लहू से लिखी विजय: महाराज तेजकरण की आखिरी रणचेतना
संक्षिप्त विवरण:
यह गाथा है अरण्यगढ़ राज्य के अप्रतिम योद्धा महाराज तेजकरण की, जिन्होंने अपने सीमित संसाधनों और थोड़ी-सी सेना के साथ विशाल विदेशी घुसपैठियों की सेना का सामना किया। यह युद्ध केवल भूमि का नहीं, बल्कि अस्मिता, संस्कृति और आत्मगौरव का था। यह कथा इतिहास में वह स्थान रखती है, जहाँ एक अकेला सिंह सौ भेड़ियों पर भारी पड़ा।
कहानी का आरंभ:
अरण्यगढ़ — पहाड़ों से घिरा एक गौरवशाली राज्य, जिसके चारों ओर घने जंगल और भीतर बहता था संस्कृति का अमृत। इस राज्य का शासक था महाराज तेजकरण — यौवन से परिपूर्ण, गहराई से विचारशील, और क्रोध में समुद्र के समान उग्र।
महाराज का एक ही वचन था —
“राजा का अर्थ केवल सिंहासन नहीं होता, वह धरती का रक्षक और हर नागरिक का प्रहरी होता है।”
पर एक दिन, उत्तर दिशा से भय का काला बादल उमड़ा। अफ़गानी सेनापति अलीकान, जो दिल्ली की सत्ता पर अधिकार करना चाहता था, अरण्यगढ़ की सीमा पर आ खड़ा हुआ। उसके पास ६०,००० सैनिक, २०० तोपें, और अजेय रथदल था।
अलीकान का सन्देश स्पष्ट था —
“जो राजा जीवित रहना चाहता है, वह अपना किला खोल दे और झुककर सलामी दे।”
पर तेजकरण ने सिंहासन पर बैठकर उत्तर भेजा —
“जिस मिट्टी से हम बने हैं, वह झुकना नहीं जानती। मेरी तलवार का स्वाद चखोगे, तो नशा भूल जाओगे।”
सेना की तैयारी और संकल्प:
अरण्यगढ़ के पास केवल ९,५०० सैनिक, कुछ गिने-चुने हाथी और सीमित धनुष-वाण थे। लेकिन साहस ऐसा था कि सूरज भी श्रद्धा से सिर झुका दे।
सेनापति अंबरीश ने युद्धनीति बनाते हुए कहा —
“हम चतुराई से लड़ेंगे। दुश्मन की संख्या चाहे अधिक हो, पर हमारी भूमि हमारा कवच है।”
महल में महारानी देवलता ने स्त्रियों को सिखाया —
“यदि एक भी दुश्मन भीतर घुसे, तो हमारी चूडियाँ तलवार बन जाएँगी।”
हर घर, हर चौपाल, हर स्त्री-पुरुष, हर बालक एक सैनिक बन गया।
पहला हमला और रात्रि-युद्ध:
तीसरे दिन अलीकान ने किले पर सीधा हमला बोला। तोपों की आग से आकाश धुआँधार हो गया। किंतु अरण्यगढ़ की दीवारें अडिग थीं।
तेजकरण ने रात में योजना बनाई —
“हम रात के अंधकार में उनके शिविरों में आक्रमण करेंगे।”
घुड़सवार दल ने अंधकार में दुश्मन के शिविरों पर धावा बोला। आग की लपटें उठीं, और दुश्मनों में अफरा-तफरी मच गई। पहली बार अलीकान की नींद टूटी।
इस रात्रि-युद्ध में राजकुमार सूर्यसेन भी वीरगति को प्राप्त हुए। उनका शव देखकर तेजकरण बोले —
“मेरा पुत्र मरा नहीं है, वह अमर योद्धा बन गया है।”
आंतरिक विश्वासघात:
पाँचवे दिन एक संकट और आया — महामंत्री रूद्रदेव, जो राज्यसभा में वरिष्ठ था, उसने लालच में आकर शत्रु से गुप्त समझौता कर लिया। उसने अलीकान को एक गुप्त सुरंग का पता दे दिया, जिससे सेना किले के भीतर प्रवेश कर सकती थी।
परंतु एक सैनिक कनकध्वज ने समय रहते यह भेद जान लिया और अपने प्राण देकर सूचना महाराज तक पहुंचा दी। तेजकरण ने उसी रात रूद्रदेव को दरबार में बुलाया और कहा —
“एक गद्दार सौ दुश्मनों से अधिक खतरनाक होता है।”
रूद्रदेव को उसी समय मृत्युदंड दिया गया।
अंतिम निर्णायक युद्ध और महासमर:
सातवे दिन महाराज तेजकरण ने केसरिया ध्वज उठाया और कहा —
“कल हम रणभूमि में उतरेंगे। यह आखिरी रण है। जो जीवित बचेगा, वह गौरव की गाथा सुनाएगा। और जो मरेगा, वह इतिहास बन जाएगा।”
सुबह सूर्य की पहली किरण के साथ किला खोला गया। युद्ध भूमि में अरण्यगढ़ की सेना तीन ओर से शत्रु पर टूटी। महाराज तेजकरण घोड़े पर सवार, दुश्मन की कतारों को चीरते हुए आगे बढ़ते गए।
उनका हर वार सौ हाथियों का बल लिए होता। जब अलीकान के सेनापति ज़हीरशाह ने उन्हें ललकारा, तब तेजकरण ने अकेले ही उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।
अंत में, महाराज और अलीकान आमने-सामने आए। दोनों ने तलवारें खींचीं। लंबा, भयानक युद्ध हुआ। अलीकान बार-बार घायल होता रहा, परंतु अंतिम वार तेजकरण का ऐसा था कि अलीकान की छाती चीरकर तलवार भूमि में धँस गई।
तेजकरण भी थककर भूमि पर गिर पड़े। शरीर घायल, पर हाथ अब भी तलवार थामे था। उन्होंने अंतिम वाक्य कहा —
“अरण्यगढ़ की धरती आज स्वतंत्र रही। मेरा रक्त इसकी रक्षा का प्रमाण है।”
कहानी का अंत:
अलीकान की सेना बिखर गई। जो जीवित बचे, वे डर से भाग खड़े हुए। अरण्यगढ़ ने भले ही हजारों वीरों को खोया, परंतु वह आज़ाद रहा।
महारानी देवलता ने सिंहासन पर बैठकर कहा —
“हमारे राजा ने शरीर खोया, पर आत्मा से हमें जीता दिया। अरण्यगढ़ अब केवल भूमि नहीं — यह स्वाभिमान का प्रतीक है।”
आज भी अरण्यगढ़ की वीरभूमि पर हर वर्ष केसरिया ध्वज लहराता है, और वीर तेजकरण की गाथा उस हवा में गूंजती है —
“लहू से जो विजय लिखी जाए, वह युगों तक कभी फीकी नहीं होती।”
समाप्त।