टूटी हुई कड़ी
एक स्त्री की आत्म-खोज की लंबी यात्रा, जहां रिश्तों की जकड़न, समाज की बेड़ियाँ और दिल के भीतर की सच्चाइयाँ उसे बार-बार तोड़ती हैं, लेकिन अंततः वह अपनी पहचान खुद रचती है।
कोमल चौधरी की उम्र पैंतीस साल थी। बाहर से वह एक सधी-सधी गृहिणी लगती थी — शांत, विनम्र, और अनुशासित। लेकिन भीतर कहीं वह लगातार खुद से लड़ रही थी। उसकी आँखों में अक्सर एक थकी हुई चमक होती थी — जैसी कोई औरत वर्षों से जाग रही हो, मगर नींद कभी आई ही न हो।
उसका विवाह पच्चीस की उम्र में जयंत चौधरी से हुआ था — एक सरकारी अधिकारी जो ज़्यादा बोलता नहीं था, पर चुप्पी में अपनी सत्ता बिठाना जानता था। शुरू के कुछ साल कोमल ने सबकुछ सामान्य माना — पति की बेरुख़ी, ससुराल की अपेक्षाएँ, और अपने सपनों को धीरे-धीरे भूल जाना। लेकिन जब उसकी बेटी अदिति सात साल की हुई, और कोमल की सास ने कहना शुरू किया कि अब उसे बेटे की ज़रूरत है, तब कोमल के भीतर कोई टूटा नहीं, बल्कि कुछ जागा।
“और कितनी बार मैं अपनी देह को इन तमाम आकांक्षाओं की भट्टी में डालूँ?” — यह सवाल हर रात उसकी छाती पर बोझ बन कर बैठता।
वह पढ़ी-लिखी थी — अंग्रेज़ी में एम.ए., शादी के बाद सबकुछ छोड़ दिया था। परंतु किताबें उसने कभी नहीं छोड़ीं। जब रात को सब सो जाते, वह चुपचाप उठकर अपनी पुरानी डायरी निकालती और उन शब्दों को दोहराती जिन्हें उसने वर्षों पहले लिखा था —
“मैं एक औरत हूँ। मैं पूरी दुनिया से कहने लायक कुछ हूँ। मुझे सुना जाए।”
एक दिन जयंत ने उसकी डायरी पढ़ ली।
“ये सब क्या है? कविताएँ? सपने? औरतें कविता नहीं लिखतीं, घर संभालती हैं।”
उस दिन कोमल ने पहली बार कुछ नहीं कहा। लेकिन भीतर एक दीवार दरक चुकी थी।
आत्म-स्वर की शुरुआत
आने वाले महीनों में कोमल ने तय किया कि वह अदिति के स्कूल में वॉलंटियर टीचर बनेगी। उसे पढ़ाने में आनंद आता था। बच्चों की आँखों में जिज्ञासा देख कर उसे महसूस हुआ कि ज्ञान देना भी एक प्रेम है, और शायद वह प्रेम उसे बरसों से नहीं मिला था।
जयंत ने कहा —
“मुफ़्त में पढ़ाने जाओगी? क्या मिलेगा वहाँ?”
कोमल मुस्कुराई —
“वो जो तुम कभी दे नहीं सके। सम्मान।”
धीरे-धीरे स्कूल ने उसे पार्ट-टाइम शिक्षिका के रूप में नियुक्त कर लिया। वहाँ की प्रिंसिपल, सुमेधा मैम, एक विधवा महिला थीं जिन्होंने कोमल की प्रतिभा को पहचान लिया था। उन्होंने उसे प्रोत्साहित किया कि वह अपने अनुभवों पर लेख लिखे।
और कोमल ने पहली बार अपने भीतर की स्त्री को कलम के ज़रिये दुनिया से मिलवाया।
उसने लेख लिखा — “एक औरत की ख़ामोशी की गूंज” — जो स्थानीय अख़बार में छपा। उसे जब पहली बार अपना नाम छपा हुआ दिखा, उसकी आँखें भर आईं। वह रोई — लेकिन वो आँसू दुख के नहीं, पुनर्जन्म के थे।
परिवार और विद्रोह
जयंत अब असहज था।
“तुम्हें ये सब करने की क्या ज़रूरत? घर पर ध्यान दो। लोग बातें बना रहे हैं।”
कोमल ने शांत होकर कहा —
“लोगों ने तो तब भी बात बनाई थी जब मैं चुप थी। अब कम से कम जवाब दे सकती हूँ।”
बात बढ़ती गई। जयंत ने मारने की कोशिश की। अदिति सब देख रही थी। उस रात कोमल ने पहली बार जयंत के सामने खड़े होकर कहा —
“मैं अपनी बेटी को ये नहीं सिखाऊंगी कि चुप रहना ही औरत का धर्म है।”
वह अदिति को लेकर अपने मायके चली गई। वहाँ भी उसे सहारा नहीं मिला। पिता मर चुके थे, माँ ने कहा —
“घर छोड़ कर आना कोई गर्व की बात नहीं। औरतें सहती हैं, टूटती हैं, मगर लौटती नहीं।”
कोमल ने जवाब दिया —
“अब मैं लौटूँगी, मगर अपने घर में, अपनी शर्तों पर।”
संघर्ष और पुनर्निर्माण
अगले दो सालों में कोमल ने अदिति को पढ़ाया, अपने लेखन को और गंभीरता से लिया। धीरे-धीरे उसकी पहचान एक स्वतंत्र लेखिका के रूप में बन गई। एक बड़ा प्रकाशन संस्थान उसके लेखों को नियमित रूप से छापने लगा।
सुमेधा मैम ने उसे एक फ़ुल टाइम नौकरी दी — महिला विकास केंद्र में परामर्शदाता के रूप में। वहाँ वह उन महिलाओं की कहानियाँ सुनती, जो किसी न किसी तरह से टूटी थीं — शादी, समाज, या खुद से।
पर कोमल अब टूटी नहीं थी। वह एक पुल बन गई थी — उन स्त्रियों के बीच और उनके सपनों के बीच।
जयंत की वापसी
तीन साल बाद जयंत उसकी ज़िंदगी में फिर आया — इस बार माफी और पछतावे के साथ।
“मैंने तुम्हें कभी समझा ही नहीं कोमल। मैं चाहता हूँ कि हम फिर से एक साथ रहें, तुम्हारे नियमों पर।”
कोमल चुप रही। उसने अदिति की ओर देखा — अब बारह साल की हो चुकी थी।
“बेटा, क्या तुम चाहोगी कि हम पापा के साथ रहें?”
अदिति ने कहा —
“माँ, हम जहाँ भी रहें, बस तुम जैसी हो, वैसी ही रहो।”
कोमल ने जयंत की ओर देखा —
“मैं अब किसी की पत्नी या बहू नहीं, पहले खुद की माँ हूँ। अगर तुम्हें यह स्वीकार है, तो हमारे दरवाज़े खुले हैं। वरना मेरी दुनिया अब किसी एक पुरुष के इर्द-गिर्द नहीं घूमती।”
जयंत झुक गया। पर कोमल अब किसी को माफ़ नहीं करती थी। वह समझौते नहीं करती थी। वह जीवन को ज्यों का त्यों स्वीकार कर चुकी थी — बिना लाग-लपेट के।
उसने अपने टूटे हिस्सों को जोड़कर खुद को फिर से गढ़ा था। अब वह कोमल नहीं, एक पूर्ण स्त्री थी — आत्मनिर्भर, आत्मविश्लेषी और आत्मसम्मानी।
समाप्त
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