वायुरक्षक अभियान
संक्षिप्त परिचय
वर्ष २०४९ का भारत — तकनीक, विज्ञान और अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों की ऊँचाइयों पर खड़ा, परंतु प्रकृति से बिछड़ता हुआ। जब संपूर्ण उत्तर भारत में अचानक साँस लेना कठिन हो गया, हवा में अदृश्य ज़हर फैलने लगा और आधुनिक यंत्र निष्क्रिय हो गए, तब स्पष्ट हुआ कि यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि मानव-निर्मित आतंक है। इस अदृश्य खतरे का मुकाबला करने के लिए भारतीय वायुविज्ञान अनुसंधान संस्था (भारवाअं) के पूर्व वैज्ञानिक ईशान वर्धन को विशेष रूप से सक्रिय किया गया। उसके नेतृत्व में बना एक गुप्त अभियान — वायुरक्षक अभियान — जो धरती के अंतिम शुद्ध वनों, हिमनदियों और उच्चग्रह वायुसंचालन केंद्रों की ओर निकलता है, उस ज़हर के मूल को नष्ट करने और मानवता को एक नई साँस देने। यह कहानी है विज्ञान और साहस के अद्वितीय संगम की, जो वर्तमान युग के हर युवा को सोचने पर विवश कर देगी — क्या हम अपने ही साँसों के दुश्मन बन चुके हैं?
भाग १: अदृश्य जहर का उदय
साल २०४९ की गर्मियाँ दिल्ली में पहले से कहीं अधिक भयानक थीं। दिन में सूर्य की किरणें जलन पैदा करती थीं और रात को आकाश पर घने भूरे बादल मंडराते थे, जैसे कोई अदृश्य भय शहर पर छाया हुआ हो।
फिर एक दिन सुबह-सुबह अस्पतालों में भीड़ बढ़ने लगी। लोगों को साँस लेने में कठिनाई हो रही थी, फेफड़े जवाब दे रहे थे। मेडिकल यंत्र निष्क्रिय होने लगे। वायु शुद्धिकरण संयंत्रों ने भी काम करना बंद कर दिया।
सरकार को संदेह हुआ कि यह प्राकृतिक प्रदूषण नहीं, कोई योजनाबद्ध वायु-आतंक है।
भारतीय वैज्ञानिक गुप्त परिषद ने एक नाम सुझाया — डॉ. ईशान वर्धन, जो पहले ‘वायुविकिरण नियंत्रण’ के प्रमुख वैज्ञानिक रहे थे, लेकिन एक असहमत शोध के बाद उन्हें निलंबित कर दिया गया था।
अब वही वैज्ञानिक देश की अंतिम आशा था।
भाग २: अभियान का गठन
ईशान वर्धन अब हिमालय की तलहटी में एकांत में रहते थे। जब सरकारी अधिकारी उसे बुलाने पहुँचे, उसने कहा,
“जिस जहर को तुम आज पहचान रहे हो, मैं उसे वर्षों पहले देख चुका था। पर तुमने मेरी चेतावनी को पागलपन समझा।”
फिर भी, ईशान ने एक शर्त पर वापसी स्वीकार की —
“मुझे पूर्ण स्वतंत्रता दो, और मेरी टीम मैं स्वयं चुनूँगा।”
सरकार ने हामी भरी।
ईशान ने जिन चार लोगों को चुना, वे थे —
जया मिश्रा — जैव रसायन विशेषज्ञ, जो विषों की संरचना को समझने में दक्ष थी।
रणधीर ठाकुर — एक पर्वतीय अभियंता, जिसने कई गुप्त बंकर बनाए थे।
नील सेनगुप्ता — एक ड्रोन और निगरानी यंत्र विशेषज्ञ।
सावित्री देवधर — पुरानी संस्कृत ग्रंथों और वेदों की ज्ञाता, जो समझ सकती थी कि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का कौन सा दुष्परिणाम सामने है।
अभियान को नाम दिया गया — वायुरक्षक अभियान।
भाग ३: प्रथम लक्ष्य — वायु प्रसार केंद्र-१२
भारत के मध्य में स्थित एक वायुसंचालन केंद्र से संकेत मिला कि वहां हवा की दिशा और संघटन को किसी कृत्रिम शक्ति द्वारा मोड़ा गया है। टीम जब वहाँ पहुँची, तो देखा कि केंद्र के सभी कर्मचारी बेहोश पड़े थे, और मुख्य नियंत्रण प्रणाली को किसी अज्ञात कोड से बंद कर दिया गया था।
नील ने अपने विशेष उपकरणों से डेटा प्राप्त किया।
जया ने वायुमंडल के एक टुकड़े को संग्रहीत किया और विश्लेषण करते हुए कहा,
“यह कोई सामान्य रसायन नहीं। इसमें वनस्पति की किसी अनजानी प्रजाति से निकाले गए तत्व सम्मिलित हैं, जो केवल एक ही स्थान पर मिलते हैं — वायुवन।”
ईशान के चेहरे पर चिंता थी,
“वायुवन — जिसे हमने वर्षों पहले संरक्षित क्षेत्र घोषित किया था, जहाँ जाना निषिद्ध है।”
भाग ४: वायुवन की यात्रा
वायुवन हिमालय की घाटियों के बीच बसा वह क्षेत्र था, जहाँ पृथ्वी की अंतिम शुद्ध वायु थी। टीम ने एक गुप्त सुरंग से प्रवेश किया, क्योंकि सामने के रास्ते अब कैमरा और माइन से भर चुके थे — किसी ने इस वनों को हथियार बना लिया था।
जंगल में प्रवेश करते ही सावित्री ने हवा में बदलाव महसूस किया,
“यहां वायु नहीं, चेतना है। कोई यहाँ जीवित नहीं, जागृत है।”
थोड़ी ही दूर जाने पर वे एक झील के पास पहुँचे जहाँ हवा स्थिर थी। अचानक कुछ हरे रंग की आकृतियाँ दिखीं — मानवाकृति पौधों की, जो चलते थे, आक्रमण करते थे और जीवित शरीर को अपनी जड़ों में बाँध लेते थे।
ईशान ने एक विकिरण यंत्र का उपयोग किया, और रणधीर ने विस्फोटक तरल पदार्थ से एक सुरक्षा मार्ग बनाया। बड़ी कठिनाई से वे उस गुफा तक पहुँचे, जहाँ से वह जहरीला वायु नियंत्रण हो रहा था।
वहाँ था एक कांच का गुंबद, जिसके भीतर बंधा हुआ था एक प्राचीन वृक्ष — ‘जीवायु’, जो अब वायु नहीं, विष उत्पन्न कर रहा था।
भाग ५: जीवायु का रहस्य
सावित्री ने पुरातन वेदों से इसका उल्लेख किया —
“कहा गया था कि जब मानव अपनी स्वच्छ वायु का सम्मान करना छोड़ देगा, तब प्रकृति स्वयं अपने बचाव में एक वृक्ष उत्पन्न करेगी — जो मानवता के विरुद्ध साँस लेगा।”
ईशान ने कहा,
“हम इस वृक्ष को नष्ट नहीं कर सकते। यह प्रकृति की चेतावनी है। हमें इसे पुनः संतुलन में लाना होगा।”
जया और नील ने मिलकर एक विपरीत रासायनिक गैस तैयार की, जिससे जीवायु का क्रोध शांत हो सकता था।
रणधीर और ईशान ने गुफा के भीतर यंत्र लगाए, और सावित्री ने वेद-पाठ के साथ वायुमंडल में कंपन पैदा किया।
कुछ समय के बाद, वृक्ष की पत्तियाँ नीली हो गईं। उसकी जड़ें वापस पृथ्वी में समा गईं, और कांच का गुंबद स्वयं विघटित हो गया।
भाग ६: वापसी और चेतावनी
जैसे ही जीवायु शांत हुआ, समस्त भारत में हवा की गुणवत्ता सुधरने लगी। दिल्ली में लोग राहत की साँस लेने लगे। अस्पतालों से लोग ठीक होकर बाहर आने लगे।
सरकार ने वायुरक्षक अभियान को ‘राष्ट्रीय वीरता सम्मान’ से नवाज़ा।
पर ईशान ने मना कर दिया।
“यह पुरस्कार नहीं, चेतावनी थी। यदि हम फिर भूल करेंगे, तो जीवायु फिर जागेगा — और अगली बार हमें साँस लेने का अवसर नहीं देगा।”
अंतिम समापन
यह कोई कल्पना नहीं, चेतावनी है। आधुनिकता के दौड़ में यदि हम प्रकृति के साँसों को जहर बना देंगे, तो एक दिन हमारी ही साँसें बंद हो जाएँगी। ‘वायुरक्षक अभियान’ केवल एक वैज्ञानिक मिशन नहीं, यह भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक सीख है — साँस लेना अधिकार है, पर उसे सुरक्षित रखना कर्तव्य।
समाप्त।