वक्त की समझ
संक्षिप्त सारांश:
यह कहानी एक युवा तकनीकी इंजीनियर ‘मोहित सक्सेना’ की है, जो तेज़ी से भागती हुई ज़िंदगी में करियर, महत्वाकांक्षा और उपलब्धियों के पीछे दौड़ते हुए यह भूल चुका है कि समय का सबसे सुंदर उपयोग अपनों के साथ किया हुआ पल होता है। जब उसे अचानक अपने पिता की गंभीर बीमारी के कारण कुछ सप्ताह गांव में रुकना पड़ता है, तब उसे वह जीवन दिखाई देता है जिसे वह बरसों से अनदेखा करता आया था। यह कहानी सिखाती है कि जो समय बीत जाता है, वह कभी लौटकर नहीं आता, और हमें हर पल को अर्थपूर्ण बनाकर जीना चाहिए।
कहानी:
मोहीत सक्सेना, 30 वर्षीय एक कुशल सॉफ्टवेयर इंजीनियर, बेंगलुरु की एक नामी मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत था। उसका ऑफिस ग्लास की दीवारों वाला था, डेस्क पर दो लैपटॉप होते थे और हाथ में हमेशा स्मार्टवॉच। मीटिंग्स, कोडिंग, क्लाइंट कॉल्स — यही उसका दैनिक जीवन था।
मोहीत को तेज़ी से आगे बढ़ना था। वह मानता था कि अगर उसने 35 की उम्र तक ‘टॉप टेक्निकल मैनेजर’ का टैग नहीं पाया, तो उसका जीवन अधूरा रह जाएगा।
उसके माता-पिता उत्तर प्रदेश के अमेठी जिले के एक छोटे से कस्बे में रहते थे। पिता एक रिटायर्ड शिक्षक और माँ घरेलू महिला थीं। वह साल में केवल एक बार, दिवाली पर, घर जाता था — और तब भी आधे समय मोबाइल पर ही व्यस्त रहता।
“आप लोगों को समझ नहीं आता,” वह अक्सर कहता था, “आजकल वक्त के साथ चलना पड़ता है।”
पिता मुस्कराते हुए जवाब देते — “हम तो वक्त के साथ चल रहे हैं बेटा, बस तुझसे दो पल साथ बैठने का वक्त नहीं मिल पाता।”
मोहीत के लिए यह बातें भावुकता से ज़्यादा कुछ नहीं थीं।
लेकिन फिर एक दिन अचानक उसके ऑफिस में कॉल आया — माँ की घबराई आवाज़ थी।
“बाबूजी को सीने में दर्द है… अस्पताल में हैं… डॉक्टर ने कुछ टेस्ट के लिए कहा है।”
मोहीत ने तुरंत ऑफिस से छुट्टी ली और पहली फ़्लाइट से लखनऊ पहुँचा, फिर वहाँ से टैक्सी लेकर अमेठी।
अस्पताल में पिता ऑक्सीजन मास्क लगाए लेटे थे। माँ की आँखों में थकान और चिंता साफ़ दिख रही थी। डॉक्टर ने कहा — “हार्ट में कुछ ब्लॉकेज हैं, तुरंत ऑपरेशन नहीं होगा, पर इन्हें अब आराम, देखभाल और मानसिक शांति की सख्त ज़रूरत है।”
मोहीत के मन में कुछ दरक गया। उसने तय किया कि वह कुछ हफ़्ते यहीं रहेगा — पहली बार, इतने लंबे समय के लिए।
घर लौटते हुए वह चुपचाप पिता के बगल में बैठा रहा। रास्ते में जब पिता ने धीरे से कहा —
“अब तुझे दोपहर की वो नीम के नीचे की हवा याद है?”
तो मोहित को लगा कि जैसे उसके भीतर कुछ टूटकर नया बन रहा है।
अगले दिन से उसका जीवन बदल गया। सुबह वह उठकर चाय बनाता, पिता को दवा देता, माँ के साथ सब्ज़ी लेने जाता, और दोपहर में मोबाइल को एक ओर रखकर चुपचाप नीम के पेड़ के नीचे बैठता।
पड़ोस के छोटे बच्चे उसे “मोहीत भैया” कहने लगे थे। कुछ बुज़ुर्ग आकर उससे अख़बार पर चर्चा करने लगे। एक दिन माँ ने हँसते हुए कहा —
“तेरे आने से घर फिर से घर लगने लगा है।”
मोहीत ने पहली बार यह महसूस किया कि वह जीवन जी रहा है — न कि सिर्फ़ समय काट रहा है।
हफ्तों बाद जब उसे ऑफिस से कॉल आया — “तुम्हारा प्रमोशन तय है, लेकिन तुम्हें तुरंत लौटना होगा,”
तो मोहित ने कहा —
“माफ़ कीजिए सर, इस बार मैं थोड़ी देर से लौटूँगा, क्योंकि अभी मेरा सबसे बड़ा प्रोजेक्ट — मेरे पिता की देखभाल चल रही है।”
ऑफिस ने पहले नाराज़गी दिखाई, पर मोहित को उसकी परवाह नहीं थी। कुछ हफ्तों बाद, जब उसके पिता की तबीयत में सुधार आया, तब वह लौटने को तैयार हुआ।
लेकिन इस बार वह पहले जैसा मोहित नहीं था। उसने ऑफिस जाते ही सबसे पहले अपने काम का समय सीमित करवाया। सप्ताह में एक दिन ‘डिजिटल डिटॉक्स’ रखा और साल में तीन बार घर जाने की स्थायी योजना बनाई।
अब वह हर रविवार अपने माता-पिता से वीडियो कॉल करता, अपने सहकर्मियों को भी रिश्तों की अहमियत समझाता। उसने एक ब्लॉग शुरू किया — “वक़्त की समझ”, जिसमें वह दूसरों को भी सिखाता था कि कैसे समय का सही उपयोग सिर्फ़ काम में नहीं, जीवन जीने में है।
यह कहानी हमें यह सिखाती है कि समय का सबसे मूल्यवान उपयोग अपनों के साथ बिताए गए पलों में होता है। करियर और सफलता जरूरी हैं, लेकिन अगर हमने अपने अपनों को समय नहीं दिया, तो जीवन केवल एक खाली खांचा बनकर रह जाएगा। वक्त लौटकर नहीं आता, पर समझ आ जाए — तो जो बचा है वही सबसे कीमती हो जाता है।
समाप्त
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