नया सफर
एक महिला जिसने खोई पहचान से फिर पाई रोशनी
रीमा की ज़िंदगी एक चमकदार शहर के भीड़-भाड़ में कहीं खो गई थी। पढ़ाई में अव्वल, सोच में साफ़ और स्वभाव से दृढ़, रीमा कभी अपने कॉलेज की सबसे होनहार छात्रा हुआ करती थी। लेकिन शादी, परिवार और समाज के असंख्य नियमों में उसकी चमक कहीं धुंधला गई। इस कहानी में हम उस सफर को जानेंगे जहाँ एक घरेलू महिला ने फिर अपने भीतर की आवाज़ को सुना, हार की चादर को उतारा और एक नई पहचान बनाई।
दिल्ली के एक मध्यमवर्गीय मोहल्ले की एक पुरानी चारमंज़िला इमारत के तीसरे माले पर एक खिड़की थी, जो रोज़ सुबह सात बजे खुलती और रात को दस बजे के बाद बंद होती। उस खिड़की से सटे कमरे में रहती थी रीमा – दो बच्चों की माँ, एक सफल इंजीनियर की पत्नी और एक घरेलू औरत, जिसे सबने सालों से सिर्फ़ चाय, सब्ज़ी, टिफ़िन और स्कूल डिब्बों में बाँध दिया था।
रीमा ने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में गोल्ड मेडल हासिल किया था, लेकिन शादी के बाद ससुराल और पति की ज़रूरतों में खुद को भूल गई। शुरू में उसे लगा, यही ज़िंदगी है, यही सबका रास्ता है। लेकिन धीरे-धीरे वह खिड़की सिर्फ़ हवा का रास्ता नहीं रही – वह बन गई रीमा की सोच का एक छेद, जहाँ से वह अपने गुज़रे सपनों को झांकती थी।
एक दिन, जब वह अपने बेटे को मैथ पढ़ा रही थी, उसे यह अहसास हुआ कि वह अब भी समझा सकती है। उसका मन किया कि वह फिर से कुछ सीखे, कुछ सिखाए। लेकिन जैसे ही उसने यह बात अपने पति राजीव से कही, उसका जवाब था – “अब इस उम्र में क्या पढ़ना? बच्चे बड़े हो रहे हैं, उनका ध्यान रखो।”
उस रात वह बहुत देर तक खिड़की से बाहर देखती रही। सामने की इमारत में एक औरत लैपटॉप पर कुछ टाइप कर रही थी। वह सोचने लगी – क्या वह भी यह कर सकती है? क्या अब भी समय बचा है?
अगले दिन उसने सबसे पहले अपने पुराने दस्तावेज़ निकाले – डिग्री, प्रमाणपत्र, पुराने प्रोजेक्ट्स की फाइलें। धूल झाड़ते समय उसकी आँखों में वह चमक लौट आई, जो सालों से गुम थी।
उसने यूट्यूब पर कुछ टेक्निकल वीडियो देखने शुरू किए। बच्चों के स्कूल जाने के बाद दोपहर के तीन घंटे उसने अपने लिए तय किए। शुरू में उसे कई बातें समझ नहीं आईं, लेकिन उसने हार नहीं मानी।
धीरे-धीरे वह ऑनलाइन कोर्स में दाखिल हो गई। हिंदी में सामग्री नहीं मिलने से उसे परेशानी हुई, लेकिन उसने खुद ट्रांसलेट करके पढ़ा। महीनों तक लगातार मेहनत के बाद उसने एक प्रोजेक्ट बनाया और उसे गिटहब पर अपलोड किया। उसके काम की तारीफ़ हुई।
फिर आया वह मोड़, जिसने रीमा की किस्मत बदल दी। एक दिन एक टेक्नोलॉजी कंपनी ने उसके कोड को देखा और उसे एक फ्रीलांस प्रोजेक्ट का ऑफर दिया। यह उसकी पहली कमाई थी – सिर्फ़ चार हज़ार रुपए – लेकिन वह उन पैसों को लेकर रो पड़ी।
उसने बच्चों के लिए कुछ किताबें खरीदीं, अपने लिए एक नया मोबाइल, और पहली बार अपने नाम से बैंक में पैसे जमा किए।
पति राजीव को अब तक कुछ समझ नहीं आ रहा था। लेकिन जब रीमा को दो और कंपनियों से ऑफर आए, और उसने घर बैठे प्रोजेक्ट्स पर काम करना शुरू किया, तब राजीव ने पहली बार ध्यान से रीमा की आँखों में देखा।
“तुम अब भी वही हो,” उसने कहा – “वो जो कभी मुझे अपने कॉलेज में हरा दिया करती थी।”
रीमा मुस्कराई – लेकिन इस बार वह मुस्कान केवल चेहरे तक नहीं रुकी – वह उसकी आत्मा से आई थी।
अब रीमा हफ्ते में दो वेबिनार लेती है, नई महिलाओं को सिखाती है कि घरेलू जीवन में खो जाना ज़रूरी नहीं, अपनी पहचान फिर से पाना संभव है। उसके मोहल्ले की लड़कियाँ अब उससे सलाह लेने आती हैं।
एक दिन उसी खिड़की के पास बैठी रीमा ने अपनी पुरानी डायरी निकाली और लिखा – “यह खिड़की अब सिर्फ़ बाहर की हवा नहीं लाती – यह अंदर की आग को भी हवा देती है।”
रीमा की कहानी सिर्फ़ एक महिला की नहीं है। यह हर उस स्त्री की आवाज़ है, जिसे कभी चुप करा दिया गया, लेकिन जिसने फिर बोलना सीखा, और अपने जीवन के बंद दरवाज़े को फिर से खोला।
समाप्त
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