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माँ की परछाईं

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माँ की परछाईं

संक्षेप
उत्तराखंड के एक सुनसान पहाड़ी गाँव नैरा में एक पुरानी हवेली है, जहाँ हर नवविवाहित दुल्हन के साथ कुछ भयावह घटता है। लोग कहते हैं कि उस हवेली में एक माँ की परछाईं रहती है, जो अपने मरे हुए बेटे की दुल्हन ढूंढ रही है। जब एक नई नवेली दुल्हन “कविता” उस हवेली में आती है, तो उसके साथ होने वाली अजीब घटनाएँ पूरे गाँव को झकझोर देती हैं। लेकिन कविता के पास एक ऐसा भेद है, जिसे जानकर रूह तक काँप उठती है।


हवेली की वापसी

सालों बाद नैरा गाँव की वो हवेली फिर से आबाद होने वाली थी। उस पर धूल की मोटी परतें जमी थीं, दीवारें सीलन से ढकी हुई थीं और खिड़कियाँ चिड़ियों के पुराने घोंसलों से भरी थीं। लेकिन जब सौरभ और कविता वहाँ रहने आए, तो गाँव के बड़े-बूढ़ों की आँखों में डर समा गया।

“उस हवेली को कोई घर नहीं बना सकता बेटा,” पंडित देवीलाल ने कहा, “वहाँ उसकी परछाईं है… वो अब भी इंतज़ार करती है।”

सौरभ हँसा — “पंडित जी, ये 2025 है, अब कोई भूत-प्रेत नहीं होता।”

लेकिन कविता शांत रही। उसके होंठों पर हल्की मुस्कान थी, जैसे उसे कुछ पता हो… जैसे वो जानती हो कि वहाँ क्या है।


पहली रात की दस्तक

शादी के चौथे दिन, कविता अकेली हवेली में थी। रात के करीब 1 बजे, जब बाहर तेज़ हवा चल रही थी और लकड़ी के दरवाज़े ठक-ठक कर रहे थे, उसे ऊपर के कमरे से धीमी सी लोरी सुनाई दी —

“झूला झूले लाल मेरा… कोई ना उसको झुलाए…”

कविता ठिठक गई। वो आवाज़ किसी बूढ़ी स्त्री की थी। कमरे की बत्तियाँ मंद होने लगीं और हवेली के किसी कोने से एक धीमी सी सिसकती सांस सुनाई दी।

उसने सौरभ को फोन मिलाया, लेकिन नेटवर्क गायब था। अचानक उसके सामने की खिड़की के बाहर एक औरत की परछाईं दिखाई दी — सिर पर आँचल, हाथों में झुनझुना, और आँखें बिलकुल सफेद।

कविता ने दरवाज़ा बंद किया और खुद को कमरे में बंद कर लिया।


सौरभ की कहानी

अगली सुबह सौरभ लौटा। कविता ने सारी बातें बताईं। सौरभ ने पहले मज़ाक उड़ाया, लेकिन फिर धीरे-धीरे गंभीर हो गया।

उसने कहा, “मेरी माँ इसी हवेली में मरी थी। मैं छोटा था तब… उन्होंने खुद को कमरे में बंद कर लिया था… कहती थीं कि मेरी दुल्हन आई है… पर उस समय मेरी शादी नहीं हुई थी।”

“क्या?” कविता ने कहा, “तो वो किसे देख रही थीं?”

“नहीं पता… लेकिन माँ की मौत अजीब थी। कमरे में आग लगी और किसी को अंदर से निकलने नहीं दिया गया। वो चीखती रहीं कि कोई दुल्हन उनके बेटे को ले जा रही है… और फिर… सब खामोश हो गया।”


लाल आँचल की पुकार

तीसरी रात, कविता ने खुद को हवेली के उस पुराने हिस्से में पाया, जहाँ अब कोई नहीं जाता था। वहाँ दीवार पर काली राख से लिखा था —
“मुझे मेरी बहू चाहिए…”

एक सड़ी-गली गद्दी पर एक औरत की छाया बैठी थी, उसकी गोद में गुड़िया थी, और वो उसी लोरी को गा रही थी। जैसे ही कविता ने एक कदम आगे बढ़ाया, छाया उठी — उसकी पीठ पर फफोले थे, बाल झुलसे हुए, और पैर ज़मीन से दो इंच ऊपर हवा में थे।

उसने कविता की ओर हाथ बढ़ाया और बोली —
“तू मेरी बहू है… तू आई है ना?”

कविता भागी। दरवाज़ा बंद। खिड़की खुली। बाहर सन्नाटा। हवा में बस वही झुनझुने की आवाज़।


गाँव की सच्चाई

कविता गाँव की बूढ़ी औरत शांता देवी के पास पहुँची। वह बहुत दिनों से हवेली के पास नहीं गई थी, लेकिन जानती थी सब कुछ।

“बेटी, सौरभ की माँ विमला कभी माँ बन ही नहीं सकी थी। लेकिन उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया था। वो हमेशा कहती कि उसका बेटा है, उसका नाम सौरभ है। गाँव वालों को शक था कि वो किसी तांत्रिक क्रिया से किसी आत्मा को अपना बेटा बनाना चाहती थी।”

“तो क्या सौरभ…?”

“सौरभ उसी रात हवेली के तहखाने में पाया गया था। निर्वस्त्र, कांपता हुआ… जैसे किसी और शरीर से बाहर निकला हो।”


परछाईं का सच

अब कविता को समझ आ चुका था। विमला ने जिस “बेटे” को जन्म दिया था, वो मानव शरीर नहीं था… वो किसी और आत्मा से बना था… किसी और लोक से आया हुआ। और अब वह आत्मा अपनी “दुल्हन” मांग रही थी।

कविता को बार-बार सपने आने लगे — एक बच्चा उसे खींचता है, एक औरत उसे झुलाती है, और एक बुढ़िया कहती है —
“अब तू मेरी हो चुकी है…”


अंतिम रात

कविता ने हवेली छोड़ने का फैसला किया। लेकिन जैसे ही वह सामान बाँधने लगी, बिजली चली गई। हवेली के बाहर घने बादल थे। हर कोना अंधेरे में डूब चुका था।

सौरभ उसे रोकने आया, लेकिन उसकी आँखें सफेद थीं, चेहरा काला और आवाज़ में गूंज थी —
“कहाँ जा रही है दुल्हन… शादी अभी पूरी नहीं हुई…”

कविता चिल्लाई, लेकिन दरवाज़ा बंद हो गया। खिड़कियाँ अपने आप सील हो गईं। हवेली की दीवारें कांपने लगीं।

तभी विमला की आत्मा सामने आई, लाल आँचल, जलता शरीर, झुलसी मुस्कान —
“अब तू मेरी बहू है… अब तू मेरे बेटे के साथ रहेगी… सदा के लिए…”


अंतिम रहस्य

अगली सुबह गाँव वालों को हवेली के बाहर कविता का लाल जोड़ा मिला — पूरा जला हुआ… लेकिन कोई शव नहीं। सौरभ गायब था।

आज भी हवेली के पास से गुज़रने वालों को रात में लोरी की आवाज़ आती है…

“झूला झूले लाल मेरा… अब बहू भी साथ झुलाए…”


**
हर दुल्हन शादी के लिए नहीं आती… कुछ बहुएँ किसी और लोक से बुलाई जाती हैं… और माँ की परछाईं उन्हें ले जाती है… वहाँ जहाँ समय नहीं चलता… बस लोरी गूंजती रहती है।

समाप्त


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