धूप की झील
संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है एक युवा शहरी वास्तुविद आरव देसाई की, जो एक सरकारी ‘रिन्यूअल लैन्डस्केप’ प्रोजेक्ट के अंतर्गत उत्तर भारत के सूख चुके, निर्जन हो चुके एक पुराने झील स्थल पर छह सप्ताह के लिए जाता है। वहां उसे कोई निर्माण नहीं करना होता — बल्कि केवल ‘धूप में’ उस जगह को महसूस करना होता है। यह कोई योजना आधारित या उद्देश्यमूलक यात्रा नहीं होती, बल्कि एक धीमी, प्रकृति में गूंथी हुई, भीतर उतरती आधुनिक खोज है — जहाँ वह झील नहीं, बल्कि स्वयं के सूखे हिस्से को देखता है। यह कहानी बिना नाटकीयता, बिना संकट, केवल एक मौन साहसिकता की है।
कहानी
आरव देसाई, उम्र 33, मुंबई के एक प्रतिष्ठित आर्किटेक्चर फर्म में डिजाइन लीड था। उसने मल्टीप्लेक्स, अपार्टमेंट्स, बिजनेस पार्क्स — सब कुछ डिज़ाइन किया था।
पर अब वह थक गया था — बिल्डिंग्स से, स्क्रैच से नक्शा खींचने से, हर क्लाइंट को ‘यूनीक’ दिखाने के चक्कर में खुद को खो देने से।
उसके भीतर चुपचाप एक सवाल उभरने लगा था —
“क्या हम बस बनाते जा रहे हैं? कभी ठहरकर कुछ महसूस नहीं कर सकते?”
एक दिन एक ईमेल आया —
“Government of India: Landscape Recovery Initiative”
सरकार का एक नया प्रयास, जिसमें वास्तुविदों और पर्यावरणशास्त्रियों को उन जगहों पर भेजा जा रहा था जो ‘निर्माण योग्य नहीं’ थीं — केवल महसूस करने योग्य थीं।
प्रोजेक्ट का उद्देश्य था —
“कोई निर्णय मत लो। बस वहाँ रहो। देखो। धूप देखो, जमीन को छूओ, और वापस लौटकर अपनी बात कहो।”
स्थान: उत्तर भारत के एक उपेक्षित जिले में एक सूखी झील —
नाम नहीं था, लोग बस उसे कहते थे — “जहाँ धूप अटकती है।”
आरव ने तुरंत हाँ कह दिया।
प्रस्थान और पहला मौन
वह ट्रेन से गया, फिर एक जीप, फिर कुछ किलोमीटर पैदल चला।
वहाँ कोई स्वागत नहीं था — बस एक टूटी-सी मचान, कुछ स्थानीय झाड़ियाँ, और बहुत सारा खालीपन।
झील नहीं थी — बस एक चौड़ी, रेतीली परत, जिस पर धूप देर तक टिकती थी।
लगता था जैसे वहाँ समय भी सो गया हो।
आरव ने अपने टेंट को जमीन पर नहीं, एक पत्थर के चबूतरे पर लगाया।
कोई मकसद नहीं था, बस मौन में रहना था।
पहला सप्ताह: धूप से पहचान
वह सुबह 6 बजे उठता, और 10 बजे तक बिना कुछ बोले बस झील के पुराने तटरेखों के पास बैठा रहता।
धूप आहिस्ता-आहिस्ता ऊपर चढ़ती, और जमीन को एक विशेष चमक देती।
वह कुछ नहीं करता — बस देखता रहता।
हर दिन वह केवल एक चीज़ लिखता — “आज धूप वहाँ अटकी।”
दूसरे सप्ताह तक, उसने महसूस किया कि जमीन की धूप में भी भावनाएँ हैं।
कभी वह गर्मजोशी से भर देती, कभी थका देती।
तीसरा सप्ताह: भीतर की परतें
अब वह झील के चारों ओर चक्कर लगाने लगा था — धीरे-धीरे।
वहाँ कुछ नहीं था — न कोई परछाईं, न आवाज़ें, न कोई घास।
पर उसके भीतर कुछ खुलने लगा था।
एक दिन उसने खुद से कहा —
“शायद निर्माण के बजाय मैं अब मिटाने की प्रक्रिया में हूँ।”
उसने टेंट से अपनी नोटबुक बाहर निकाल दी।
अब वह सिर्फ़ शरीर से ज़मीन के संपर्क में रहना चाहता था।
चौथा सप्ताह: एक छोटी खोज
एक सुबह, आरव ने देखा कि एक छोटी सी जगह पर मिट्टी में नमी थी।
वह घुटनों पर बैठ गया, और वहाँ अपने हाथ से ज़मीन खोदने लगा।
नीचे एक गीली परत थी — बहुत पतली, पर ठंडी।
वहाँ कोई पानी नहीं था, लेकिन किसी समय की उपस्थिति थी।
वह घंटों वहीं बैठा रहा — न कुछ मापा, न कुछ रिकॉर्ड किया।
बस सोचता रहा —
“कितना कुछ छुपा होता है उन जगहों में, जहाँ हम अब देखना बंद कर देते हैं।”
पाँचवाँ सप्ताह: झील नहीं, प्रतिबिंब
अब आरव दिन भर झील के बीचोंबीच एक ऊँचे टुकड़े पर बैठा करता था।
वह खालीपन को पढ़ता था।
उसे वहाँ पेड़ नहीं चाहिए थे, न इमारतें।
वह सोचने लगा —
“क्या कोई झील बिना जल के भी हो सकती है?”
“क्या यह झील अब सिर्फ़ धूप की झील है?”
अब वह झील को सिर्फ़ एक भौगोलिक स्थल नहीं, एक मनोवैज्ञानिक परछाईं समझने लगा था।
छठा सप्ताह: अंत की शुरुआत
आख़िरी दिन, उसने कुछ नहीं किया।
न टहलना, न लिखना, न नमी देखना।
बस चुपचाप ज़मीन पर लेटा रहा।
धूप ऊपर से आ रही थी, जैसे कोई हाथ छू रहा हो।
उसे लगा —
“मैं अब झील नहीं खोज रहा, मैं अब धूप की छाया में हूँ। मैं एक उपस्थिति हूँ, और यह जगह अब मेरी एक परत है।”
वापसी
जब वह मुंबई लौटा, सहकर्मियों ने पूछा —
“क्या कुछ मिला उस जगह पर?”
उसने कहा —
“हाँ, धूप मिली — बिना लक्ष्य के, बिना नाम के — और मैंने जाना कि निर्माण से ज़्यादा ज़रूरी कभी-कभी सिर्फ़ उपस्थित होना होता है।”
अब आरव आर्किटेक्चर नहीं पढ़ाता —
वह ‘लैंडस्केप मौनशास्त्र’ नाम से एक वैकल्पिक पाठ्यक्रम शुरू कर चुका है, जहाँ वह सिखाता है कि किस तरह किसी स्थान को महसूस किया जाए — बिना छेड़े, बिना बदले।
अब वह हर सप्ताह एक दिन ऐसी जगह जाता है — जहाँ कुछ नहीं है — और वहाँ धूप के अटकने का इंतज़ार करता है।
यह कहानी हमें यह सिखाती है कि सभी यात्राएँ पहाड़ों या महासागरों तक नहीं होतीं — कुछ यात्राएँ केवल एक सूखी झील की मिट्टी पर बैठकर अपनी परछाईं को महसूस करने की होती हैं। वहाँ जहाँ कुछ नहीं होता — पर सब कुछ घटता है।
समाप्त।