रंगों की डायरी
संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है अर्णव सिंह की — एक 14 वर्षीय किशोर, जो उत्तराखंड के हल्द्वानी शहर के एक सरकारी स्कूल में पढ़ता है। अर्णव पढ़ाई में ठीक-ठाक है, पर उसकी असली दुनिया रंगों और स्केचबुक के पन्नों में बसती है। लेकिन उसके पिता, जो एक ट्रक चालक हैं, चित्रकारी को सिर्फ “शौक” मानते हैं, न कि भविष्य। एक दिन अर्णव को स्कूल की तरफ़ से एक अनजानी प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका मिलता है — और वहीं से शुरू होती है उसकी यात्रा: आत्म-विश्वास, पहचान और सपनों के रंगों को पकड़ने की।
‘रंगों की डायरी’ एक दिल को छू लेने वाली किशोर-कथा है जो यह सिखाती है कि सपनों को सिर्फ देखा नहीं जाता, उन्हें जीना भी पड़ता है — धैर्य से, विश्वास से, और मुस्कान के साथ।
पहला भाग – रंग, जो पन्नों में बोलते हैं
अर्णव सिंह अपने पिता की तरह शांत स्वभाव का था। वह ज़्यादा बोलता नहीं था, लेकिन उसकी स्केचबुक में सैकड़ों बातें छुपी होती थीं — पहाड़ों की झलक, माँ के चेहरे की मुस्कान, स्कूल के दोस्त की बाइक, और कभी-कभी एक टूटी-सी आँख, जिसमें सैकड़ों भाव होते।
हर शाम वह अपने घर के कोने में बैठकर चुपचाप पेंसिल से ड्रॉइंग बनाता।
कभी-कभी माँ पूछतीं —
“क्या कर रहा है अर्णव?”
“कुछ नहीं माँ, बस एक ड्रॉइंग।”
पर उसके पिता का रवैया कुछ और था —
“ड्रॉइंग से रोटी नहीं मिलती बेटा। गणित और विज्ञान पढ़, वही तेरी ज़िंदगी बनाएँगे।”
अर्णव चुप रह जाता, पर उसकी उंगलियाँ चित्रों में विरोध दर्ज कर लेतीं।
दूसरा भाग – जब सपना दस्तक देता है
एक दिन स्कूल में सूचना आई —
“राज्य स्तरीय कला प्रतियोगिता आयोजित की जा रही है। पाँच छात्रों को स्कूल से चुना जाएगा।”
अर्णव ने हिचकते हुए अपना नाम दिया। शिक्षक राजेंद्र सर को उसकी प्रतिभा का पहले से अंदाज़ा था। उन्होंने कहा —
“तेरी रेखाएँ बोलती हैं, अर्णव। उन्हें मौका देना ज़रूरी है।”
अगले दिन जब चयन सूची आई, अर्णव का नाम सबसे ऊपर था।
माँ ने ख़ुशी से मिठाई बाँटी, लेकिन पिता बोले —
“खाली समय का काम है ये। प्रतियोगिता से नौकरी नहीं मिलती।”
अर्णव ने कुछ नहीं कहा। पर उस रात उसने अपनी डायरी में लिखा —
“मैं पहली बार डरकर नहीं, विश्वास से रंग भरूँगा।”
तीसरा भाग – पहली बार शहर की ओर
प्रतियोगिता देहरादून में थी। अर्णव पहली बार अपने शहर से बाहर निकला था।
बस की खिड़की से वह पहाड़ों को निहारता रहा।
उसके साथ उसके शिक्षक और चार अन्य छात्र भी थे, पर वह सबसे चुप था।
पर जब प्रतियोगिता स्थल पहुँचा — उसकी आँखें चमक उठीं।
हॉल में चारों ओर बैठे बच्चों ने अपनी-अपनी जगह रंग फैलाए हुए थे। कुछ के पास ब्रांडेड पेंट्स, ब्रश और शानदार किट्स थीं।
अर्णव ने अपना पुराना स्केचबुक और सीमित रंग निकाले।
विषय था —
“मेरा कल”
उसने एक बड़ा पहाड़ बनाया — जिसमें आधा भाग नीला था और आधा रंगहीन। रंगीन भाग में वह खुद था — एक दीवार पर पेंट करता हुआ, और रंगहीन भाग में वह सफ़ेद शर्ट में बैठा, फॉर्म भरता दिखाया गया था।
उसकी कला बोल रही थी।
चौथा भाग – जब पहचान मिली
प्रतियोगिता के तीन दिन बाद परिणाम आया।
अर्णव सिंह – प्रथम स्थान
स्कूल में सबने बधाई दी।
राजेंद्र सर ने उसे मंच पर बुलाया —
“इसने अपने सपने को रेखाओं में जिया। और जब सपना बोलता है, दुनिया सुनती है।”
अब अख़बारों में भी उसका नाम छप गया —
“हल्द्वानी का छात्र बना देहरादून कला प्रतियोगिता का विजेता”
पिता घर आए तो चुपचाप टेबल पर रखा पेपर देखा।
फिर अर्णव के पास आए, उसका सिर सहलाया —
“तू जो चाहता है, कर। पर मेहनत मत छोड़ना।”
अर्णव की आँखों में आंसू थे — पर चेहरा मुस्कराता था।
पाँचवां भाग – रंगों की पाठशाला
अब अर्णव हर रविवार को कॉलोनी के बच्चों को ड्रॉइंग सिखाने लगा।
उसने एक पुरानी दुकान को साफ़ कर उसमें ‘रंग पाठशाला’ नाम से एक छोटा सा कोना बनाया।
बच्चे वहाँ आकर रंगों से दोस्ती करते, और अर्णव उन्हें सिखाता —
“हर तस्वीर में एक कहानी होती है। पहले उसे सुनो, फिर रंग भरो।”
माँ हर रविवार उसके लिए हलवा बनातीं, और पिता अब उसके पेंसिलों को खुद शार्प करते।
अंतिम भाग – मेरी डायरी के पन्ने
अब जब अर्णव 11वीं में पहुँच चुका है, उसने एक ऑनलाइन चित्रकला प्रतियोगिता भी जीती है।
उसकी कला की एक प्रदर्शनी हल्द्वानी के आर्ट गैलरी में लगी।
उसने अपनी डायरी में लिखा —
“पहले मैं अपने पन्नों में दुनिया बनाता था, अब दुनिया मेरे पन्नों में रंग खोजती है।”
कभी-कभी वह अब भी चुप रहता है —
पर उसकी चुप्पी अब रंगों से भरी होती है।
और जब वह किसी बच्चे को स्केच बनाते हुए देखता है, तो कहता है —
“पेंसिल से डर मत, बस उसे बोलने दो।”
समाप्त