पत्थर की सौगंध
यह कथा है उस युद्ध की, जिसे जन्म दिया था एक अपमान ने, और अंजाम मिला केवल तब, जब ज़मीन ने इतना रक्त पी लिया कि वह स्वयं काँप उठी। एक सम्राट की प्रतिज्ञा, एक राजकन्या की चुनौती और एक शूरवीर की रणनीति ने रचा इतिहास, जिसमें विजय केवल वीरता से नहीं, बल्कि मूल्य चुकाकर प्राप्त हुई।
भारतीय उपमहाद्वीप के मध्य में स्थित था एक अजेय किला – ‘अश्मगढ़’। काले पत्थरों से बना, गगनचुंबी प्राचीरों से घिरा, और गहराई तक फैले खाई से रक्षित यह किला सदियों से न कभी जीता गया था, न कभी तोड़ा गया। इस दुर्ग का शासक था महाराज महीपाल देव, एक वृद्ध परंतु सुलझा हुआ राजा, जो वर्षों की राजनीति, युद्ध और कूटनीति का अनुभवी था। परंतु उसके राज्य की सबसे मजबूत दीवार वह नहीं थी जो पत्थर की थी – वह थी उसकी पुत्री राजकुमारी अद्विता, जिसकी बुद्धिमत्ता, शब्दों की तेज़ी और सैन्य प्रशिक्षण सारे राज्य की शान बन चुके थे।
अश्मगढ़ की भूमि शांति से जी रही थी, परंतु पूर्व दिशा से उठी एक आँधी ने इस संतुलन को भंग कर दिया। यह आँधी थी ‘शंखराज्य’ के नये सम्राट सैफुद्दीन तुर्क, जो हाल ही में अपने पिता की मृत्यु के बाद सत्ता में आया था। सैफुद्दीन एक बर्बर विजेता था, जिसकी महत्वाकांक्षा अश्मगढ़ की काली दीवारों से टकरा रही थी।
युद्ध का निमंत्रण
सैफुद्दीन ने अश्मगढ़ को पहले प्रस्ताव भेजा — “राजकुमारी अद्विता का विवाह सैफुद्दीन से हो, और अश्मगढ़ का प्रशासन शंखराज्य के अंतर्गत हो जाए।” यह एक अपमानजनक शर्त थी।
जब यह प्रस्ताव अद्विता के समक्ष प्रस्तुत किया गया, तो उसने सभा के समक्ष अपने नाखून से वह प्रस्ताव फाड़ते हुए कहा —
“जिस दिन पत्थर भी आत्मा रखते हैं, उस दिन मेरी देह तुझ जैसे के नाम होगी। तब तक यह अश्मगढ़ पत्थर की सौगंध खाता है – या तो मैं मर जाऊँगी या तुझे मिटा दूँगी।”
सभा स्तब्ध थी, लेकिन वह क्षण इतिहास की दिशा तय कर गया।
युद्ध की तैयारियाँ
महाराज महीपाल ने तुरंत अपने सेनापति भीष्मज्येष्ठ को बुलाया – एक वृद्ध योद्धा जिसने तीस युद्ध लड़े थे, और जिनकी तलवार आज भी लहराती थी। अद्विता को दुर्ग रक्षा की ज़िम्मेदारी दी गई, और गुप्त सुरंगों, खाद्य भंडार, जलकुंडों और शस्त्र भंडारण को युद्धकालीन स्थिति में लाया गया।
शंखराज्य की सेना एक लाख पैदल, चालीस हज़ार घुड़सवार और दो सौ तोपों से सुसज्जित थी। जबकि अश्मगढ़ के पास कुल मिलाकर केवल पैंतीस हज़ार सैनिक थे। परंतु उनका किला, उनकी रणनीति, और उनकी ज़िद्द दुगनी थी।
पहली टक्कर
युद्ध का आरंभ उस दिन हुआ जब शंखराज्य ने दुर्ग के पश्चिमी द्वार पर आक्रमण किया। तोपों की गरज, आग के गोले और लपकते धनुषों ने पूरे आकाश को युद्ध के धुएँ में ढँक दिया।
अद्विता ने स्वयं पश्चिमी बुर्ज से तोपों का संचालन किया। उसके नेतृत्व में धनुर्धारियों ने शत्रु की पहली पंक्तियाँ तहस-नहस कर दीं। जलते तेल के बर्तनों, भारी शिलाखंडों और अग्निबाणों ने सैफुद्दीन की सेना को पहली रात ही पीछे हटने को मजबूर कर दिया।
परंतु यह केवल शुरुआत थी।
सैफुद्दीन का छल
तीसरे सप्ताह में, सैफुद्दीन ने एक विशेष चाल चली — उसने अश्मगढ़ के गुप्त मार्गों की जानकारी एक पूर्व सेवक कमलराव के माध्यम से प्राप्त की। इस जानकारी के बदले उसने कमलराव को ‘पूर्वी सूबेदार’ बनाने का वादा किया था।
कमलराव ने बताया कि एक जलमार्ग जो रक्षकों को अन्न पहुंचाने के लिए उपयोग होता है, उसकी रक्षा कमज़ोर रहती है। उसी रात, शंखराज्य की एक गुप्त टुकड़ी उस मार्ग से किले के भीतर प्रवेश कर गई।
परंतु वे नहीं जानते थे कि अद्विता ने कमलराव को फाँसी से पहले ही पकड़ लिया था, और उससे पूरी योजना उगलवा ली थी।
वह गुप्त टुकड़ी जैसे ही भीतर घुसी, अद्विता की चुनी हुई ‘अग्नितलवार’ महिला सैनिकों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया और उन्हें काट डाला।
अंतिम निर्णायक युद्ध
सैफुद्दीन अब उग्र था। उसने घोषणा की कि “अब मैं केवल किला नहीं, अद्विता का सिर चाहता हूँ।” उसकी सेना ने एक साथ सभी चार द्वारों पर हमला किया। भीष्मज्येष्ठ, जो युद्ध में पहले ही एक हाथ गंवा चुके थे, अब केवल एक तलवार से युद्ध कर रहे थे। अंततः वे रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुए।
महाराज महीपाल को हृदयाघात हो गया। अब पूरा किला अद्विता के नेतृत्व में था।
अंतिम युद्ध पाँच दिनों तक चला। दीवारें टूटीं, तोपें चुप हुईं, खाई में लाशें गिरीं, और किले का हर पत्थर रक्त में डूब गया। अंततः किले का मुख्य द्वार टूट गया, और सैफुद्दीन स्वयं अश्मगढ़ में प्रवेश कर गया।
वह राजप्रासाद की ओर बढ़ा, जहाँ अद्विता एक नंगी तलवार के साथ उसका इंतज़ार कर रही थी।
उन दोनों के बीच भयंकर द्वंद्व हुआ। सैफुद्दीन शक्तिशाली था, परंतु अद्विता ने उसके कंधे पर वार कर उसकी ढाल गिरा दी। जैसे ही सैफुद्दीन ने अंतिम वार करने की कोशिश की, अद्विता ने उसकी छाती में तलवार घोंप दी।
सैफुद्दीन वहीं मर गया — और साथ ही गिरा उसका सपना।
युद्ध के बाद
अद्विता स्वयं घायल थी। परंतु उसने किले के झंडे को फिर से ऊपर चढ़ाया और घोषणा की — “यह किला केवल पत्थरों से नहीं बना, यह रक्त और आत्मा की सौगंध से खड़ा है।”
कमलराव को सार्वजनिक रूप से मृत्युदंड दिया गया, और शंखराज्य की सेना को वापस लौटने दिया गया — उनके साथ संदेश भेजा गया, “अश्मगढ़ को जीतना नहीं, समझना पड़ता है।”
अद्विता ने शासन सँभाला और युद्ध के मैदान को ‘भीष्म क्षेत्र’ घोषित किया। हर वर्ष वहाँ विजय पर्व आयोजित होता, जिसमें अंतिम दिन पत्थरों को जल से धोकर ‘शपथ-स्नान’ कराया जाता — यह प्रतीक था उस पत्थर की सौगंध का, जिसने इतिहास बदल दिया।
यह युद्ध केवल एक किले की रक्षा नहीं थी, यह उस आत्मसम्मान की जंग थी, जो तलवारों से नहीं, बलिदान से जीती जाती है।
समाप्त।
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