शब्द-त्रास: अग्निवीर
शब्द-त्रास: जब देशभर के बच्चों की ज़ुबान से एक ही दिन अचानक बोलने की शक्ति छिन जाती है और लिखे हुए शब्द हिंसक विचारों में बदल जाते हैं, तब यह स्पष्ट हो जाता है कि कोई शक्ति भाषा और विचारों की संरचना को ही विकृत कर रही है। यह कहानी है एक अदृश्य दुश्मन की, जो शब्दों को हथियार बनाकर समाज की सोच पर आक्रमण करता है। जब तर्क, संवेदना और संवाद नष्ट होने लगते हैं, तब खड़ा होता है अग्निपुत्र — एक ऐसी शक्ति बनकर जिसे कोई चुप नहीं करा सकता — यह है शब्द-त्रास: अग्निवीर।
कहानी
पहली आहट – मौन की छाया
यह बात उस सुबह की है जब पूरा देश बच्चों की चहचहाहट से नहीं, भयानक सन्नाटे से जागा। दिल्ली, भोपाल, पटना, जयपुर — हर शहर में अचानक पाँच से बारह वर्ष की उम्र तक के बच्चे अपनी आवाज़ खो बैठे थे।
ना वे रो सकते थे, ना हँस सकते थे, और सबसे अजीब बात — वे समझ नहीं पा रहे थे कि शब्द होते क्या हैं।
मनोवैज्ञानिकों ने इसे ‘सामूहिक भाषिक भ्रम’ कहा, पर कोई समाधान न मिला। अगले दिन, शिक्षकों और लेखकों ने पाया कि उनकी किताबों में लिखे वाक्य बदल गए थे।
“ज्ञान सबसे बड़ा धन है” अब बन चुका था —
“शक्ति के बिना ज्ञान व्यर्थ है।”
राजधानी में अफरा-तफरी मच गई। अखबारों में शब्द उलझने लगे, भाषण देने वाले नेता अपने ही शब्दों में उलझकर मूर्खता की बातें करने लगे। कोई समझ नहीं पा रहा था कि यह कोई तकनीकी षड्यंत्र है या परालौकिक हमला।
शब्दों का यह आतंक पूरे देश में फैलने लगा। लोग एक-दूसरे पर भरोसा करना बंद कर चुके थे क्योंकि बोले गए शब्दों में असत्य और विद्वेष भर चुका था।
अग्निवीर की दृष्टि में शब्द
हिमालय की चोटी पर ध्यानस्थ अग्निवीर को जब एक सपना आया, उसमें उसकी माँ एक आग के बीच फँसी थी और बार-बार कह रही थी —
“बोलो बेटा… कुछ तो बोलो…”
पर अग्निवीर मुँह खोल ही नहीं पा रहा था।
वह काँपते हुए उठा और उसकी आँखों से अग्निबिंदु निकला। इस बार संकट शारीरिक नहीं, बौद्धिक था — शब्दों का विक्षोभ।
उसने ध्यान लगाया और अपने भीतर ‘वाक्-चक्र’ को देखा — एक जटिल ऊर्जा मंडल जो हर जीव की वाणी का स्रोत होता है।
अब वह चक्र थरथरा रहा था — जैसे कोई उसे उलटा घुमा रहा हो।
वाक्-नाशक का उदय
अग्निवीर को एक पुरानी कथा याद आई — ‘वाक्-विनाशक’।
त्रेता युग में एक तांत्रिक था ‘वाचहर’ — जो शब्दों से मंत्रों को मिटा सकता था। देवताओं ने उसे सृष्टि के लिए घातक माना और उसकी वाणी को ही छीन लिया।
पर अब वही ‘वाचहर’ किसी अन्य रूप में लौट आया था — ‘वाक्-नाशक’ के रूप में।
वाक्-नाशक कोई भौतिक शरीर नहीं था। वह एक ध्वनि-शून्य तरंग था — एक प्रकार की ‘विरुद्ध ध्वनि’ — जो मनुष्य के भावों को तोड़कर शब्दों को हिंसा में बदल देती थी।
तीन शब्दकेंद्रों की रक्षा
अग्निवीर को तीन प्राचीन शब्द केंद्रों को पुनः सक्रिय करना था, जहाँ भारतीय भाषा की ऊर्जा सदियों से संचित थी:
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नालंदा — प्रज्ञा का स्तम्भ
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काशी — ध्वनि की माँ
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उज्जैन — संकल्प का कंठ
नालंदा — पुस्तकें जो जलती थीं, अब फूट रही थीं
यहाँ अग्निवीर को शब्दों की आग का सामना करना पड़ा — हर पुस्तक से शब्द बाहर आकर भटकते विचारों का विकराल रूप ले चुके थे।
उसने ‘अग्नि-संवाद’ साधना की — एक ऐसी विधा जिसमें अग्नि, शब्दों को पुनः पवित्र कर सकती है।
जैसे ही अग्निशिखा ग्रंथों को छूती, वे शांत हो जाते।
काशी — मौन की माँ
यहाँ मंदिरों की घंटियाँ बंद थीं, पुजारियों के मन्त्र मौन थे।
अग्निवीर को ‘मौन-ज्योति’ जलानी पड़ी — अग्नि की एक ऐसी लपट, जो बिना ध्वनि के कंपन करती है।
इससे मंदिरों की दिव्य ध्वनि लौट आई, और वाणी को एक दिशा मिली।
उज्जैन — संकल्प की अग्नि
यहाँ वाक्-नाशक की छाया पहले से फैल चुकी थी। लोग एक-दूसरे से लड़ रहे थे क्योंकि उनके बोले गए शब्द उनके ही खिलाफ हो जाते थे।
अग्निवीर ने संकल्प अग्नि को भीतर जलाया — वह अग्नि जो ‘सत्य’ को ‘अभिव्यक्ति’ देती है।
अंतिम युद्ध — वाक्-नाशक की देह से पहले उसके स्वर से युद्ध
वाक्-नाशक अग्निवीर को दिखाई नहीं दिया। उसने अग्निवीर को अपनी ही माँ की आवाज़ में बुलाया —
“क्या तू सच में आग है? या केवल एक भ्रम?”
हर बार वह किसी प्रिय की आवाज़ में सामने आता — जैसे अग्निवीर के भीतर की सारी यादें अब उसके खिलाफ थीं।
पर अग्निवीर ने कहा —
“मेरे शब्द बाहर से नहीं आते,
वे भीतर के तप से निकलते हैं।
तू मेरी स्मृतियाँ चुरा सकता है,
पर मेरा संकल्प नहीं।”
उसने पहली बार ‘वाक्-अग्नि’ उत्पन्न की — जो शब्दों को उनके भाव से जोड़ती है।
वाक्-नाशक का कम्पन रुक गया। एक अंतिम स्वर में वह बोला —
“तेरे शब्द… जलते नहीं… जगाते हैं…”
और वह अस्तित्वहीन हो गया।
नववाणी का संचार
देशभर में चुप बैठे बच्चे एक साथ बोलने लगे।
शब्द लौटे, पर अब वे जली हुई राख से निकल कर निकले थे — तपे हुए, सच्चे।
हर न्यायालय, हर पाठशाला, हर समाचार पत्र में एक नया शब्द जोड़ा गया —
“वाणी अग्नि है — सोच समझ कर बोलो, वरना वह तुम्हें भी जला सकती है।”
समाप्त
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