मन का आईना
सारांश:
यह कहानी है काशीपुर के एक निर्धन लेकिन विद्वान शिक्षक ‘आचार्य माधवन’ की, जिनका जीवन केवल ज्ञान और ईमान पर आधारित था। जब समाज में झूठ, आडंबर और दिखावे की दीवारें ऊँची होने लगीं, तब माधवन अपने एक असामान्य निर्णय से सबको चौंकाते हैं। यह कथा बताती है कि आत्मा का आईना कभी धुंधला नहीं होता, यदि हम उसमें सच्चाई का दीप जलाए रखें।
कहानी:
काशीपुर, गंगा के किनारे बसा एक पुराना नगर था, जहाँ मंदिरों की घंटियाँ और वेदों की ध्वनि आज भी सुबह की हवा में घुली रहती थी। उसी नगर में रहते थे – आचार्य माधवन। सफेद धोती, चश्मे के पीछे चमकती आँखें, और हाथ में सदा एक पुस्तक। वे नगर के विद्यालय में संस्कृत पढ़ाते थे, और रात में मोहल्ले के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देते थे।
माधवन का जीवन बहुत साधारण था – टूटी सीढ़ियों वाला मकान, एक पुरानी साइकिल और महीने के अंत में बचने वाले कुछ पैसे। लेकिन उनका आत्मबल – अद्वितीय। वे अपने छात्रों से कहते,
“सच्चा मनुष्य वह है जो खुद को धोखा न दे। बाकी दुनिया तो भ्रम है।”
काशीपुर में हर साल “विद्या रत्न पुरस्कार” दिया जाता था, जिसमें शिक्षकों के योगदान को सम्मानित किया जाता। इस बार पुरस्कार की समिति में नगर के नव-निर्वाचित विधायक भी शामिल थे – श्री लक्ष्मीप्रसाद। उनका नियम था – “जो मुझे भेंट देगा, वही विजेता बनेगा।”
विद्यालय के प्रधानाचार्य ने माधवन को बुलाया –
“आचार्य जी, आप इस बार के सबसे योग्य उम्मीदवार हैं। लेकिन कुछ ‘औपचारिकताएँ’ हैं। यदि आप मंत्री जी को थोड़ी-सी भेंट दे दें, तो पुरस्कार सुनिश्चित है।”
माधवन मुस्कराए, “ज्ञान और भेंट में क्या संबंध? क्या मैं अपने सिद्धांत गिरवी रख दूँ पुरस्कार के लिए?”
प्रधानाचार्य ने झेंपते हुए कहा, “दुनिया अब आदर्शों से नहीं चलती। थोड़ी चतुराई ज़रूरी है।”
माधवन ने उत्तर दिया, “सत्य की आँखें चतुराई से नहीं, संकल्प से खुलती हैं।”
अगले सप्ताह पुरस्कार समारोह हुआ। नाम घोषित हुआ – “विद्या रत्न – श्रीमती काव्या देसाई।” वे एक निजी स्कूल की शिक्षिका थीं, जिन्होंने हाल ही में एक मोटिवेशनल किताब लिखी थी और मंत्री जी को विशेष भेंट भेजी थी।
समस्त विद्यालय आश्चर्यचकित था। कई छात्रों और अभिभावकों ने विरोध जताया, लेकिन सब व्यर्थ गया।
माधवन शांत थे। उन्होंने न तो पुरस्कार पर सवाल उठाया, न किसी के सम्मान को चुनौती दी। लेकिन एक कार्य उन्होंने किया – उन्होंने अपने घर के दरवाज़े पर एक छोटी-सी पट्टी लगा दी:
“यहाँ सत्य सिखाया जाता है। यह पाठशाला किसी प्रमाणपत्र की मोहताज नहीं।”
अगले ही दिन उनके पास छात्रों की भीड़ लग गई। बच्चे आए – “गुरुजी, हमें उस शिक्षा की ज़रूरत है जो बिकती नहीं।”
समय बीता। धीरे-धीरे काशीपुर में यह बात फैलने लगी कि आचार्य माधवन के यहाँ जो पढ़ाया जाता है, वह केवल पाठ्यक्रम नहीं, बल्कि जीवन के सूत्र हैं। शहर के बाहर से भी लोग आने लगे। उनकी पाठशाला अब एक शांत आश्रम बन चुकी थी – जहाँ धन नहीं, केवल ज्ञान चलता था।
इसी बीच श्री लक्ष्मीप्रसाद पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। पुरस्कार समिति भंग हुई। नया प्रशासक आया और पुराने फ़ैसलों की समीक्षा होने लगी।
एक दिन प्रशासक स्वयं माधवन के पास आया।
“आचार्य जी, आपने जो बिना किसी विरोध के सच्चाई का दीप जलाया, उसने हमें विचार करने पर मजबूर कर दिया। हम चाहते हैं कि आप विद्या रत्न स्वीकार करें।”
माधवन ने बड़ी शांति से उत्तर दिया,
“मैं कोई रत्न नहीं चाहता। मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है – जब मेरा छात्र जीवन में सच्चा मनुष्य बनता है। बाकी सब मोह है।”
नैतिक शिक्षा:
सम्मान वही सार्थक होता है, जो सिद्धांतों को गिरवी रखकर ना मिला हो। आत्मसम्मान और सच्चाई से बड़ा कोई पुरस्कार नहीं होता। जब मनुष्य खुद को आईने में देखकर मुस्करा सके – वही उसका सबसे बड़ा गौरव है।
समाप्त।