लौह सिंहासन
यह महाकथा है एक ऐसे साम्राज्य की, जहाँ युद्ध केवल हथियारों से नहीं, बलिदान, विश्वासघात और स्वाभिमान से लड़े जाते थे। जहाँ एक सिंहासन था — लोहे से बना, जिसे जीतने के लिए राजाओं ने पीढ़ियाँ गँवाईं। पर यह लौह सिंहासन झुकता नहीं था, केवल उस योद्धा को स्वीकारता था, जिसकी रगों में आग हो और हृदय में राज्य नहीं, न्याय बसता हो।
लौह सिंहासन: भारतवर्ष की प्राचीन भूमियों के बीच एक विस्तृत पहाड़ी साम्राज्य था – ‘मौलिकगिरि’। यह राज्य घने जंगलों, दुर्गम पर्वतों और नदियों से आच्छादित था। इसकी सबसे महान धरोहर थी — ‘लौह सिंहासन’, जो राजा धरणीधर वीर के महल में स्थित था। यह सिंहासन लोहे का बना हुआ था, पर उसमें लोहा केवल धातु नहीं, इतिहास था – हर एक तलवार का टुकड़ा, हर बलिदानी योद्धा की कील, और हर युद्ध की लौ उसमें पिघलाई गई थी। इस सिंहासन को केवल वही पहन सकता था, जिसने तीन शर्तें पूरी की हों — रक्त का मूल्य, न्याय की कसौटी, और पराजय के आगे झुकने से इनकार।
परंतु इस पवित्र सिंहासन पर बुरी नज़र गड़ी थी — दक्षिण का सम्राट रुद्रबाहु, जो वर्षों से मौलिकगिरि की सीमाओं को निगाहों से नापता आ रहा था। वह जानता था, मौलिकगिरि को जीतने का अर्थ था सम्पूर्ण पूर्वांचल पर आधिपत्य। और उसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकता था।
युद्ध का कारण
राजा धरणीधर वीर वृद्ध हो चले थे। उनका इकलौता पुत्र राजकुमार विभान, केवल 22 वर्ष का था, परंतु तलवार की चाल, रणकौशल और नीति में अत्यंत प्रवीण। वहीं रुद्रबाहु का सबसे बड़ा पुत्र उग्रमुख, एक क्रूर और घमंडी योद्धा था, जिसने कई छोटे राज्यों को रौंद डाला था।
रुद्रबाहु ने एक कूटनीतिक चाल खेली — उसने अपनी पुत्री संध्या देवी का प्रस्ताव राजा विभान के विवाह हेतु भेजा। साथ में संदेश दिया गया: “इस मिलन के साथ, लौह सिंहासन का शासन साझा हो।”
विभान ने सभा में वह पत्र पढ़ा और कहा —
“लौह सिंहासन बाँटने की वस्तु नहीं, वह अपने आप चुनता है — और वह लोहे की मर्जी से चलता है, लालच की नहीं।”
यह उत्तर रुद्रबाहु के अपमान जैसा था। उसने घोषणा की —
“अब मैं वह सिंहासन छीनूँगा, जिसमें आज तक कोई भी सम्राट अपने बल पर बैठा नहीं।”
सेनाओं का निर्माण
मौलिकगिरि ने युद्ध की घोषणा कर दी। विभान के नेतृत्व में तीन महान सेनानी तैयार हुए:
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सेनापति अमोघभान – तोपों और धनुर्धारी सेनाओं का प्रमुख।
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रणमंत्री नीलकेतु – गुप्त नीति, जासूसी और सुरंग युद्ध का विद्वान।
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दुर्ग रक्षक वासुदेव कराल – किले की दीवारों और अग्निकुंडों का अधिकारी।
राजा धरणीधर वीर ने सिंहासन कक्ष में अंतिम सभा ली। उन्होंने विभान से कहा —
“युद्ध केवल जीता नहीं जाता, वह अपने साथ राजवंशों का भाग्य, जनता का जीवन और धरोहर का भविष्य भी तय करता है। यह लौह सिंहासन यदि तेरे भाग्य में है, तो तू इसे जीत नहीं, सिद्ध करेगा।”
रुद्रबाहु की चढ़ाई
रुद्रबाहु की सेना विशाल थी — दो लाख पैदल सैनिक, चालीस हज़ार घुड़सवार, पाँच सौ युद्धहाथी और तुर्कों से मँगाई गईं एक सौ छः तोपें। वह एक लोहे के रथ में चलता था, और उसका ध्वज रक्त में डूबा हुआ शेर था।
उसने मौलिकगिरि की उत्तरी सीमा से आक्रमण किया। पहले दो किले – ध्वनिगढ़ और अग्निवन – केवल चार दिनों में गिरा दिए गए। वासुदेव कराल ने अपनी छोटी टुकड़ी के साथ उन्हें बचाने का प्रयास किया, परंतु घातक तोपों और युद्धहाथियों ने सबकुछ रौंद डाला।
परंतु यह सब विभान की योजना का हिस्सा था — वह जानता था कि रुद्रबाहु सीधा नहीं, तेज़ हमला करेगा। उसने सारा बल गुप्त सुरंगों, खाई में बारूद भरने, और मध्यवर्ती मैदानों में झूठे शिविर बनाने में लगा दिया था।
पहली निर्णायक झड़प
‘नरकपथ मैदान’ नामक स्थान पर दोनों सेनाओं की टक्कर हुई। अमोघभान ने धनुर्धारियों को वृत्ताकार पंक्तियों में तैनात किया। उनके पीछे अग्निवाण चलाने वाले, और सबसे आगे भालेधारी रक्षक। तीन दिन तक लगातार युद्ध चला। विभान स्वयं युद्धभूमि में आया और उग्रमुख से आमना-सामना हुआ।
वह द्वंद्व एक युद्ध से बढ़कर था — तलवारों की टंकार, घोड़ों की चीत्कार, और सैनिकों की जयकार से आसमान काँप गया। अंत में, विभान ने उग्रमुख की गर्दन पर वार किया, जिससे वह युद्धभूमि में गिर पड़ा।
रुद्रबाहु को अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार मिला — परंतु वह पीछे नहीं हटा। उसके लिए अब यह युद्ध व्यक्तिगत हो गया।
विश्वासघात की रात
रुद्रबाहु ने मौलिकगिरि के एक सेनापति श्रुतसेन को धन, राज्य और उच्च पद का लोभ देकर तोड़ लिया। श्रुतसेन ने मुख्य गुप्त सुरंग की सूचना दी, जिससे होकर रुद्रबाहु की एक विशेष टुकड़ी ने किले की दीवार के भीतर प्रवेश किया।
किन्तु नीलकेतु ने पहले ही श्रुतसेन की गतिविधियाँ पहचान ली थीं। उस गुप्त टुकड़ी को एक ऐसे मार्ग में लाया गया जो स्वयं बारूद से भरा हुआ था। जैसे ही वे प्रवेश करते गए, नीलकेतु ने अग्निसंकेत दिया — और पूरी सुरंग ध्वस्त हो गई।
रुद्रबाहु अब एक कोने में आ गया था। उसकी सेना थक चुकी थी, उसकी आपूर्ति बंद हो चुकी थी, और उसका पुत्र मारा गया था।
अंतिम युद्ध
महाकाल रात्रि की पूर्णिमा को रुद्रबाहु स्वयं लौह सिंहासन तक पहुँचने के लिए एक आखिरी हमला करता है। इस युद्ध में विभान का बायाँ हाथ घायल हो गया, अमोघभान शहीद हो गए, और किले की बाहरी दीवार टूट गई।
राजा धरणीधर वीर ने अपने सिंहासन से उतरते हुए कहा —
“अब तू ही है, जो इस लौह सिंहासन की परीक्षा दे सकता है।”
विभान ने घायल होने के बावजूद तलवार उठाई, और रुद्रबाहु को दरबार कक्ष के ठीक सामने रण के लिए ललकारा। दोनों ने बिना किसी सुरक्षा के आमने-सामने युद्ध किया। हवा सन्नाटी में थी, सारा राज्य थमा हुआ था।
आख़िरकार, विभान ने अपनी तलवार रुद्रबाहु के सीने में घोंप दी।
रुद्रबाहु का शरीर वहीं गिर पड़ा – और एक इतिहास समाप्त हो गया।
लौह सिंहासन की स्वीकृति
युद्ध के बाद राजा धरणीधर वीर ने अपने प्राण त्याग दिए। विभान जब लौह सिंहासन की ओर बढ़ा, तो परंपरा के अनुसार उसके पैरों को लहू से धोया गया, और तीन प्रश्न पूछे गए —
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क्या तू युद्ध से भागा?
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क्या तू न्याय से डिगा?
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क्या तू पराजय से डरा?
विभान ने केवल सिर झुकाया, और तभी सिंहासन के चारों ओर जड़े लोहखंडों से रौशनी फूटी — यह संकेत था, कि लौह सिंहासन ने अपना शासक स्वीकार कर लिया।
यह युद्ध केवल एक राजा का नहीं था, यह उस लोह-आस्था का प्रतीक था जो किसी भी युद्ध से अधिक दृढ़ होती है। ‘लौह सिंहासन’ केवल अधिकार नहीं, जिम्मेदारी का प्रतीक था — और विभान ने उसे रक्त से नहीं, निष्ठा से सिद्ध किया।
समाप्त।
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