पेट में गड़गड़ और सपनों का मंच
संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है अतुल्य सक्सेना की — 13 साल का एक लड़का जो हँसी का तूफान है लेकिन स्कूल में अक्सर अपनी हँसी के कारण ही परेशानी में आ जाता है। उसका सबसे बड़ा सपना है: एक दिन ऐसा मंच बनाना जहाँ सभी लोग अपने दिल की बातें खुलकर कह सकें… बिना डरे, बिना झिझके, बिना जजमेंट के। लेकिन उसके स्कूल में “स्मार्टनेस” और “साइलेंस” को ही समझदारी माना जाता है।
एक दिन क्लास में एक हादसा होता है – और उसी से शुरू होती है एक यात्रा, जो अतुल्य को एक छोटे से जोकर की छवि से एक बड़े विचारक की पहचान तक ले जाती है। यह कहानी है हँसी की ताकत की, आत्म-स्वीकार की, और उन किशोरों की, जिनकी ऊर्जा को अक्सर शरारत समझ लिया जाता है।
पहला भाग – जब पेट में गड़गड़ हो तो सब हँसते हैं
अतुल्य सक्सेना को लोग “गड़गड़ बॉय” कहते थे।
वह जब भी क्लास में बैठता, कुछ न कुछ गड़बड़ होती।
कभी उसकी टेबल चरमराती थी, कभी डेस्क का ढक्कन गिरता, कभी अचानक हँसी का ऐसा झटका आता कि शिक्षक तक चौंक जाते।
एक बार विज्ञान की कक्षा में जब सुनंदा मैम चुपचाप ब्लैकबोर्ड पर चित्र बना रही थीं, तब अतुल्य का पेट गड़गड़ करने लगा — और पूरी कक्षा में हँसी की सुनामी आ गई।
मैम ने डाँटा —
“यहाँ कोई कॉमेडी शो नहीं चल रहा!”
लेकिन बच्चों ने उसी दिन से उसे एक नया नाम दिया —
“कॉमेडी करंट”
अतुल्य खुद भी अपनी इस छवि से परेशान नहीं था। वह कहता —
“कम से कम लोग तो हँसते हैं।”
पर माँ कहतीं —
“हँसी अच्छी बात है, लेकिन हर बात का समय होता है बेटा।”
दूसरा भाग – ‘चुप बैठो’ स्कूल का गूंजता नियम
अतुल्य लखनऊ के एक अच्छे अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल में पढ़ता था, जहाँ “अनुशासन” को बहुत गंभीरता से लिया जाता था।
प्रत्येक सप्ताह सोमवार की सभा में डायरेक्टर सर एक ही बात कहते:
“बच्चों, याद रखो, सुनना सबसे बड़ा गुण है। बोलने से पहले सोचना चाहिए।”
अतुल्य सोचता —
“तो क्या हर बात पर चुप रहना ही समझदारी है?”
उसे बोलना अच्छा लगता था।
कभी मज़ाक में, कभी कविता में, कभी किसी दोस्त को खुश करने के लिए।
एक बार उसने सभा में अपने मन से एक कविता पढ़ दी —
“शांत बच्चे अच्छे होते हैं, पर चुप बच्चे नहीं।”
उसे चेतावनी मिली।
पर उसके भीतर की आग बुझी नहीं।
तीसरा भाग – जब गलती सबसे बड़ा मोड़ बनती है
एक दिन हिंदी की कक्षा चल रही थी।
शिक्षक ने कहा —
“आज सबको ‘सार्वजनिक बोलने’ पर एक पैराग्राफ लिखना है।”
बच्चे लिखने लगे।
अतुल्य के दिमाग में एक नया आइडिया आया।
उसने पैराग्राफ में लिखा:
“मैं एक ऐसा मंच बनाना चाहता हूँ जहाँ कोई भी बच्चा अपने विचार कह सके। बिना डाँट, बिना शर्म, बिना जजमेंट के।”
शिक्षक ने पढ़ा, मुस्कराया, लेकिन बोले कुछ नहीं।
पर उसी दिन, लंच के बाद, कक्षा में अचानक हँसी की गूंज हुई।
अतुल्य ने फिसलते हुए फर्श पर लुड़क कर कहा —
“मंच चाहिए तो शुरुआत यहीं से कर लो!”
बच्चे हँसे, लेकिन शिक्षक नाराज़ हो गए।
उसे डिसिप्लिन कमेटी के सामने पेश किया गया।
चौथा भाग – उम्मीद का एक दरवाज़ा
डिसिप्लिन कमेटी में मीनाक्षी मिश्रा मैम थीं — एक शांत लेकिन गहराई से समझने वाली शिक्षिका।
उन्होंने अतुल्य से पूछा —
“तुम हमेशा सबको हँसाने की कोशिश क्यों करते हो?”
उसने कहा —
“क्योंकि मुझे डर लगता है कि अगर सब चुप हो गए, तो हम सब कुछ खो देंगे।”
मीनाक्षी मैम ने सिर हिलाया।
“तुम मंच चाहते हो? फिर बनाओ। लेकिन शर्त है — वहाँ शरारत नहीं, सच्चाई होगी। वहाँ हँसी होगी, लेकिन मज़ाक नहीं। वहाँ तुम बोलोगे, लेकिन सोचकर।”
अतुल्य के भीतर जैसे किसी ने आग जला दी।
पाँचवाँ भाग – ‘बोलो मंच’ की शुरुआत
अगले सप्ताह स्कूल की सभा में मीनाक्षी मैम ने घोषणा की —
“अब से हर शुक्रवार को लंच के बाद 20 मिनट का विशेष सत्र होगा — नाम होगा: ‘बोलो मंच’। यहाँ कोई भी छात्र अपनी बात, विचार, कहानी या कविता कह सकता है।”
पहले दिन मंच पर कोई नहीं गया।
फिर अतुल्य गया —
उसने कहा —
“मुझे बोलने दो। मैं डर को हँसी में बदलना चाहता हूँ।”
उसने अपनी एक कहानी सुनाई —
“पेट में गड़गड़ से शुरू हुई मेरी यात्रा”
पूरी सभा ने तालियाँ बजाईं।
धीरे-धीरे दूसरे छात्र भी आए — किसी ने डिप्रेशन पर बात की, किसी ने अपने डर बताए, किसी ने माता-पिता की लड़ाइयों के बीच खोई नींद का ज़िक्र किया।
‘बोलो मंच’ धीरे-धीरे स्कूल की सबसे ताक़तवर जगह बन गया —
जहाँ न कोई पास, न फेल। सिर्फ सुनना और समझना।
छठा भाग – पहचान, जिसे तालियों से नहीं, विश्वास से मापा गया
अतुल्य अब ‘गड़गड़ बॉय’ नहीं रहा।
वह मंच का संयोजक बना — बच्चों की कहानियाँ सुनता, उन्हें नोट्स देता, उन्हें प्रोत्साहित करता।
मीनाक्षी मैम ने उससे कहा —
“तुमने हँसी से शुरुआत की, और अब तुमने संवेदनशीलता की भाषा सिखा दी है।”
एक दिन अतुल्य की माँ स्कूल आईं।
वो बहुत भावुक थीं।
उन्होंने कहा —
“मुझे डर था कि मेरी संजीदा दुनिया में ये लड़का गड़बड़ करेगा… पर इसने तो सबका मन जीत लिया।”
अंतिम भाग – मंच अब मन बन गया
अब स्कूल की डायरी में हर सप्ताह ‘बोलो मंच’ का कॉलम छपता है।
वहाँ बच्चों की असली आवाज़ होती है —
बिना संपादन, बिना रोक-टोक।
अतुल्य ने अपनी डायरी में एक पंक्ति लिखी —
“अब हँसी मेरा हथियार नहीं, मेरी भाषा है। और मेरा मंच, अब मेरी आत्मा का दर्पण बन गया है।”
समाप्त