परछाइयों का सौदागर
एक सुनसान कस्बे में अचानक अजीब घटनाएँ होने लगती हैं। रात के सन्नाटे में लोगों की परछाइयाँ ग़ायब हो रही थीं, और जिनकी परछाइयाँ ग़ायब होतीं, वे कुछ ही दिनों में मानसिक संतुलन खो बैठते थे। पत्रकार कबीर इस रहस्य की तह तक पहुँचने के लिए कस्बे आता है, लेकिन जो सच वह खोजता है, वो उसकी कल्पनाओं से कहीं अधिक भयावह होता है।
कहानी
ठंडी हवाओं से कांपती रातों में, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कस्बे नीलकुंड की गलियाँ इन दिनों कुछ अजीब अनुभव कर रही थीं। सब कुछ शांत दिखता था — लेकिन यह सन्नाटा असली नहीं था। यह सन्नाटा किसी अनदेखे डर की दस्तक था।
कस्बे के थाने में एक महीने के भीतर पाँच ऐसे केस आए, जिनमें पीड़ितों का कहना था कि उन्हें अपनी परछाई दिखनी बंद हो गई है। कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं, कोई फिज़िकल चोट नहीं — लेकिन मानसिक रूप से वे टूट चुके थे। उनकी आँखें खोखली हो चुकी थीं, जैसे आत्मा कहीं और भटक रही हो।
पत्रकार कबीर वर्मा, जो मेट्रो शहरों में अपनी ख्याति छोड़कर अब जमीनी पत्रकारिता में खुद को फिर से साबित करना चाहता था, ने इस खबर में कुछ ख़ास सूँघा। वह बिना किसी को बताए नीलकुंड आ गया।
पहली रात ही उसे फर्क महसूस हुआ। हवाओं में एक अजीब सी सरसराहट थी, जैसे कोई देख रहा हो। होटल का कमरा तो ठीक था, लेकिन खिड़की के बाहर एक वीरान पेड़ की डाल पर बैठा कौआ लगातार उसकी ओर देखता रहा।
दूसरे दिन कबीर ने उन लोगों से मुलाकात की जिनकी परछाइयाँ ग़ायब हुई थीं। शारदा देवी, जो पहले स्कूल टीचर थीं, अब अपने ही नाम को भूल चुकी थीं। विक्रम सिंह, जो पहले आर्मी में थे, अब दीवार से बातें करते थे। कबीर ने देखा कि इन सभी की आँखों में एक जैसी खालीपन थी। वे कभी-कभी चौंकते हुए कहते — “वो… वो मुझे देख रहा है… उसने मेरी परछाई चुरा ली…”
कबीर ने रात को अकेले कस्बे के पुरानी हवेली की तरफ़ जाने का निश्चय किया, जिसके बारे में कहा जाता था कि वहाँ “परछाइयों का सौदागर” रहता है। किसी को नहीं पता था कि वह असली है या सिर्फ़ एक कहानी।
जैसे ही कबीर हवेली में दाख़िल हुआ, उसे अंदर अजीब सी ठंडक महसूस हुई। हवेली में हर दीवार पर अजीब चित्र बने थे — बिना चेहरों के लोग, अंधेरे में खड़ी परछाइयाँ, और एक चेहरा — जो हर चित्र में दोहराया गया था। यह चेहरा था एक साधु का — आँखें बंद, माथे पर त्रिशूल, और पीछे जलते हुए चक्र।
अचानक हवेली की दीवारों से फुसफुसाहटें शुरू हुईं। कबीर के पास जो कैमरा था, वह अपने-आप ऑन हो गया और उसमें एक वीडियो चलने लगा — एक लड़का, जो बारह साल का होगा, एक बाबा के साथ गुफा में जा रहा था। बाबा कह रहा था — “जिसकी परछाई ले लूँ, उसका मन मेरा… और मन का सौदा, सबसे बड़ा सौदा है…”
कबीर को समझ आ गया था — यह सिर्फ़ मानसिक रोग नहीं, कोई प्राचीन तंत्र क्रिया चल रही थी। परछाइयाँ सिर्फ़ प्रतीक नहीं थीं, वे आत्मा का हिस्सा थीं, और इस सौदागर ने कोई रहस्यमय शक्ति पा ली थी जिससे वह लोगों की परछाइयाँ चुराकर उन्हें मानसिक गुलाम बना सकता था।
कबीर ने अपने संपर्कों से पता लगाया कि कई साल पहले इसी कस्बे में एक साधु को लोगों ने बच्चा चुराने के शक में ज़िंदा जला दिया था। लेकिन मरते समय वह बोला था —
“मैं हर उस मन में लौटूँगा जहाँ अंधेरा हो, जहाँ डर हो, जहाँ खुद से सवाल हों…”
अब यह साधु, जो अब “परछाइयों का सौदागर” बन चुका था, अंधेरे मनों में अपनी सत्ता बसा रहा था। वह हर उस व्यक्ति को पकड़ता था, जो अपने जीवन से टूट चुका हो, जो भय और भ्रम में जी रहा हो।
कबीर जानता था कि वह भी अब उसके निशाने पर है। उसे नींद नहीं आती, उसके सपनों में अब खुद उसकी ही परछाई उसे मारती नज़र आती थी।
लेकिन कबीर ने हार नहीं मानी। उसने एक पुरानी तांत्रिक किताब में पढ़ा था कि परछाई को केवल वही व्यक्ति वापस ला सकता है, जो आत्मचिंतन से अपने डर को जीत ले। एक रात कबीर ने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया, दर्पण के सामने बैठ गया, और मन में चल रहे हर डर से टकराने लगा।
घंटों बाद, जब उसने आँखें खोलीं, तो दर्पण में उसकी परछाई लौटी हुई थी। लेकिन उसका चेहरा हल्का जल चुका था — सौदागर ने आखिरी वार किया था, पर कबीर जीत गया था।
अगले दिन जब वह थाने गया, तो कुछ और लोग भी अपने होश में आ चुके थे। परछाइयाँ वापस आनी शुरू हो गई थीं। हवेली जल चुकी थी — जैसे किसी ने उसे अंदर से आग लगा दी हो।
कबीर ने नीलकुंड छोड़ा, लेकिन जाते-जाते उसकी नोटबुक में एक पंक्ति लिखी थी —
“हम जितना डरते हैं, परछाइयाँ उतनी ही गहरी हो जाती हैं। और जब हम अपने डर से लड़ते हैं, तब सौदागर हार जाता है।”
पर नीलकुंड में अब भी हर अमावस की रात, हवेली के खंडहर से एक धीमी फुसफुसाहट सुनाई देती है —
“मैं फिर लौटूँगा… जब मन अंधेरे से भरे होंगे…”