राख की गवाही: अग्निवीर
संक्षिप्त झलक:
जब देश के प्रतिष्ठित न्यायालयों में एक के बाद एक न्यायाधीश रहस्यमयी रूप से बेहोश होकर अजीब बातें करने लगते हैं, और अपराधी खुलकर अपराध करने लगते हैं — तब यह स्पष्ट हो जाता है कि कोई अदृश्य शक्ति कानून की आत्मा पर आक्रमण कर रही है। पर यह केवल अपराध की कहानी नहीं है, यह कहानी है न्याय की आत्मा और अग्निवीर की अग्नि के टकराव की। जब इंसान कानून का अर्थ भूल जाता है, तब एक अग्निपुत्र खड़ा होता है — सत्य की राख पर, और देता है राख की गवाही।
कहानी
आरंभ : निचली अदालत से सर्वोच्च पीठ तक
दिल्ली के सर्वोच्च न्यायालय में एक ऐतिहासिक मामला चल रहा था — “भारत सरकार बनाम कालमाया संघ”, एक ऐसा मामला जिसमें देश की सुरक्षा, स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों का भविष्य टिका था। इस सुनवाई को पूरे देश के चैनल लाइव दिखा रहे थे।
पर ठीक सुनवाई के दिन, जज सतीशकांत वर्मा अचानक उठे, उनकी आंखें उलटी हुईं, और उन्होंने ऊँची आवाज में कहा —
“अब न्याय नहीं होगा… अब केवल ध्वंस होगा…”
फिर एक के बाद एक, भारत की छह अदालतों में यही घटना दोहराई गई। किसी भी न्यायाधीश को याद नहीं था कि उनके साथ क्या हुआ।
इस दौरान, कई कुख्यात अपराधी एक रहस्यमय आदेश के तहत जेलों से छूट गए। हर कोई पूछने लगा — “क्या कानून मर गया है?”
अग्निवीर की प्रतीक्षा
काशी में एक चुपचाप बैठे योगी ने आँखें खोलीं और एक वाक्य बोला —
“जब न्याय गिर जाए, अग्नि उठेगी।”
उसी रात, हिमालय की घाटी में ध्यानस्थ अग्निवीर की चेतना में एक आग जल उठी। उसे पहली बार अनुभव हुआ कि कोई ऐसी शक्ति है जो कानून के मौलिक तत्वों को बदल रही है — न केवल शारीरिक रूप से, बल्कि मानसिक और आत्मिक स्तर पर।
अदृश्य अपराधी — ‘न्यायवंचक’
सूत्रों की गहराई में खोज करने पर अग्निवीर को पता चला कि इन घटनाओं का स्रोत एक छायामय शख़्स है — जिसे वर्षों पहले एक गुप्त समाज ‘संविधानछाया’ ने मृत घोषित कर दिया था।
उसका नाम था — ‘न्यायवंचक’, एक पूर्व न्यायविद् जिसने प्राचीन भारतीय दंडनीति को विज्ञान और तंत्र से जोड़कर ऐसी शक्ति विकसित की थी जिससे वह किसी के निर्णय पर नियंत्रण कर सकता था।
उसने एक मानसिक जाल बनाया था — ‘तर्कव्यूह’ — जो कि न्यायाधीशों के चेतन मन में प्रवेश कर उनके निर्णय को बदल देता था।
तर्कव्यूह का चक्र
अग्निवीर को इस बार अग्निशक्ति से ज़्यादा मानसिक शक्ति की आवश्यकता थी। उसने वर्षों पुरानी ‘वेदाग्नि साधना’ को पुनः आरंभ किया। यह एक आंतरिक अग्नि साधना थी जिससे व्यक्ति सत्य और असत्य में भेद कर सकता था — केवल महसूस करके, बिना प्रमाण के।
तब उसे एक रहस्य पता चला — हर निर्णय के साथ जुड़ी होती है एक ‘राख’ — वह जो झूठ और स्वार्थ को जलाकर बनी होती है।
इस बार उसे तर्क के जाल को नहीं, तर्क की राख को पहचानना था।
पहली गवाही — जयपुर अदालत
यहाँ एक केस में एक महिला को झूठे सबूतों के आधार पर दोषी ठहराया जा रहा था। अग्निवीर ने ‘राखचक्र’ का प्रयोग किया — और जैसे ही न्यायाधीश ने निर्णय देने को हाथ उठाया, अग्निवीर ने उसकी टेबल पर आग की एक हल्की रेखा छोड़ी।
उस रेखा से एक ध्वनि गूंजी — “सत्य की राख बोल रही है।”
न्यायाधीश बेहोश हो गया, पर उसकी आँखों से जल की बूँदें गिरीं। उसने पुनः होश में आने पर पूरा निर्णय पलट दिया।
दूसरी गवाही — लखनऊ उच्च न्यायालय
यहाँ अग्निवीर को न्यायालय में नहीं, बाहर की भीड़ में जाना पड़ा। न्यायवंचक ने यहाँ पूरे जूरी मंडल को अपने वश में कर लिया था।
अग्निवीर ने ‘आग की प्रतिछाया’ का निर्माण किया — अपनी ही ज्वाला से एक अस्थायी प्रतिरूप। इस रूप ने भीड़ को झुलसा नहीं दिया, परंतु उनके झूठे विचारों को आग दिखा दी। भीड़ शांति से बैठ गई।
अंतिम युद्ध — संविधान की मूल प्रति के नीचे
अग्निवीर अंततः पहुँचा दिल्ली — एक गुप्त सुरंग के भीतर, जहाँ संविधान की सबसे पहली हस्तलिखित प्रति को रखा गया था — ताम्रपात्र में सील की हुई।
वहीं बैठा था न्यायवंचक — आँखों पर पट्टी, हाथ में कमंडल, और मंत्र पढ़ते हुए।
अग्निवीर ने पूछा —
“तू न्याय को क्यों मार रहा है?”
वो बोला —
“मैं न्याय को मुक्त कर रहा हूँ — इंसानों की सीमा से। न्याय केवल देवताओं का अधिकार है, मनुष्य इसे नहीं समझ सकता।”
फिर आरंभ हुआ तर्क और अग्नि का युद्ध।
न्यायवंचक ने अग्निवीर की हर स्मृति पर प्रश्न उठाया।
“तेरा सत्य क्या है?”
“क्या तू अपराधी को माफ़ करता है?”
“क्या तू आग से न्याय कर सकता है?”
पर अग्निवीर शांत रहा।
उसने कहा —
“मैं आग नहीं, वह राख हूँ जो बचती है — जब सब जल चुका होता है। और वही राख न्याय की साक्षी होती है।”
फिर उसने अपनी ज्वाला को सिकोड़ा और एक बिंदु में केंद्रित कर दिया।
वह बिंदु था — ‘न्याय-बिंदु’, जहाँ सत्य, तर्क और अनुभूति मिलते हैं।
उस ऊर्जा से न्यायवंचक का तंत्र टूट गया, उसकी पट्टी गिर गई — उसकी आँखों में केवल पछतावा था।
न्याय की पुनर्स्थापना
देशभर के न्यायालयों में बैठे न्यायाधीशों को एक अजीब अनुभूति हुई — जैसे किसी ने उनके भीतर की थकी हुई चेतना को जगा दिया हो।
अग्निवीर कहीं नहीं था — केवल एक छोटी सी राख की डिब्बी हर अदालत में रखी गई थी, जिस पर लिखा था —
“जब निर्णय कठिन लगे, इस राख को देखना… यही सत्य की गवाही है।”
समाप्त
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