मौन का सौदागर
सारांश:
राजधानी के बीचोंबीच एक प्रख्यात मनोवैज्ञानिक डॉक्टर विवेक त्रिवेदी की क्लिनिक में एक ऐसा मरीज़ आता है जो बोल नहीं सकता, मगर हर हफ्ते एक मूक चित्र बनाकर छोड़ जाता है। ये चित्र किसी भयावह घटना के संकेत होते हैं, जो बाद में सच साबित होती है। डॉक्टर विवेक जब इस रहस्य की तह तक जाने की कोशिश करता है, तो उसे एक ऐसे रहस्य से पर्दा उठाना पड़ता है जो केवल मानसिक नहीं, बल्कि अस्तित्व के भी परे है।
कहानी:
डॉ. विवेक त्रिवेदी दिल्ली के सबसे प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक थे। उनका क्लिनिक ‘मानस-मंथन’ शहर के पॉश इलाके में स्थित था और वहाँ आकर इलाज करवाना आसान नहीं था — महीनों पहले अपॉइंटमेंट लेना पड़ता था।
डॉ. विवेक का जीवन अनुशासित, सीधा और एकदम व्यावसायिक था। वे खुद को भावनाओं से ऊपर मानते थे — रोगी उनके लिए बस केस स्टडीज़ होते थे। लेकिन सब कुछ तब बदल गया जब एक दिन उनकी रिसेप्शनिस्ट ने एक चुप और बुझे चेहरे वाले युवक को अंदर भेजा।
उस युवक का नाम किसी रजिस्टर में दर्ज नहीं था। वह बोला कुछ नहीं, बस एक लिफाफा डॉक्टर की मेज़ पर रख दिया और चला गया। डॉक्टर ने लिफाफा खोला तो उसमें एक चित्र था — एक पुल, पुल के नीचे गिरे हुए शव, और आस-पास पुलिस की गाड़ियाँ।
उन्हें लगा कि कोई बदमाश मज़ाक कर गया है। पर ठीक दो दिन बाद, शहर के पुराने लालकिला ब्रिज से दो छात्रों की लाश बरामद हुई। हादसा मानकर केस बंद हो गया।
पर अगले हफ्ते वही युवक फिर आया, फिर एक और चित्र छोड़ गया — इस बार एक स्कूल, उसके गेट के पास विस्फोट। डॉक्टर घबरा गए। उन्होंने पुलिस को सूचना दी, मगर कुछ हुआ नहीं। और अगले सोमवार को राजधानी के एक निजी स्कूल में धमाका हुआ — तीन घायल, एक शिक्षक की मौत।
अब डॉक्टर समझ गए कि यह युवक मज़ाक नहीं कर रहा था। वह कुछ जानता था। पर क्या? और कैसे?
डॉ. विवेक ने तय किया कि अगली बार वह उसे रोककर बात करने की कोशिश करेगा।
अगले शुक्रवार को युवक आया। डॉक्टर ने तुरंत दरवाज़ा बंद किया और बोले —
“तुम कौन हो? ये सब कैसे जानते हो?”
युवक कुछ नहीं बोला, बस अपने बैग से एक पुराना पेपर-कटिंग निकालकर दिया। हेडलाइन थी —
‘मनोरोग केंद्र में लगी आग, तीन मरीज़ लापता’
डॉ. विवेक को वो केस याद आया। पाँच साल पहले, आग लगने के बाद तीन मरीज़ लापता हो गए थे। उनमें से एक, आरव नाम का लड़का — वही शक्ल!
“तुम आरव हो?” डॉक्टर ने पूछा। युवक की आँखों में आँसू आ गए।
वह बोला नहीं, लेकिन हाथों से इशारे करने लगा। डॉक्टर ने नोटपैड और पेन दिया। आरव ने लिखा —
“मैं सब सुन सकता हूँ। सब देख सकता हूँ। पर बोल नहीं सकता। मैं मौन में जीता हूँ… लेकिन मौन सब कहता है।”
उसने अगला चित्र दिया — एक बुज़ुर्ग महिला, सीढ़ियों से गिरती हुई, और उसके पीछे एक परछाईं।
डॉ. विवेक स्तब्ध रह गए — चित्र में महिला हूबहू उनकी माँ जैसी दिख रही थी, जो उन्हीं के घर में रहती थीं।
उस रात डॉक्टर ने माँ को नज़दीक ही रहने को कहा, और खुद उनके कमरे के बाहर बैठ गए। आधी रात को, एक हल्की सरसराहट हुई। एक परछाईं, लंबी और दुबली, जैसे हवा से बनी हो, उनकी माँ के कमरे की ओर बढ़ रही थी। डॉक्टर ने तुरंत अलार्म बजा दिया। परछाईं पीछे हटी, और कमरे की खिड़की से कूदकर गायब हो गई।
पुलिस आई, सीसीटीवी देखा — पर उसमें कुछ नहीं था।
अगले दिन आरव फिर आया। इस बार डॉक्टर ने उसे पूरी कहानी बताने को कहा।
आरव ने लिखा —
“मैं उन्हें देख सकता हूँ — वे जो भावनाओं से जीते हैं। डर, जलन, क्रोध, और शोक से बनी परछाइयाँ। वे मन की दुर्बलता से जन्मती हैं, और केवल वही उन्हें देख सकते हैं जो मौन में डूबे हों। मैं देखता हूँ, और वे मेरे पास आते हैं… क्योंकि मैं बोल नहीं सकता, पर समझ सकता हूँ।”
डॉ. विवेक ने उस पर विश्वास किया। उन्होंने आरव के साथ मिलकर उन चित्रों का विश्लेषण करना शुरू किया। धीरे-धीरे उन्हें एहसास हुआ कि हर चित्र एक चेतावनी है, परछाइयों के अगले लक्ष्य की।
फिर आया एक चित्र — एक बड़ा सभागार, हजारों की भीड़, और मंच पर खड़ा एक व्यक्ति — डॉक्टर विवेक स्वयं।
इस चित्र ने डॉक्टर को झकझोर दिया।
वह जान गए कि अगला निशाना वह खुद हैं। सवाल ये था — क्यों?
आरव ने एक अंतिम सच लिखा —
“जिस दिन आग लगी थी, उस मनोरोग केंद्र में तुमने ही मेरे भाई को अकेला छोड़ दिया था — वह चीखता रहा, जलता रहा — और तुमने दरवाज़ा बंद कर दिया।”
डॉ. विवेक को याद आया — वह दिन, जब शॉर्ट सर्किट हुआ था, और उसने एक कमरे का दरवाज़ा बंद कर दिया था ताकि आग आगे न फैले। उसे नहीं पता था कि उसमें कोई है।
“तुम्हारा भाई…?” डॉक्टर फुसफुसाए।
आरव ने सिर हिलाया।
“और अब, उसकी परछाईं तुम्हारे पीछे है,” उसने लिखा।
डॉ. विवेक काँपने लगे। उसी रात उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया — पुलिस के सामने स्वीकारा कि उनकी लापरवाही से एक मानसिक रोगी की जान गई थी।
जब उन्होंने वापस क्लिनिक आकर आरव को यह सब बताया, आरव ने मुस्कराते हुए अंतिम चित्र दिया — एक सूरज, जो धीरे-धीरे एक छाया को मिटा रहा था।
उस दिन के बाद आरव कभी नहीं दिखा।
डॉ. विवेक ने क्लिनिक बंद कर दिया और अब शहर में मौन-चिकित्सा के लिए फ्री सेवा देते हैं। उनका विश्वास है — कभी-कभी मौन ही सबसे बड़ा सच होता है। और कुछ मौन ऐसे होते हैं, जिनमें छिपे होते हैं वो चीखें, जो कभी सुनी नहीं जातीं… पर जो सब बदल देती हैं।
अंतिम पंक्ति:
जो सच हम शब्दों से नहीं कह सकते, वो मौन कभी न कभी ज़रूर उजागर कर देता है। और जब मौन बोलता है, तो उसकी आवाज़ सबसे ज़्यादा डरावनी होती है।
समाप्त