मृत्यु के द्वार पर जीवन
संक्षिप्त सारांश:
यह कहानी है एक धनी लेकिन घमंडी साहूकार ‘सेठ देवकरण’ की, जो जीवन भर धन जोड़ता रहा, पर आत्मा का ज्ञान भूल गया। अचानक उसे एक रात मृत्यु का साक्षात्कार होता है, और वह आत्मा, कर्म और पुनर्जन्म के रहस्यों से रूबरू होता है। इस अद्भुत अनुभव से गुजरने के बाद उसकी दृष्टि बदल जाती है, और वह सांसारिक मोह को त्यागकर लोक-कल्याण और आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर चल पड़ता है। यह कथा दर्शाती है कि कभी-कभी मृत्यु की छाया ही जीवन का सबसे बड़ा शिक्षक बनती है।
कहानी:
वाराणसी नगरी के बीचोंबीच देवकरण नाम का एक अत्यंत समृद्ध साहूकार रहता था। उसके पास धन, महल, घोड़े, हाथी, नौकर-चाकर, खेत-कारखाने – सभी कुछ था। परंतु वह ह्रदय से अत्यंत कठोर, स्वार्थी और अभिमानी था।
जो भी गरीब उसके द्वार पर सहायता मांगने आता, वह उसे यह कहकर भगा देता – “भगवान की भक्ति करो, भीख माँगना बंद करो।” लेकिन स्वयं उसने कभी भगवान के सामने सिर नहीं झुकाया था।
वह कहता था, “धर्म-कर्म साधुओं के लिए है। मैं अपने भाग्य से अमीर हूँ, किसी के आगे झुकना मेरी शान के ख़िलाफ़ है।”
एक रात, जब वह अपने पलंग पर लेटा हुआ सो रहा था, अचानक उसकी साँस रुक गई। उसे ऐसा लगा जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसके शरीर को बाहर खींच रही हो। उसने अपनी आँखें खोलीं, पर चारों ओर गहरा अंधकार था।
फिर एक रहस्यमयी स्वर गूंजा—
“देवकरण! तेरे जीवन की घड़ी समाप्त हुई।”
देवकरण घबरा गया। उसने चारों ओर देखा, तो स्वयं को अपने मृत शरीर के पास खड़ा पाया। उसके आसपास तीन अद्भुत आकृतियाँ खड़ी थीं—एक धवलवर्ण, एक म smoky काली, और तीसरी शांत, चमकीली।
देवकरण चिल्लाया, “मैं मरा नहीं हूँ! मुझे जाने दो!”
धवल आकृति बोली, “मैं तेरा सत्कर्म हूँ। तूने मुझे बहुत कम जगह दी अपने जीवन में।”
काली आकृति बोली, “मैं तेरा पापकर्म हूँ। तूने मुझे खूब पोषित किया है – झूठ, लालच, दूसरों का अपमान, निर्दयता – मैं तेरे जीवन का अधिकांश हिस्सा हूँ।”
चमकीली आकृति बोली, “मैं तेरी आत्मा हूँ। तूने मुझे जीवनभर अनदेखा किया। आज पहली बार तू मुझे देख रहा है।”
देवकरण काँप उठा। वह आत्मा से बोला, “क्या अब कोई उपाय नहीं है? क्या मैं वापस नहीं जा सकता?”
आत्मा बोली, “एक अवसर है—पर उसके लिए तुझे सत्य का सामना करना होगा।”
देवकरण बोला, “मैं तैयार हूँ।”
उसे तीन दृश्यों में ले जाया गया—पहला, जब उसने एक गरीब किसान की ज़मीन हड़प ली थी। किसान की पत्नी ने आत्महत्या की थी।
दूसरा, जब उसने अपने वृद्ध नौकर को बीमार अवस्था में निकाल दिया था और वह मार्ग में ही मर गया था।
तीसरा, जब उसके पुत्र ने एक मंदिर में दान देने की बात की थी और उसने डांटकर रोक दिया था।
हर दृश्य उसे झकझोर रहा था। उसके भीतर की कठोरता पिघल रही थी। वह रोने लगा।
आत्मा बोली, “यदि तू सच्चे हृदय से परिवर्तन चाहता है, तो तुझे पुनः जीवन मिलेगा – पर इस बार हर सांस सेवा, हर विचार दया, और हर कर्म सच्चाई के लिए होना चाहिए।”
अगली सुबह लोग हैरान रह गए जब सेठ देवकरण ने आँखें खोल दीं। डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया था, पर अब वह जीवित था।
परंतु वह अब वही देवकरण नहीं था। वह सबकुछ छोड़कर नदी के किनारे एक आश्रम में रहने लगा। उसने अपनी सारी संपत्ति निर्धनों, विधवाओं और अनाथों के लिए समर्पित कर दी।
लोग पूछते, “सेठ जी, ऐसा परिवर्तन कैसे हुआ?”
वह मुस्कराता और कहता, “मृत्यु के द्वार पर जाकर जीवन की कीमत समझ में आई।”
अब वह हर सुबह प्रभात वंदना करता, भूखे को अन्न देता, बीमार को दवा दिलवाता और रात में ध्यान करता।
वर्षों बीत गए। एक दिन उसने ध्यान की अवस्था में देह का त्याग किया। जब उसकी चिता जली, लोगों की आँखों से आँसू बह रहे थे—पर वे दुःख के नहीं थे, कृतज्ञता के थे।
क्योंकि एक मृत आत्मा ने जीवितों को जीने की राह दिखा दी थी।
समाप्त