बोर्डिंग स्कूल के बहाने
संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है 15 वर्षीय अर्णव राठौड़ की, जिसे पढ़ाई में सुधार लाने के लिए उसके माता-पिता ने शिमला के एक पुराने बोर्डिंग स्कूल हिमाद्रि इंटरनेशनल में भेज दिया। अर्णव को लगता है कि यह उसकी आज़ादी का अंत है — पर वह नहीं जानता कि यहीं से उसकी ज़िंदगी की असली शुरुआत होने वाली है।
इस बोर्डिंग स्कूल में उसे मिलते हैं नए दोस्त, अलग-अलग स्वभाव वाले शिक्षक, चुनौतियाँ, दोस्ती, हार, जीत और वह सब कुछ जो उसे भीतर से मज़बूत बनाता है।
‘बोर्डिंग स्कूल के बहाने’ एक प्रेरणात्मक, खुशमिज़ाज, रोचक और बेहद आत्मीय किशोर कथा है, जो यह दिखाती है कि जब हम घर से दूर होते हैं, तब हम अपने असली घर और अपने असली आत्मविश्वास को खोजते हैं।
पहला भाग – जब ट्रॉली बैग पीछे छूट गया
अर्णव राठौड़, दिल्ली के पश्चिम विहार क्षेत्र में रहने वाला एक आम किशोर था — वीडियो गेम का दीवाना, होमवर्क का दुश्मन और सुबह की कक्षाओं का नींद में बहता यात्री।
उसके माता-पिता को जब स्कूल से शिकायतें आनी शुरू हुईं — “ध्यान नहीं देता”, “अभद्र व्यवहार”, “हर बार नकल की कोशिश” — तो उन्होंने निर्णय लिया कि अब कुछ सख्ती ज़रूरी है।
और ऐसे आया एक फोन कॉल —
“हिमाद्रि इंटरनेशनल बोर्डिंग स्कूल, शिमला — प्रवेश प्रक्रिया प्रारंभ…”
अर्णव को लगा जैसे उसे जेल भेजा जा रहा हो।
“मुझे नहीं जाना,” उसने चीखते हुए कहा।
“मुझे सजा मिल रही है।”
माँ ने आँसू छुपाते हुए कहा —
“सजा नहीं बेटा, शायद नया रास्ता है।”
दूसरा भाग – पहाड़ों में बसा अनुशासन
हिमाद्रि स्कूल, एक शताब्दी पुराना संस्थान था। चीड और देवदार के बीच, ऊँचाई पर बसा एक परिसर — जहाँ हर सुबह की शुरुआत ध्वज वंदन से होती थी और हर शाम लाइब्रेरी प्रार्थना से।
पहले ही दिन, अर्णव को उसके छात्रावास के कमरे में भेजा गया।
कमरा नंबर 16, जिसमें पहले से दो छात्र थे — रितिक बनर्जी और सागर तलवार।
रितिक — पढ़ाकू, अनुशासनप्रिय और क्लास मॉनिटर।
सागर — संगीत का दीवाना, थोड़ा लापरवाह लेकिन बड़ा दिलवाला।
अर्णव ने उन्हें देखकर सोचा —
“ये लोग तो बहुत सीधे हैं… मेरी दुनिया अलग है।”
पर वक़्त को क्या पता, कौन कब किसका हिस्सा बन जाए।
तीसरा भाग – हॉस्टल की पहली रात
पहली रात अर्णव सो नहीं पाया। माँ की याद, अपने पालतू कुत्ते जैकी की आवाज़, और दिल्ली की सड़क की चहल-पहल — सब उसे सताने लगी।
सागर ने धीरे से पूछा —
“घर की याद आ रही है?”
अर्णव ने सिर हिलाया।
रितिक ने अपनी अलमारी से एक छोटा फोटो फ्रेम निकाला — उसमें उसकी माँ की तस्वीर थी।
“हर कोई पहले हफ्ते रोता है दोस्त,” वह बोला।
“लेकिन फिर यहीं घर बन जाता है।”
अर्णव को समझ नहीं आया, पर उस रात वह थोड़ा सा मुस्कराया।
चौथा भाग – जीवन के नियम और लंगर की चाय
बोर्डिंग स्कूल का नियम सख़्त था —
सुबह 5:30 उठो, 6 बजे एक्सरसाइज, फिर नाश्ता, और समयबद्ध पढ़ाई।
अर्णव को शुरुआत में बहुत मुश्किल लगा —
“इतनी जल्दी क्यों उठते हैं सब?”
“हर बार चाय में इलायची क्यों होती है?”
“कपड़े खुद क्यों धोने पड़ते हैं?”
लेकिन धीरे-धीरे उसे यह जीवन भी रोचक लगने लगा।
खासकर जब उसने ‘स्वतंत्र अभ्यास पीरियड’ में अपने लिए कॉमिक्स पढ़ने का समय चुरा लिया।
शाम को जब सब कैंटीन की चाय और बुंदिया-बनाना समोसा खाते, तो दोस्ती गहराती जाती।
वहीं बैठते हुए एक दिन अर्णव बोला —
“तुम सब मुझे अच्छे लगने लगे हो।”
सागर हँसा —
“बस चाय की मेहरबानी है।”
पाँचवां भाग – जब हार से दोस्ती होती है
एक महीने बाद, स्कूल में वार्षिक खेल प्रतियोगिता होने वाली थी।
अर्णव ने तय किया — बास्केटबॉल टीम में चुना जाना है।
पर उसकी फिटनेस अच्छी नहीं थी। वह जल्दी थक जाता था।
रितिक ने कहा —
“मैं तेरी प्रैक्टिस में मदद करूँगा।”
सागर ने कहा —
“मेरे पास एक फिटनेस प्लेलिस्ट है, चलो दौड़ने चलते हैं।”
सप्ताह भर की मेहनत, कड़ी ट्रेनिंग और ठंडी हवा में भागदौड़ — लेकिन अंतिम चयन में अर्णव का नाम नहीं आया।
वह चुपचाप बैठा रहा।
प्रिय अध्यापक राजेंद्र सर ने पास बैठकर कहा —
“बेटा, हार तुम्हारी कमज़ोरी नहीं, तुम्हारी पहली परीक्षा थी। तुम उस परीक्षा में पास हुए, क्योंकि तुमने पहली बार खुद को गम्भीरता से लिया।”
अर्णव को लगा कि हार से बड़ा गुरु कोई नहीं।
छठा भाग – जब पहाड़ दोस्त बनते हैं
स्कूल ने एक शैक्षणिक ट्रिप आयोजित की — नारकंडा ट्रेकिंग अभियान।
उत्साह में पूरी कक्षा जा रही थी — अर्णव, रितिक, सागर और अब उनकी नयी दोस्त वैष्णवी जोशी, जो पहली बार अर्णव को देखकर बोली थी —
“तुम्हारे पास सवाल बहुत हैं, जवाब कम।”
पहाड़ों की चढ़ाई, झरनों की ठंडी बूँदें, और कैंप फायर की कहानियाँ — अर्णव को जीवन की नमी और गर्माहट दोनों महसूस होने लगी।
वहाँ एक शाम, जब वह अकेला बैठा था, रितिक ने उसकी डायरी उठाई।
उसमें लिखा था —
“शुरुआत में मुझे लगा यह सज़ा है, पर अब लगता है ये तो मेरी सबसे बड़ी पहचान बन रही है।”
सातवाँ भाग – बदलता अर्णव और सच्चा आत्मविश्वास
तीन महीने बाद जब अर्णव पहली बार घर गया —
माँ ने पूछा, “बेटा, तुझे कैसा लग रहा है वहाँ?”
अर्णव बोला —
“माँ, वहाँ अब मेरा कमरा है, मेरे दोस्त हैं, और मेरी सुबहें हैं।”
पापा ने आश्चर्य से देखा —
“कौन है ये बच्चा जो समय से उठता है, किताबें पढ़ता है और बातें करता है जैसे ज़िम्मेदारी उसकी दोस्त हो?”
स्कूल लौटकर अर्णव ने हर गतिविधि में भाग लेना शुरू किया —
लेखन प्रतियोगिता, हाउस डेकोरेशन, सांस्कृतिक मंच संचालन, और सबसे बड़ी बात —
अब वह स्कूल मैगज़ीन का सह-संपादक बन चुका था।
अंतिम भाग – जब बोर्डिंग स्कूल बना दूसरा घर
वार्षिक उत्सव के मंच से अर्णव ने भाषण दिया —
“मैं यहाँ मजबूरी में आया था। पर अब लगता है, हर किशोर को ऐसे जीवन का एक हिस्सा ज़रूर जीना चाहिए। जहाँ कपड़े खुद धोने पड़ें, अलार्म खुद बजाना पड़े, और दोस्ती अपने आप बने।”
पूरा ऑडिटोरियम तालियों से गूंज गया।
वह मंच छोड़कर नीचे आया तो रितिक, सागर, वैष्णवी — सबने उसे गले लगा लिया।
और अर्णव ने अपने बैग की जेब से वही पुरानी डायरी निकाली —
अब उसमें अंतिम पंक्ति जुड़ चुकी थी —
“बोर्डिंग स्कूल के बहाने मैंने खुद से मिलना सीखा।”
समाप्त
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