मस्तिष्क का अनुबंध
जब विज्ञान ने मस्तिष्क की क्षमताओं को पूरी तरह खोलने का दावा किया, तब एक समाज ने सोच को बाज़ार में बेचने का रास्ता चुना — और इंसान, केवल अनुबंध बन गया।
साल 2102, भारत के सुदूर कोने में स्थित एक अत्याधुनिक शोध संस्थान “मानसेरा न्यूरो टेक लैब्स” में एक प्रयोग चल रहा था जिसे सरकार और निजी उद्योगों की गुप्त साझेदारी से चलाया जा रहा था। इस परियोजना का नाम था “मानस अनुबंध परियोजना”, जिसका उद्देश्य था — मानव मस्तिष्क की अनावश्यक स्मृतियों, भावनाओं, और सोचने की आदतों को निकालकर एक नया ‘किराए पर चलने वाला मस्तिष्क’ विकसित करना।
डॉ. ईशा कुलकर्णी, एक न्यूरो-कॉग्निटिव वैज्ञानिक, इस योजना की प्रमुख थीं। उनके अनुसार, “हर मस्तिष्क में 70% विचार उपयोगहीन होते हैं। यदि हम सोच को कॉम्प्रेस कर सकें, तो मनुष्य केवल वही सोच पाएगा जो समाज को चाहिए।”
तकनीक का मूल
इस तकनीक का आधार था — “मस्तिष्क अनुबंध उपकरण” (Brain Lease Device), जिसे “बीएलडी” कहा जाता था। यह एक माइक्रोचिप थी, जो मस्तिष्क की ब्रेन स्टेम में लगाई जाती थी। यह चिप एक एल्गोरिदम के अनुसार पुराने विचारों, मूल्यों, संस्कारों और भावनाओं को छांटकर मिटा देती थी, और उनकी जगह “सोचने योग्य पैकेट्स” लोड करती थी — जिन्हें कॉरपोरेट्स, संस्थाएँ, या सरकारें तैयार करती थीं।
हर पैकेट एक “थॉट प्रोफाइल” कहलाता था — जैसे एक ऐप। आप अपने विचार किराए पर ले सकते थे, अपनी पसंद के विचार डाउनलोड कर सकते थे — और जो नहीं चाहिए, उन्हें डिलीट कर सकते थे।
पहले प्रयोग
प्रारंभ में यह प्रयोग उन लोगों पर किया गया जिन्हें डिप्रेशन, PTSD या अत्यधिक भय जैसी मानसिक समस्याएँ थीं। जब उन पर बीएलडी लगाया गया, तो वे शांत, व्यवस्थित और अत्यधिक उत्पादक बन गए।
सरकार ने इसे “मन:स्वास्थ्य क्रांति” कहकर प्रचारित किया, लेकिन डॉ. ईशा जानती थीं कि यह प्रयोग केवल एक पर्दा था — असली लक्ष्य था “सोच का नियंत्रण।”
विचारों का बाज़ार
बीएलडी चिप के आने के बाद एक नया उद्योग खड़ा हो गया — “विचार बाज़ार।” अब कंपनियाँ अपने थॉट प्रोफाइल्स बेचने लगीं। यदि आप एक मेहनती कर्मचारी बनना चाहते हैं, तो ‘वर्कहोलिक पैकेट’ खरीदिए। यदि आप एक शांत जीवन जीना चाहते हैं, तो ‘संतोषी विचार लोड’ कर लीजिए।
मनुष्यों का चरित्र अब व्यक्तिगत नहीं रहा — वह एक इंस्टॉल की गई परत बन चुका था।
शहरों में बोर्ड लगने लगे —
“सोचिए, पर हमारे अनुसार।”
“आपका मन, हमारी मर्ज़ी।”
प्रथम विद्रोह
सब कुछ सुव्यवस्थित लग रहा था, जब तक कि एक व्यक्ति सामने नहीं आया — नाम था रविन मेहरा। वह एक कवि था, जिसकी चेतना ने बीएलडी चिप को अस्वीकार कर दिया था।
उसके भीतर दो सोच टकरा रही थीं — एक जो बीएलडी ने थोप दी थी, और एक उसकी मूल चेतना। हर दिन वह खुद से झगड़ता था — कभी कागज़ों पर शब्द फूटते, तो कभी वह शांत होकर दीवारें घूरता।
एक दिन उसने एक चौंकाने वाली कविता लिखी —
“तुमने मेरी सोच किराए पर ली,
अब मैं अपने ही मन से अजनबी हूँ।
क्या कोई मुझे वापस ख़रीद सकता है?”
छिपा हुआ सच
डॉ. ईशा ने रविन का दिमाग स्कैन किया। उन्होंने देखा कि रविन के मस्तिष्क में एक ऐसा पैटर्न उभरा था जो अब तक बीएलडी से अप्रभावित था — उसे “स्वनिर्मित विचार-वृत्त” कहा गया। यह किसी कवच की तरह था, जो बाहरी पैकेट्स को भीतर प्रवेश नहीं करने देता।
अब सरकार और कंपनियों को भय हुआ — क्या अगर और लोग भी इस ‘स्वचेतन प्रतिरोध’ से प्रभावित हो गए, तो विचार बाज़ार ढह जाएगा?
इसलिए उन्होंने रविन को एक मानसिक पुनर्संरचना केंद्र में भेज दिया — जहाँ सोच को फिर से ढाला जाता था।
विचार क्रांति की लहर
परंतु रविन की कविताएँ इंटरनेट पर फैल चुकी थीं। लाखों लोगों ने उन्हें पढ़ा, और अचानक पूरे देश में एक “विचार मुक्ति आंदोलन” फैल गया।
लोग बीएलडी चिप्स निकालने लगे। परंतु जिन्हें यह चिप वर्षों से लगी थी, उनके दिमाग इतने निर्भर हो चुके थे कि जैसे ही चिप हटती, वे सुन्न हो जाते, गिर जाते, और उनकी सोच बंद हो जाती — मानवता अब बिना सोच के जीने की आदि हो चुकी थी।
डॉ. ईशा का अंतर्द्वंद्व
डॉ. ईशा के सामने अब दो रास्ते थे — या तो बीएलडी को और शक्तिशाली बनाकर सभी को नियंत्रित कर लें, या इस तकनीक को बंद करके लोगों की मूल चेतना को लौटाने की कोशिश करें।
उन्होंने एक रात अपने ही मस्तिष्क से बीएलडी चिप निकाली। पहले कुछ घंटे वह अवसाद, भ्रम और संदेह से घिरी रहीं। पर जब पहली बार उन्होंने खुले आसमान को देखा, तो आँसुओं से भर गईं।
वह बोलीं —
“मैंने सालों से केवल वही सोचा, जो सोचना मुझे सिखाया गया था। अब मैं पहली बार खुद सोच रही हूँ।”
अंतिम यंत्रणा
परंतु यह बदलाव आसान नहीं था। कंपनियाँ, जिनका अरबों का कारोबार केवल विचारों पर निर्भर था, उन्होंने चेतावनी दी — “यदि बीएलडी प्रणाली बंद की गई, तो समाज विघटित हो जाएगा।”
डॉ. ईशा ने जवाब दिया —
“अगर समाज केवल अनुबंधित विचारों पर टिका है, तो वह समाज नहीं, एक संगठित पिंजरा है।”
उन्होंने सार्वजनिक रूप से बीएलडी सिस्टम का सोर्स कोड जारी कर दिया — और हज़ारों हैकरों ने मिलकर उसे नष्ट कर दिया।
नई सुबह
2105 में भारत पहला देश बना जिसने “विचार स्वतंत्रता अधिनियम” पारित किया। अब किसी भी तकनीक से सोच पर नियंत्रण गैरकानूनी था।
रविन मेहरा एक स्कूल में कविता पढ़ाता था। उसके ब्लैकबोर्ड पर एक पंक्ति लिखी थी —
“जिस दिन सोच बिके, समझो आत्मा बिक गई।”
यह कहानी बताती है कि तकनीक यदि चेतना को उपभोग की वस्तु बना दे, तो मानव मात्र शरीर नहीं रह जाता — वह विचारों का गुलाम बन जाता है। और जब विचार किराए पर दिए जाएँ, तब स्वतंत्रता केवल एक भ्रम बन जाती है।
समाप्त
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