निर्वाण की छाया
जीवन और मृत्यु के बीच का मौन
हम मृत्यु से डरते हैं, पर क्या कभी हमने उसकी छाया में शांति खोजी है? क्या मृत्यु का अनुभव ही परम सत्य की ओर एक द्वार नहीं है? ‘निर्वाण की छाया’ एक अत्यंत गहन और अनूठी आध्यात्मिक कथा है, जहाँ एक व्यक्ति अपने जीवन के अंतिम क्षणों में ऐसी अनुभूति से गुजरता है जो उसे स्वयं से, मृत्यु से, और ब्रह्म से एकाकार कर देती है। यह एक ऐसी यात्रा है जहाँ जीवन का अंत नहीं होता—बल्कि वास्तविक जीवन वहीं से प्रारंभ होता है।
गिरिराज अवस्थी, एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश, जो अब अस्सी वर्ष की आयु पार कर चुके थे, उत्तरप्रदेश के एक पुराने ऐतिहासिक नगर चित्रकूट के बाहरी हिस्से में अकेले एक पुरानी हवेली में रहते थे। पत्नी का देहांत एक दशक पहले हो चुका था, पुत्र विदेश में था और कभी-कभी ही फोन करता था। जीवन अब केवल पुस्तकें, पुराने वाद्ययंत्र, और खिड़की से आती सूर्य की धीमी किरणों में सिमट चुका था।
गिरिराजजी को समाज में अत्यंत सम्मान प्राप्त था। उनका जीवन एक अनुशासित, सिद्धांतवादी और तर्कप्रिय व्यक्ति का जीवन था। वे मंदिरों में नहीं जाते थे, कर्मकांड को उन्होंने सदैव औपचारिकता माना और आत्मा, पुनर्जन्म, ब्रह्म—इन सब पर तर्क करते हुए जीवन बिता दिया।
परंतु अब जब शरीर धीरे-धीरे शिथिल हो रहा था, साँसें गहराती जा रही थीं, तब उनके भीतर कुछ हिलने लगा था। एक दिन जब वे बिस्तर पर लेटे थे, तो अचानक उन्हें एक अजीब सी अनुभूति हुई—जैसे उनका शरीर दो भागों में विभक्त हो रहा हो—एक हिस्सा जो पीड़ा में था, और एक हिस्सा जो केवल देख रहा था।
उसी क्षण उनके मस्तिष्क में एक स्मृति कौंधी—“क्या यह वही ‘साक्षी भाव’ है जिसके बारे में कभी एक जैन मुनि ने कहा था?”
वह विचार जैसे एक चिनगारी बन गया। उन्होंने तय किया कि अब जो दिन शेष हैं, वे केवल ‘देखने’ में बिताएंगे—ना प्रतिक्रिया, ना निर्णय, ना पछतावा—सिर्फ साक्षी बनकर।
उस दिन से उन्होंने बोलना कम कर दिया। नौकर जब कुछ पूछता, तो इशारे से उत्तर देते। उन्होंने दवाइयाँ लेना भी कम कर दीं। जो होगा, जैसा होगा, स्वीकार होगा।
रातों में अब नींद कम आती। पर नींद की जगह अब मौन ने ले ली थी। बिस्तर पर आँखें बंद किए, वे केवल अपनी साँसों को देखते, शरीर के भीतर उठते विचारों को देखते। कभी भय आता, कभी मृत्यु का आभास, कभी बचपन की यादें, कभी पत्नी का चेहरा।
पर वे अब केवल दर्शक थे।
एक रात, उन्होंने देखा कि शरीर शून्य हो रहा है। न पीड़ा थी, न सुख। और तब पहली बार, एक ऐसा क्षण आया जब उन्होंने स्वयं को शरीर के बाहर देखा—कमरे में, बिस्तर पर पड़े शरीर को, खिड़की के पर्दे को, दीवार पर लगे घड़ी को।
कोई सपना नहीं था यह। वे पूर्ण चेतना में थे। और वहाँ जो था, वह ‘मैं’ नहीं था—वह कोई और था—जो सब कुछ देख रहा था, परंतु पूर्ण शांति में।
फिर धीरे-धीरे चेतना वापस शरीर में लौटी। शरीर भारी था, पर मन निर्विकार। सुबह जब नौकर ने दरवाज़ा खटखटाया, तो उन्होंने पहली बार मुस्कराकर उसे चाय बनाने को कहा। कई वर्षों बाद यह उनकी पहली मुस्कान थी।
अब गिरिराज अवस्थी मौन में थे, पर भीतर कुछ और था—एक प्रकाश, जो हर वस्तु को छूता था। अब उन्हें मृत्यु का भय नहीं था, बल्कि अब वे मृत्यु को अपनी अगली साधना मानते थे। हर दिन वे उसे आमंत्रण देते थे।
एक दिन उन्होंने अपने बेटे को पत्र लिखा—
“बेटा, जीवन में मैंने न्याय दिया, पर कभी मौन को न समझ पाया। अब समझ में आया है कि मौन ही सबसे बड़ा न्याय है। और मृत्यु—वह कोई अंत नहीं, बल्कि आत्मा की अगली गहराई है। मैं उसके स्वागत के लिए तैयार हूँ।”
पत्र भेजने के एक सप्ताह बाद, उनके शरीर ने जवाब देना बंद कर दिया। अब वे पूर्णतः बिस्तर पर थे। डॉक्टरों ने कहा—कुछ ही दिन हैं।
पर उन अंतिम दिनों में, वे आँखें बंद किए, एक शांत मुस्कान के साथ केवल मौन में रहते। उनके चेहरे पर एक ऐसी आभा थी, जो कभी जीवन भर नहीं थी। जो भी मिलने आता, मौन में उनके चरण छूकर चला जाता—कुछ कहे बिना, कुछ सुने बिना।
फिर एक सुबह, सूरज निकलते समय, जब बाहर से पक्षियों की धीमी आवाजें आ रही थीं, गिरिराज अवस्थी ने अपनी अंतिम साँस ली—बिना किसी पीड़ा, बिना किसी भय के।
पर उसी समय, उनके कमरे में उपस्थित नौकर को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कमरे में कोई हल्की उजास फैल गई हो। जैसे कुछ निकला हो और कहीं समा गया हो।
बाद में जब बेटा आया और उनका पुराना संदूक खोला, तो उसमें केवल एक किताब थी—जिसके ऊपर लिखा था—‘निर्वाण की छाया’। और अंदर लिखा था—
“जब मृत्यु आए, तो डरना मत। वह कोई राक्षस नहीं, वह ब्रह्म का द्वार है। जिसने जीवन को मौन से छुआ है, मृत्यु उसे छू नहीं सकती। वह केवल शरीर छोड़ती है, आत्मा नहीं।”
यह कहानी मृत्यु के भय को आत्मा की आँखों से देखने की एक गहन यात्रा है। यह दिखाती है कि निर्वाण कोई हिमालय की गुफाओं में नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु के बीच की उस छाया में छिपा होता है, जिसे केवल मौन की आँखों से देखा जा सकता है।
समाप्त।
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