पेड़ों वाली गर्मियाँ
संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है 14 वर्षीय श्रेयांश दुबे की, जो मुंबई में रहते हुए अपने गर्मी की छुट्टियाँ बिताने जाता है अपने नाना-नानी के गाँव मधुपुर। एक ऐसा गाँव जहाँ इंटरनेट धीमा है, सड़कों पर धूल उड़ती है, और शाम को बिजली चली जाती है। लेकिन वहीँ शुरू होती है एक रोमांचक यात्रा — मिट्टी में खेलने की, पुराने कुओं की, आम के बाग की, नई दोस्ती की और सबसे बढ़कर — अपने भीतर छिपी उस सहज मुस्कान को खोजने की जो शहरी जीवन की भीड़ में कहीं गुम हो गई थी।
‘पेड़ों वाली गर्मियाँ’ एक सकारात्मक, खुशनुमा, और आत्मिक अनुभव से भरी कहानी है, जो हर किशोर को यह एहसास दिलाती है कि कभी-कभी फोन से दूर, मिट्टी के पास, एक सच्ची ज़िंदगी मुस्कुरा रही होती है।
पहला भाग – मुंबई की खिड़की और गर्मी की ऊब
श्रेयांश दुबे, कक्षा 9 का छात्र, मुंबई के अंधेरी इलाके में रहता था। गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हो चुकी थीं, और बाहर तापमान 40 डिग्री को छू रहा था।
वह पूरे दिन मोबाइल फोन में रील्स देखता, ऑनलाइन गेम खेलता, और सोशल मीडिया पर स्क्रॉल करता रहता।
“इतनी गर्मी में कहीं जाने का मन नहीं करता माँ,” उसने कहा।
माँ ने मुस्कराते हुए कहा —
“इसीलिए तो नाना जी का फोन आया है — मधुपुर बुला रहे हैं। जाओगे?”
“गाँव? वहाँ तो नेटवर्क भी नहीं आता माँ!”
पापा ने कहा —
“बेटा, एक बार हवा तो ले लो वहाँ की। असली गर्मी वहीं समझ में आती है।”
अनमने मन से श्रेयांश तैयार हुआ। ट्रेन पकड़ी और पहुँचा मधुपुर — जहाँ न कोई मॉल था, न पिज़्ज़ा, और न ही तेज़ इंटरनेट।
दूसरा भाग – नाना की साइकिल और मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू
गाँव के पहले दिन ही सुबह पाँच बजे नाना जी ने श्रेयांश को उठाया।
“चलो, खेत दिखाते हैं।”
“अभी?” आँखें मिचमिचाते हुए वह बोला।
नाना ने कहा —
“यहाँ सूरज भी समय पर उठता है।”
वो दोहरी सीट वाली साइकिल पर सवार होकर खेतों तक पहुँचे। वहाँ टपक सिंचाई की आवाज़ थी, हवा में आम के फूलों की खुशबू थी, और मिट्टी पैरों में चिपक रही थी।
“ये देखो, तुम्हारी माँ इसी पेड़ पर चढ़ती थी,” नाना बोले।
श्रेयांश को यक़ीन नहीं हुआ — जो माँ हमेशा सफाई और फोन की बात करती हैं, वो पेड़ पर चढ़ती थीं?
शाम को नानी ने सत्तू और गुड़ का घोल पिलाया — उसके चेहरे पर पहली बार मुस्कान आई।
तीसरा भाग – तैराकी, पकौड़े और पहली दोस्ती
गाँव के तीसरे दिन नाना ने कहा —
“आज कुएँ पर चलो।”
कुएँ पर पहले से कुछ लड़के नहा रहे थे, तैर रहे थे, कूद रहे थे।
एक दुबला-पतला लड़का मुस्कराकर बोला —
“तुम शहर से आए हो ना? चलो, तैरना सीखो!”
उसका नाम था राजन — गांव के स्कूल का सबसे तेज़ धावक और बड़ा मस्तीखोर।
शुरू में श्रेयांश डरा, लेकिन फिर धीरे-धीरे पानी में उतर गया।
राजन ने उसे तैरना सिखाया, कूदने की तरकीब बताई।
शाम को सब नहाकर लौटे, और चाय के साथ प्याज़ के पकौड़े खाए।
उस दिन पहली बार श्रेयांश को फोन की याद नहीं आई।
चौथा भाग – पेड़ पर बनाया गया गुप्त अड्डा
राजन और श्रेयांश ने आम के बाग के बीच एक बड़ा सा बरगद का पेड़ चुना।
“यह हमारा अड्डा होगा,” राजन बोला।
वे पेड़ पर चढ़ते, लकड़ी बाँधकर एक छोटा-सा मंच बनाते। वहाँ एक टीन का डिब्बा रखा — जिसमें रखा गया था पेन, कागज़, पटाखे, पतंग, और आम के अचार का बोतल।
उन्होंने उस मंच का नाम रखा — “गर्मी स्पेशल क्लब”
हर दोपहर वहाँ बैठकर नई योजनाएं बनतीं — मछली पकड़ना, भूतों की कहानियाँ, पानी की रेस, और मिट्टी की किलेबंदी।
शाम को राजन बोला —
“जब तू मुंबई लौटेगा, तेरे पास ऐसा कोई अड्डा होगा क्या?”
श्रेयांश सोचने लगा — सच में, इतना मज़ा तो कभी मोबाइल में नहीं आया था।
पाँचवां भाग – गाँव का मेला और ढोल की धुन
अगले हफ़्ते गाँव में सावन मेला लगा।
चारों ओर रंगीन झंडियाँ, झूले, गुब्बारे और देसी मिठाइयाँ।
श्रेयांश, राजन और बाकी बच्चों ने मिलकर एक “खिलौना विक्रय स्टॉल” लगाया।
पुरानी चप्पलों से बनी गुड़िया, मिट्टी से बने सांड, और पत्तों की टोपी — सब उन्हीं के हाथों से बनी थीं।
लोग हँसते हुए खरीद रहे थे — “शहर वाले बच्चों का हुनर देखो!”
मंच पर नाच-गाना हुआ — राजन ने ढोल बजाया और श्रेयांश ने पहली बार फगुआ गीत गाया।
पता ही नहीं चला, कब सूरज डूबा, चाँद चढ़ा और पूरी गर्मी की थकान कहीं उड़ गई।
छठा भाग – आखिरी दिन और आँखें नम
छुट्टियाँ समाप्त होने लगीं।
श्रेयांश के बैग में अब पेंसिल बॉक्स की जगह आम के अचार, मिट्टी की गुड़िया और राजन द्वारा दी गई एक फोटो थी — जिसमें दोनों पेड़ के ऊपर बैठे मुस्करा रहे थे।
राजन बोला —
“मुझे तेरा नंबर नहीं चाहिए। हर साल गर्मी में तुझे आना होगा। यही वादा कर।”
श्रेयांश ने हाथ मिलाया और कहा —
“अबकी बार जब मैं आऊँगा, तो हम गुप्त क्लब का झूला भी लगाएंगे!”
स्टेशन तक नाना-नानी, राजन और मोहल्ले के बच्चे आए। ट्रेन चली, और श्रेयांश की आँखें नम थीं।
पर चेहरे पर वो मुस्कान थी — जो मोबाइल की स्क्रीन कभी नहीं दे सकी।
अंतिम भाग – फिर वही मुंबई, लेकिन नया श्रेयांश
अब श्रेयांश मुंबई लौट आया था।
माँ ने देखा — वो अब ज़्यादा बाहर खेलता है, फोन कम पकड़ता है, और मिट्टी से डरता नहीं।
उसने अपनी बिल्डिंग की छत पर “नीम क्लब” बनाया है — जहाँ बच्चों के लिए टेराकोटा वर्कशॉप, किताबों की अदला-बदली, और कहानियों की शामें होती हैं।
उसने लिखा —
“सपने देखने के लिए तेज़ इंटरनेट नहीं, खुला आसमान चाहिए।”
हर साल वह अब मधुपुर जाता है। वही पेड़, वही आम, वही राजन — और वही मुस्कराहट उसे फिर जिंदा कर देती है।
समाप्त