सच्चाई, पछतावे और माफ़ी की ताक़त को बारीकी से दर्शाती है।
कहानी:
शहर की हलचल से दूर, उत्तराखंड के पहाड़ों के बीच बसा था ‘नवप्रभा निकेतन’ – एक पुराना लेकिन शालीन घर, जिसमें अब केवल तीन लोग रहते थे: वृद्धा शांति देवी, उनके पति गोपाल प्रसाद और छोटा बेटा आदित्य। बड़ा बेटा रवि दिल्ली में नौकरी करता था और पिछले पाँच वर्षों से घर नहीं आया था। रवि और गोपाल प्रसाद के बीच एक खामोश दीवार खड़ी थी – अहंकार, कटु शब्द और अधूरी बातचीत की दीवार।
शांति देवी के मन में हर दिन वही प्रश्न गूंजता – “कब टूटेगी ये खामोशी?” हर साल दशहरे पर शांति देवी चुपचाप रवि के नाम का पत्र लिखतीं, लेकिन भेजती नहीं थीं। वह पत्र केवल उनके आँसुओं का साक्षी बनकर दराज में पड़े रहते।
एक दिन शांति देवी को दिल का दौरा पड़ा। आदित्य ने तुरंत डॉक्टर बुलाया, लेकिन हालत नाज़ुक थी। अस्पताल ले जाने से पहले शांति देवी ने कांपते हुए हाथों से दराज से वो सारे पत्र निकाले और आदित्य को थमा दिए।
“बड़े भैया को बुला लाओ… अब और देर मत करना…”
आदित्य ने पहले तो विरोध किया, लेकिन मां की हालत देख कर रवि को फ़ोन लगाया। पहली बार रवि ने फ़ोन उठाया और पहली बार उसकी आवाज़ कांपी। अगले ही दिन वह घर आ गया।
घर में उसका स्वागत ना हुआ, ना कोई तंज। आदित्य ने दरवाज़ा खोला और बस कहा – “मां तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं।”
शांति देवी अस्पताल में थीं। रवि को देख उन्होंने मुस्कुरा कर आंखें मूँद लीं। उनकी आँखों से एक आंसू निकला, जो सीधा रवि के हाथों पर गिरा। वही आंसू था जो सालों की दूरी को पिघला गया।
रवि अस्पताल के गलियारे में बैठा रहा। आदित्य ने उसे वह सारे पत्र सौंपे। रवि ने एक-एक पत्र पढ़ा – हर शब्द मां की ममता, दर्द, और इच्छाओं से भरा था। उसमें किसी भी पत्र में उसके पिता के खिलाफ कुछ न था। बल्कि हर बार मां ने यही लिखा था –
“तुम्हारे पापा कठोर ज़रूर हैं, पर पत्थर नहीं।”
पढ़ते-पढ़ते रवि की आंखों में आंसू आ गए। उस रात वह पहली बार अपने पिता के कमरे में गया। गोपाल प्रसाद खामोश थे, उन्हें देखकर रवि की आंखें भर आईं। दोनों के बीच एक लंबा मौन पसरा रहा। फिर रवि ने धीरे से कहा –
“मैं आ गया हूं, पापा।”
गोपाल प्रसाद की आंखों में नमी तैर गई। उन्होंने कुछ नहीं कहा, बस अपने कांपते हाथ से रवि का कंधा थाम लिया। वह स्पर्श वर्षों की दूरी को मिटा गया।
शांति देवी की हालत बिगड़ती रही, पर उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा। वह केवल बेटे और पति को एक साथ देखना चाहती थीं। एक दिन सुबह जब रवि उन्हें किताब पढ़ कर सुना रहा था, वह चुपचाप सो गईं – हमेशा के लिए।
उनके जाने के बाद, घर की दीवारों में सन्नाटा और पछतावे की गूंज भर गई। पर इसी गूंज ने कुछ नया शुरू किया।
रवि ने तय किया वह यहीं रहेगा। आदित्य को शहर में नौकरी का प्रस्ताव मिला और रवि ने कहा – “अब ये घर, ये रिश्ता, मेरी ज़िम्मेदारी है।”
गोपाल प्रसाद और रवि की खामोश शामें अब एक-दूसरे की बातों से भरने लगीं। वे अक्सर पुराने दिनों की बातें करते, शांति देवी की पसंद का खाना बनाते और उनकी किताबों को पढ़ते।
समय बीतता गया, लेकिन ‘नवप्रभा निकेतन’ के हर कोने में शांति देवी की ममता गूंजती रही। उनकी याद, उनका लिखा हर पत्र, अब घर का हिस्सा बन गया था – ऐसा हिस्सा, जो कभी मिट नहीं सकता था।
अंतिम पंक्तियाँ:
रिश्ते अक्सर शब्दों से नहीं, समझ से चलते हैं। और कभी-कभी, माफ़ कर देना ही सबसे बड़ा प्रेम होता है। ‘छूटे रिश्तों की गूंज’ उसी प्रेम और पुनर्मिलन की कहानी है – जहां खामोशी भी कभी-कभी सबसे सशक्त संवाद बन जाती है।