रेत की सांसें
संक्षिप्त विवरण:
यह कहानी है प्रेरणा मलिक की — एक पर्यावरण वैज्ञानिक, जो राजस्थान की मरुस्थली भूमि में गुम हो चुके प्राचीन जल स्रोतों की खोज में निकलती है। यह यात्रा केवल भूगोलिक नहीं, बल्कि आत्मिक और बौद्धिक खोज भी बन जाती है। आधुनिक यंत्रों, स्थानीय ज्ञान, और भीतर की जिज्ञासा से प्रेरित यह साहसिक सफ़र उसे धूल, लू और सीमित संसाधनों के बीच खुद को नया रूप देने के लिए मजबूर करता है।
कहानी
प्रेरणा मलिक, एक प्रख्यात पर्यावरणविद्, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थी। उम्र लगभग पैंतीस, जीवन व्यवस्थित लेकिन असंतोष से भरा। कक्षा में पढ़ाते हुए, प्रेजेंटेशन बनाते हुए, और सरकारी प्रोजेक्टों के लिए रिपोर्ट तैयार करते हुए उसका मन धीरे-धीरे भीतर ही भीतर सूखता जा रहा था – जैसे कोई नदी जो सतह पर तो बह रही है, पर जड़ से जलहीन हो चुकी है।
एक दिन, वह एक पुराने किताबघर में एक फटी-सी हस्तलिखित डायरी पढ़ रही थी, जिसमें एक अंग्रेज अधिकारी ने 1893 में लिखा था कि “थार के बीचोंबीच कोई स्थान था, जहाँ कभी सैकड़ों वर्ष पहले जल की भूमिगत धारा बहती थी, और जहाँ रेत में साँस लेने वाले पौधे उगते थे।” इस वाक्य ने प्रेरणा की सोच को झकझोर दिया। यह कोई रहस्य नहीं था, न ही खज़ाने की तलाश — यह था प्राकृतिक पुनर्जागरण की खोज।
उसने अपने विश्वविद्यालय की छुट्टी ली, शोध के उपकरण और एक कैमरा पैक किया और राजस्थान के जैसलमेर जिले की ओर प्रस्थान किया। वहाँ के स्थानीय लोगों से बातचीत शुरू की — ऊँट चराने वाले, बूढ़े कारीगर, और सूखी मिट्टी में जीवन की उम्मीद बोते हुए किसान। पर किसी को उस “साँस लेती रेत” का नाममात्र भी ज्ञान न था।
वह एक महीने तक गाँव-गाँव घूमती रही, GPS ट्रैकर, थर्मल इमेजर, और सौर-संचालित जल-गहराई स्कैनर के साथ। धीरे-धीरे, उसने देखा कि कुछ जगहों पर मिट्टी की नमी बाकी हिस्सों से भिन्न है। इन बिंदुओं को जोड़ने पर उसे एक गोल घेरा मिला — एक ऐसा परिपथ, जो किसी समय पर भूमिगत जल प्रणाली का संकेत देता था।
इसी खोज के बीच, वह एक छोटे गाँव ‘नारवाली’ पहुँची, जहाँ उसे एक लगभग सौ वर्षीय महिला मिली — धूणी माँ। धूल से सनी, झुर्रियों से भरा चेहरा, पर आँखों में अद्भुत तेज। उन्होंने प्रेरणा को एक पुराने पत्थर की ओर ले जाया, जिस पर किसी समय जल से सिंचित पौधों की आकृतियाँ खुदी हुई थीं।
प्रेरणा ने वहीं डेरा डाला — एक टेंट, एक सोलर कुकर, और कुछ किताबें। हर सुबह वह कुछ किलोमीटर दूर जाकर रेत की नमी, तापमान और मिट्टी के नमूने एकत्र करती। धूप 48 डिग्री तक जाती, पानी सीमित था, त्वचा पर जलन होती थी, लेकिन वह थमी नहीं।
धीरे-धीरे उसका शरीर और मन दोनों ढलने लगे — अब उसे टैंट में पंखे की ज़रूरत नहीं थी, रेत पर चलना सहज हो गया था, और वह लू में भी बैठकर दिनभर नोट्स बनाती।
तीन महीने बाद, एक दिन उसे अपनी मशीनों में स्पष्ट संकेत मिला — लगभग दस फीट नीचे अब भी भूमिगत जल का प्रवाह है। यह न तो बड़ी मात्रा में था, न ही झरने जैसा — परंतु जीवन देने योग्य पर्याप्त था।
उसने स्थानीय ग्रामीणों के साथ मिलकर एक नया ‘वाटर बोर’ प्लान तैयार किया — बिना बाहरी मशीनों के, केवल स्थानीय साधनों से, जल को ऊपर लाने का उपाय। प्रेरणा ने सिखाया कि किस तरह से पुराने परंपरागत ‘कुँवा-रेखा’ पद्धति को नई तकनीक से जोड़ा जा सकता है।
छह महीने की मेहनत के बाद, वह क्षण आया — जब नारवाली के बीचोंबीच एक स्थान पर पानी फूटा। ग्रामीणों ने नाचना शुरू कर दिया, धूणी माँ ने चुपचाप आकाश की ओर देखा और आँखें बंद कर लीं। प्रेरणा वहीं रेत पर बैठ गई, उसके कपड़े धूल से सने थे, होंठ सूखे, पर आँखों में संतोष की गहराई थी।
लेकिन उसकी यात्रा वहीं नहीं रुकी। वह इस जल स्रोत को सहेजने के लिए एक नया प्रोजेक्ट शुरू करती है — ‘रेत की साँसें’, जहाँ वह मरुस्थलों में बचे जल स्रोतों की खोज, संरक्षण और स्थायी उपयोग पर काम करती है।
अब प्रेरणा सोशल मीडिया पर नहीं, बल्कि गांवों की चौपाल पर चर्चा करती है। वह स्लाइड शो नहीं बनाती, बल्कि मिट्टी से भरी हथेली में भविष्य देखती है।
उसे अब भी लोग शहरों से आमंत्रण देते हैं, पर वह जानती है कि उसकी असली जगह वहीं है — जहाँ धूल है, लू है, सीमाएं हैं… और जहाँ जीवन फिर से साँस लेना सीख रहा है।
यह कहानी हमें यह सिखाती है कि जब हम खुद को ज्ञात के दायरे से बाहर निकालते हैं, तभी हम प्रकृति और स्वयं से जुड़ने की असली शक्ति को अनुभव करते हैं।
समाप्त।