बोलती खिड़की
संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है तृषा ठाकुर की — एक 15 वर्षीय तेज़-तर्रार और कल्पनाशील लड़की, जो भोपाल के एक सरकारी स्कूल में पढ़ती है। तृषा पढ़ाई में होशियार है, पर अंदर से बहुत अकेली महसूस करती है। उसके माता-पिता काम में व्यस्त रहते हैं, स्कूल में दोस्ती निभ नहीं पाती, और उसकी सारी बातें उसके कमरे की खिड़की तक सीमित रह जाती हैं — एक पुरानी लकड़ी की खिड़की, जिसके बाहर फैला है एक बड़ा पीपल का पेड़ और उसकी ऊँचाई जितना खुला आकाश। तृषा अक्सर खिड़की से बातें करती है — अपने सपने, डर, शिकायतें सब उसी से कहती है।
लेकिन एक दिन वही खिड़की उसे एक अनजाने संवाद की ओर ले जाती है — जब सामने वाली इमारत में नया परिवार आता है, और उनके बेटे विवेक से उसकी नज़रें टकराती हैं।
धीरे-धीरे खिड़की सिर्फ दीवार का हिस्सा नहीं रह जाती, वह तृषा के जीवन की सबसे प्यारी और सच्ची दोस्त बन जाती है — जो उसे सिखाती है कि दोस्ती दीवारों से नहीं, दिलों से बनती है।
‘बोलती खिड़की’ एक मुस्कराहट से भरी, प्रेरणास्पद और किशोर मन को छूने वाली कहानी है, जो यह दर्शाती है कि समझ, अपनापन और संवाद हमें वहीं मिल सकता है जहाँ हम उम्मीद least करते हैं।
पहला भाग – चुप सी एक लड़की
तृषा भोपाल के टी.टी. नगर की एक पुरानी चार मंज़िला इमारत में अपने माता-पिता और छोटे भाई सुदीप के साथ रहती थी। उसका कमरा कोने में था — जहाँ एक बड़ी लकड़ी की खिड़की खुलती थी, जिसमें बाहर का नज़ारा साफ़ दिखता।
वो खिड़की उसकी दुनिया थी।
कभी स्कूल से आने के बाद वह वही बैठकर आकाश देखती, कभी चिड़ियों को गिनती, कभी पीपल के पत्तों को देखकर चेहरे बनाने की कोशिश करती।
माँ रोज़ शाम को कहतीं —
“कुछ पढ़ भी लिया कर, खिड़की को ताकते रहने से बोर्ड की परीक्षा पास नहीं होती!”
पर तृषा जानती थी —
उसकी खिड़की उसे सिर्फ दृश्य नहीं देती, संवाद भी देती है।
वहीं बैठकर उसने अपनी पहली कविता लिखी थी —
“एक पत्ता गिरा खामोशी से,
जैसे कोई बात कहे बिना चली गई हो…”
दूसरा भाग – सामने वाली खिड़की
एक दिन वह बैठी थी — तभी सामने वाली इमारत में हलचल दिखी। नया परिवार आ रहा था। सामान उतारा जा रहा था, और बीच में एक लड़का बार-बार मोबाइल से तस्वीरें खींच रहा था।
तृषा ने धीरे से मुस्कराकर सोचा —
“शहर नए, लोग नए, पर खिड़कियाँ वही पुरानी!”
दूसरे दिन उस लड़के ने उसकी खिड़की की ओर देखा। वह कुछ पल देखता रहा, फिर कैमरा नीचे रख दिया और हाथ हिलाया।
तृषा ने चौंककर पर्दा गिरा दिया।
लेकिन उसकी मुस्कान छिप नहीं पाई।
तीसरा भाग – चिट्ठियाँ हवा में
कई दिन बीते। अब जब भी तृषा खिड़की पर बैठती, सामने वाला लड़का — विवेक — कैमरे में क्लिक नहीं करता, बल्कि किताब पढ़ता हुआ बैठता।
एक दिन खिड़की पर एक कागज़ लहराया —
“क्या तुम्हें भी पेड़ की टहनियाँ रात में डरावनी लगती हैं?”
तृषा ने आँखें फाड़ दीं। क्या सामने वाला लड़का उससे बात कर रहा है?
उसने धीरे से एक पेंसिल ली और लिखा —
“नहीं, मुझे वो रात के सितारे छूती लगती हैं।”
उसके बाद चिट्ठियों का सिलसिला शुरू हो गया —
हर दिन एक नई पर्ची, हर दिन एक नया सवाल।
“तुम किस विषय में सबसे कमज़ोर हो?”
“क्या तुम कभी ज़ोर से हँसना चाहती हो, बिना वजह के?”
“अगर आकाश को छू सकते, तो सबसे पहला सपना क्या देते?”
तृषा जवाब देती — कभी सीधा, कभी कविता में।
अब खिड़की बोलने लगी थी।
चौथा भाग – स्कूल की सच्चाइयाँ
तृषा स्कूल में बहुत समझदार मानी जाती थी, लेकिन उसका कोई ख़ास दोस्त नहीं था।
कई बार वह लंच अकेले खाती, खेल के समय लाइब्रेरी चली जाती।
क्लास की एक लड़की अनन्या अक्सर कहती —
“ये हमेशा अकेली रहती है, ज़रूर कुछ अजीब है।”
एक दिन तृषा ने चिट्ठी में लिखा —
“क्या तुम भी अकेलापन महसूस करते हो?”
विवेक का जवाब आया —
“हाँ, पर अब थोड़ा कम… शायद तुम्हारे कारण।”
वो जवाब तृषा ने देर तक पढ़ा, फिर अपनी डायरी में लिखा —
“अकेलेपन को जब शब्द मिलते हैं, तो वो दोस्ती में बदल जाता है।”
पाँचवाँ भाग – संवाद से विश्वास
धीरे-धीरे विवेक और तृषा अब आमने-सामने भी मुस्कराने लगे।
अब वे चिट्ठियों में सिर्फ सवाल नहीं, दिनभर की बातें भी साझा करते।
“आज मैथ्स में शाबाशी मिली।”
“मैंने माँ की मदद से ब्रेड पकोड़े बनाए।”
“कल चिड़िया ने खिड़की पर बीट कर दी!”
तृषा ने अपने कमरे की दीवारों पर चिट्ठियों की एक पट्टी बना ली —
“मेरी बातों की दीवार”।
माँ ने देखा तो पूछा —
“किससे बातें करती है तू इन पर्चियों में?”
तृषा ने पहली बार कहा —
“खिड़की से… और खिड़की के पार किसी ऐसे से जो सुनता है।”
माँ मुस्कराईं —
“अच्छा है बेटा, शब्दों को पंख मिलें।”
छठा भाग – कुछ खोने का डर
एक दिन अचानक विवेक कई दिन खिड़की पर नहीं दिखा।
तृषा बेचैन हो गई। उसने तीन चिट्ठियाँ भेजीं — कोई जवाब नहीं।
उसने खुद से कहा —
“शायद वे वापस चले गए। या शायद सब कुछ सपना था।”
चौथे दिन शाम को खिड़की पर एक किताब लटकी थी — “तृषा — अंतिम चिट्ठी नहीं, नई शुरुआत।”
अंदर लिखा था —
“मैं हॉस्पिटल में था, थोड़ा बीमार था। पर अब ठीक हूँ। और हाँ, मैं गया नहीं हूँ, क्योंकि इस खिड़की से जुड़ी मेरी सबसे प्यारी दोस्त अब यहीं रहती है।”
तृषा की आँखें भर आईं —
पर चेहरा फिर मुस्कराया।
अंतिम भाग – ज़िंदगी की खुलती खिड़की
अब तृषा ने स्कूल में भी बदलाव दिखाना शुरू किया —
वह लंच ब्रेक में श्रेया और अनन्या के पास बैठने लगी, लाइब्रेरी में किताबें साझा करने लगी।
उसने एक नया ब्लॉग शुरू किया — “खिड़की के पार”, जिसमें वह रोज़ एक नई चिट्ठी लिखती — कल्पना, संवाद और खुशियों से भरी।
माँ ने कहा —
“तू अब पहले से ज़्यादा हल्की और चमकदार लगती है।”
पापा ने उसके ब्लॉग को पढ़कर कहा —
“हमारी बेटी में लेखक बनने की चमक है।”
तृषा ने खिड़की पर बैठते हुए आकाश की ओर देखा —
“तूने मुझे मेरी आवाज़ लौटा दी… अब मैं सिर्फ देखती नहीं, कहती भी हूँ।”
समाप्त