झूठ की दीवार
संक्षिप्त सारांश:
यह कहानी है ‘सौरभ रस्तोगी’ की — एक मध्यमवर्गीय परिवार का पढ़ा-लिखा नौजवान जो सफलता के शॉर्टकट के चक्कर में अपने जीवन को झूठ की छोटी-छोटी ईंटों से सजाने लगता है। पहले अपने रिज़्यूमे में झूठ, फिर सोशल मीडिया पर बनावटी जीवन, और फिर निजी संबंधों में छल — धीरे-धीरे वह अपने ही बनाए हुए नकली संसार में कैद हो जाता है। लेकिन जब यह झूठ की दीवार ढहती है, तो सौरभ न सिर्फ़ खुद से, बल्कि अपने अपनों से भी टकराता है। यह कहानी सिखाती है कि झूठ चाहे जितना भी सुनियोजित हो, उसका अस्तित्व हमेशा अस्थायी होता है।
कहानी:
सौरभ रस्तोगी, 27 वर्षीय एक शिक्षित और स्मार्ट युवक, लखनऊ के चारबाग़ इलाके में अपने माता-पिता और छोटी बहन के साथ रहता था। वह इंजीनियरिंग कर चुका था, और अब नौकरी की तलाश में था।
घर की आर्थिक स्थिति बेहद साधारण थी। पिता रेलवे से रिटायर हो चुके थे, माँ सिलाई का काम करती थीं। सौरभ की पढ़ाई एक अच्छे सरकारी कॉलेज से हुई थी, पर नौकरी नहीं मिल रही थी।
आसपास के रिश्तेदार, मोहल्ले वाले, यहाँ तक कि पापा के पुराने सहकर्मी तक यह पूछने लगे थे — “अभी तक बेटा कहाँ नौकरी कर रहा है?”
हर बार सौरभ मुस्कराकर कहता — “बस, एक बड़ी कंपनी से ऑफर आया है। जल्द ही जॉइन कर रहा हूँ।”
यह झूठ उसने पहले झिझक से बोला था, फिर आदत बन गया।
धीरे-धीरे, झूठ का दायरा बढ़ता गया। उसने सोशल मीडिया पर एक फ़ेक आईडी बनाई — जिसमें वह खुद को एक मल्टीनेशनल कंपनी का ‘सॉफ्टवेयर कंसल्टेंट’ बताता। गूगल से ऑफिस की फोटोज़ डाउनलोड कर पोस्ट करता, और फेक लोकेशन टैग लगाकर दिल्ली, बैंगलुरु, दुबई तक ‘घूम आता’।
उसके दोस्त, जान-पहचान वाले, यहाँ तक कि परिवार भी अब उसे “कामयाब लड़का” मानने लगे थे। रिश्तेदारों के बीच उसकी मिसाल दी जाने लगी।
“देखो सौरभ को… कैसे सब संभाल लिया। आज के लड़कों से कुछ सीखो!”
पर इन झूठों के नीचे, सौरभ रात को नींद की गोलियों पर ज़िंदा था।
हर सुबह वह पिता से झूठ बोलता — “ऑनलाइन वर्क फ़्रॉम होम है, मीटिंग है। कमरे में डिस्टर्ब मत करना।”
और फिर कमरे में बैठकर खाली लैपटॉप को ताकता, या किसी वेबसाइट पर नई नौकरी ढूँढता।
उसकी बहन ‘पूजा’ ने एक दिन पूछा —
“भैया, आप तो इतने बड़े ऑफिस में काम करते हो, फिर घर की हालत क्यों नहीं सुधरती?”
सौरभ के पास जवाब नहीं था।
पर जब तक झूठ चलता है, आदमी उसे टूटने नहीं देना चाहता।
फिर एक दिन, सबकुछ उजागर हो गया।
एक लड़के ने उसकी पोस्ट पर कमेंट किया —
“अरे सौरभ, तुम तो मेरे कॉलेज के सीनियर हो ना? तुम्हारा ये ऑफिस तो मेरी कंपनी के पास है। कब से जॉइन किया?”
उस लड़के की प्रोफाइल असली थी, उसके पास सौरभ की सच्चाई जानने के पूरे रास्ते थे। दो-तीन और लोगों ने सौरभ से सवाल किए।
कुछ ही समय में, सौरभ की पोल खुल गई। दोस्तों ने सोशल मीडिया पर उसकी फ़ेक प्रोफाइल की तस्वीरें शेयर कीं, और कुछ ने तो उसका मज़ाक बनाकर मीम भी बना दिए।
घर में बात पहुँची। पापा ने सौरभ से सीधा सवाल किया —
“सच क्या है?”
सौरभ चुप रहा। माँ की आँखें भरी हुई थीं। बहन पूजा, जो हर जगह उसकी तारीफ़ करती थी, अब खामोश खड़ी थी।
कुछ घंटों बाद, सौरभ के भीतर कुछ टूट गया। उसने सारा सच बता दिया — कैसे वह नौकरी के लिए संघर्ष कर रहा था, कैसे वह अपनों की नज़रों में अच्छा दिखना चाहता था, कैसे हर दिन उसके आत्मसम्मान को निगल रहा था यह झूठ।
माँ ने उसके सिर पर हाथ रखा —
“झूठ बोलकर जो सम्मान मिला था, वो अब गया। पर सच बोलकर जो आँसू निकले हैं, वो तुम्हें सच्चा रास्ता दिखाएँगे।”
पिता कुछ देर बाद बोले —
“काम न मिलने से आदमी छोटा नहीं होता बेटा, पर झूठ बोलकर वो खुद को मिटा देता है।”
उस रात सौरभ ने अपने सोशल मीडिया से सारी फर्जी पोस्ट हटा दीं, और एक सच्ची पोस्ट लिखी —
“मैं नौकरी नहीं करता। मैंने कई झूठ बोले — आप सबको अच्छा दिखने के लिए। पर अब मैं खुद से सच बोलना चाहता हूँ। मैं असली ज़िंदगी जीना चाहता हूँ — मुश्किल भले हो, पर सच्ची हो।”
कुछ लोगों ने उसका मज़ाक उड़ाया। पर कुछ ने कहा — “बहुत हिम्मत का काम है।”
उसके पुराने प्रोफेसर ने यह पोस्ट पढ़कर उसे एक छोटे स्टार्टअप में इंटर्नशिप की पेशकश दी — बिना सैलरी के, पर सीखने की जगह के साथ।
सौरभ ने वो ऑफर स्वीकार किया। पहली बार उसने ईमानदारी से सुबह छह बजे उठकर लोकल ट्रेन पकड़ी — सस्ते कपड़े, बैग में टिफ़िन और जेब में केवल ₹50।
छह महीने की मेहनत, सीख और ईमानदारी के बाद उसी कंपनी ने उसे जूनियर डेवलपर की नौकरी दी। और पहली सैलरी से सौरभ ने माँ के लिए एक साड़ी और पापा के लिए एक डिजिटल घड़ी खरीदी।
पूजा ने वो घड़ी देखते हुए कहा —
“अब जो भैया हो, वो सच्चे भैया हैं — और मुझसे बड़े इंसान।”
यह कहानी हमें यह सिखाती है कि झूठ की दीवार भले ऊँची हो, लेकिन वह टिकाऊ नहीं होती। खुद से, अपनों से और समाज से झूठ बोलकर जो पहचान बनाई जाती है, वह भीतर से खोखली होती है। जबकि सच्चाई भले धीमी हो, पर वह ज़मीन पर खड़ी होती है — और ऐसे चरित्र गढ़ती है जो कभी नहीं गिरते। अपने संघर्ष को छुपाने से अच्छा है, उसे स्वीकार करना — क्योंकि सच्चे रास्ते पर चलने वाले ही अंततः सबसे ऊँचे होते हैं।
समाप्त