मौन की पुकार
एक यात्रा जो शब्दों से परे थी
मौन की पुकार: हम जीवन भर बोलते रहते हैं—अपने बारे में, अपने दुखों के बारे में, अपने सपनों और असंतोषों के बारे में। पर क्या कभी हमने उस मौन को सुना है जो भीतर पल रहा होता है? ‘मौन की पुकार’ एक ऐसे व्यक्ति की आत्मिक यात्रा है, जो शब्दों और विचारों के संसार से बाहर निकलकर उस मौन में प्रवेश करता है जहाँ केवल साक्षी भाव है—न कोई द्वंद्व, न कोई भय, न कोई आकांक्षा। यह कहानी साधना की नहीं, स्वाभाविक जागरण की है, जहाँ कोई उपाय नहीं, केवल समर्पण है।
रामेश्वर, राजस्थान के एक सूखे और शांत कस्बे नीमराणा में जन्मा था। पिता सरकारी अध्यापक थे और माता एक सीधी-सादी धार्मिक महिला। घर में धार्मिक वातावरण था, पर रामेश्वर का मन पूजा-पाठ में कभी न लगा। वह बचपन से ही एक अलग तरह की बेचैनी लिए बड़ा हुआ।
वह पढ़ाई में तेज़ था और जल्दी ही दिल्ली आ गया, इंजीनियर बनकर। मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी मिली। जीवन व्यवस्थित और सफल दिखता था, पर भीतर कहीं एक अजीब सी खरोंच थी, जो हर रोज़ उसे कचोटती थी। हर रिश्ते, हर सफलता के बाद भी उसे लगता कुछ छूट रहा है—कुछ बहुत बुनियादी, कुछ अत्यंत व्यक्तिगत।
एक बार, किसी क्लाइंट प्रोजेक्ट के सिलसिले में वह उत्तरकाशी गया। वहाँ एक दिन वह अकेले नदी किनारे बैठा, और न जाने क्यों उसका ध्यान स्वाभाविक रूप से भीतर चला गया। कोई अभ्यास नहीं, कोई प्रयास नहीं—बस मौन। और उस मौन में, उसे पहली बार अपने भीतर उठती एक अनकही पुकार सुनाई दी।
उसने उस अनुभव को भूलने की कोशिश की। वापस काम में डूब गया। लेकिन अब वह मौन उसकी आदत में उतरता गया। दिन भर काम करता, रात को बालकनी में बैठकर चुपचाप आकाश को देखता और भीतर उतरने लगता।
धीरे-धीरे उस मौन में रहना उसकी प्राथमिकता बन गई। टीवी, सोशल मीडिया, दोस्तों की बातचीत—सब बेमानी लगने लगे। उसे अब विचारों से थकान होने लगी थी। अब उसे केवल मौन अच्छा लगता था, एक ऐसा मौन जिसमें न कोई अपेक्षा थी, न कोई छवि।
उसकी पत्नी रुचिका, जो कि एक तेज़-तर्रार कॉर्पोरेट वकील थी, ने इस बदलाव को नोटिस किया। एक दिन उसने पूछ ही लिया,
“तुम इतने चुप क्यों हो गए हो राम? कुछ परेशान हो?”
रामेश्वर ने सिर हिलाया,
“नहीं, बस अब शब्दों की ज़रूरत महसूस नहीं होती।”
रुचिका को लगा शायद डिप्रेशन है। पर रामेश्वर जानता था कि यह डिप्रेशन नहीं, कुछ और है—कुछ गहन, सुंदर और शांत।
वह अब हर दिन एक घंटा बिल्कुल शांत बैठता—ना मंत्र, ना ध्यान तकनीक, ना किसी गुरु की सीख। सिर्फ मौन। आँखें बंद। और हर बार भीतर जैसे एक नया द्वार खुलता।
एक दिन, जब वह मौन में था, उसके भीतर एक प्रश्न उठा—“मौन सुन कौन रहा है?”
और उस प्रश्न के साथ ही उसे पहली बार ऐसा प्रतीत हुआ कि वह स्वयं अपने भीतर किसी अन्य सत्ता द्वारा देखा जा रहा है। कोई ऐसा जो न बोलता है, न प्रतिक्रिया करता है—केवल देखता है।
उसने किताबों में इसका उत्तर खोजा। कुछ पुरानी उपनिषदों की व्याख्या मिली, जहाँ ‘द्रष्टा’, ‘साक्षी’, और ‘अवधारक’ जैसे शब्द थे। पर कोई भी उत्तर उसकी अनुभूति को पूरी तरह बाँध नहीं सका।
अब वह हर रविवार शहर से बाहर जाता, अकेले किसी शांत स्थान पर। मोबाइल बंद कर देता, किसी से बात नहीं करता। घंटों चुपचाप बैठता। और हर बार, उसकी चेतना में कुछ हलचल होती, कोई हल्की ऊर्जा उठती, और फिर मौन में विलीन हो जाती।
फिर एक दिन ऐसा आया, जब मौन में बैठते हुए उसने देखा—उसका ‘मैं’ जैसे पिघल गया। वह अनुभव कर रहा था, पर अनुभव करने वाला कोई नहीं था। वहाँ केवल एक ‘होना’ था। न कोई नाम, न कोई आकृति, न कोई विचार।
उस क्षण वह रो पड़ा। बहुत देर तक। वह जानता था—यह रोना किसी दुःख का नहीं, बल्कि उस मूल सच्चाई के साक्षात्कार का था, जो शब्दों से परे है।
उसी समय एक वृद्ध व्यक्ति, जो वहाँ पास के मंदिर में सफाई करता था, उसके पास आया। बिना कोई परिचय, बिना कोई औपचारिकता, उसने बस इतना कहा,
“अब तुम लौट सकते हो। तुम्हें खोजने की ज़रूरत नहीं रही।”
रामेश्वर चौंका नहीं। न प्रश्न किया, न जिज्ञासा जताई। बस मुस्कराया।
उस दिन के बाद वह पहले जैसा जीवन जीने लगा—काम, परिवार, रिश्तेदार। लेकिन अब वह व्यक्ति नहीं रहा था, जो पहले था।
अब उसका मौन बोलता था।
अब उसकी उपस्थिति खुद एक उत्तर बन गई थी।
अब जब उसके बेटे अंशु ने उससे पूछा—“पापा, आप इतने शांत क्यों रहते हो?”
तो उसने धीरे से उत्तर दिया,
“क्योंकि अब भीतर कुछ शेष नहीं रहा कहने को। अब केवल मौन ही सत्य है।”
यह कहानी उन सभी के लिए है जो मौन को खालीपन मानते हैं। जबकि मौन वह स्पंदन है जिसमें ब्रह्म की सबसे स्पष्ट झलक मिलती है। वहाँ कोई धर्म नहीं, कोई ग्रंथ नहीं—सिर्फ स्वयं का साक्षात्कार है। मौन ही परम सत्य की प्रथम सीढ़ी है।
समाप्त।
📚 All Stories • 📖 eBooks
मौन की पुकार मौन की पुकार मौन की पुकार मौन की पुकार मौन की पुकार मौन की पुकार