धूप के पार की औरत
संक्षिप्त परिचय:
यह कहानी माया की है — एक प्रतिष्ठित परिवार की बहू, एक डॉक्टर की पत्नी, और तीन बच्चों की माँ। बाहर से सबकुछ परिपूर्ण दिखता है, लेकिन भीतर एक सवाल बार-बार उसके सीने में गूंजता है — “मेरे अपने सपने कहाँ हैं?” जब ज़िंदगी उसे सिर्फ़ दूसरों के लिए जीने को कहती है, तो वह एक फैसला लेती है, जो समाज की परिभाषाओं को हिला देता है। यह कहानी एक ऐसी स्त्री की है, जो धूप में जलती रही, पर आखिरकार अपनी रौशनी खुद बन गई।
दिल्ली की सड़कों पर सर्दी की हल्की धूप फैली थी। माया अपने घर की बालकनी में खड़ी चाय पी रही थी, और उसकी नज़रें उस स्कूल बस पर थीं जिसमें उसकी छोटी बेटी सिया बैठी थी। वो हँसी जो सिया के चेहरे पर थी, वही कभी माया के चेहरे पर भी थी — तब जब वह मीरापुर की गलियों में साइकिल चलाती थी, किताबों से सपने बुनती थी, और अपने नाम के आगे ‘आई.ए.एस.’ जोड़ने की कल्पना करती थी।
लेकिन फिर शादी हो गई।
समाज, रिश्तेदार, परंपराएँ और ‘लड़की के हाथ पीले कर देने’ की जल्दबाज़ी में माया की किताबें एक बक्से में बंद हो गईं। रवि, उसका पति, दिल्ली के मशहूर अस्पताल में डॉक्टर था। बहुत सज्जन, ज़िम्मेदार और कामयाब इंसान। लेकिन माया के भीतर की स्त्री को कभी समझ न सका।
शादी के शुरू के साल तो घर बसाने में बीत गए। फिर बच्चे हुए, उनके स्कूल, उनकी दवाइयाँ, उनके टीचर-मीटिंग, उनके बर्थडे प्लानिंग। इन सबमें माया कहाँ थी? कभी-कभी खुद को शीशे में देखकर वह मुस्कुराती थी और कहती थी — “तू ठीक है। सब ठीक है।”
लेकिन कुछ भी ठीक नहीं था।
एक दिन दोपहर में अलमारी साफ करते हुए माया को एक पुराना फ़ाइल मिला। उसमें उसकी कॉलेज की कविताएँ थीं। एक कविता पर उसकी आँखें ठहर गईं —
“सपनों की परछाइयों से आगे,
मैं धूप से सीधी टकराऊँगी।
तूने जो पिंजरा दिया है मुझे,
देखना, मैं उसमें भी उड़ जाऊँगी।”
वो रात माया ने नींद में नहीं, सोच में गुज़ारी। अगले दिन सुबह उसने अपने बच्चों को स्कूल भेजा, पति को ऑफिस, और खुद पास के सार्वजनिक पुस्तकालय में चली गई। वहां जाकर उसने खुद को फिर से पाया। किताबों के बीच, कागज़ों के बीच, अपनी भाषा और अपने विचारों के बीच।
धीरे-धीरे उसने लेखन शुरू किया। पहले डायरी में, फिर कुछ महिला पत्रिकाओं में। एक छद्म नाम से वह महिलाओं की कहानियाँ लिखती — दर्द, संघर्ष, आत्मा की प्यास, रिश्तों की उलझनें, और उस आवाज़ की तलाश जो हर औरत के भीतर गूंजती है।
एक दिन एक प्रसिद्ध महिला लेखक की कार्यशाला का निमंत्रण मिला। वह दिल्ली में ही था, लेकिन रवि ने टाल दिया —
“ये सब टाइम पास है। तुम्हें इन चीज़ों की क्या ज़रूरत है?”
माया ने पहली बार विरोध नहीं किया, पर चुप भी नहीं रही। उसने कहा,
“अगर तुम डॉक्टर हो सकते हो, तो क्या मैं लेखिका नहीं हो सकती? तुम अस्पताल जाते हो, मैं भी अपनी रचना की जगह पर जाना चाहती हूँ।”
रवि ने कोई उत्तर नहीं दिया। लेकिन उस दिन माया कार्यशाला में गई। वहां सैकड़ों महिलाओं से मिली, जो अपनी आवाज़ की तलाश में थीं। वह न सिर्फ़ सीखने गई थी, बल्कि दूसरों को सिखाने भी लगी।
धीरे-धीरे उसकी कहानियाँ प्रसिद्ध होने लगीं। उसका एक संग्रह ‘औरतें जो बोलती हैं’ प्रकाशित हुआ। छद्म नाम अब असली नाम बन गया — ‘माया श्रीवास्तव’। उसके लेखन की सराहना हुई, समीक्षकों ने उसकी सोच को ‘एक सन्नाटे की चीख़’ कहा।
समाज धीरे-धीरे स्वीकार करने लगा। एक दिन रवि घर में आया, तो देखा — माया अपने कमरे में लेखन में डूबी थी, और बच्चे खुद अपने होमवर्क कर रहे थे। पहली बार उसने महसूस किया कि उसकी पत्नी सिर्फ़ बच्चों की माँ नहीं, एक पूरी दुनिया है।
रात में उसने पूछा,
“तुम इतनी देर कैसे लिख लेती हो?”
माया ने मुस्कराकर जवाब दिया,
“जैसे तुम देर तक ऑपरेशन करते हो, वैसे ही मैं भी अपनी आत्मा के ज़ख्मों का ऑपरेशन करती हूँ। फर्क इतना है कि तुम शरीर बचाते हो, मैं सपने।”
उस रात रवि ने पहली बार माया की कहानी पढ़ी। और पहली बार वह रोया।
अंतिम पंक्तियाँ:
माया अब सिर्फ़ एक नाम नहीं, एक प्रतीक बन चुकी थी — उन सभी महिलाओं के लिए जो घर के भीतर एक दुनिया बसाती हैं, लेकिन अपनी ही दुनिया से कट जाती हैं। उन्होंने धूप से डरना छोड़ा, और खुद रौशनी बन गईं।
हर औरत को अपने भीतर की माया से मिलना चाहिए — क्योंकि सपनों की कोई उम्र नहीं होती, और आवाज़ की कोई सीमा नहीं।